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पत्रकारिता में लगे खाज को कोढ़ में बदलने से पहले उपचार की आवश्यकता

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पत्रकारिता को अपने अंदर चल रहे कई सवालों को आने वाले समय में हल करना है. जब तक वह अपनी उलझनों को दूर नहीं करेगा. उसके आगे का रास्ता आसान नहीं होने वाला. यदि सोशल मीडिया ने समानांतर मीडिया के तौर पर अपनी जगह बनाई है तो यह जगह बनाने का अवसर मीडिया ने ही दिया है. मीडिया में धीरे धीरे ग्राउंड स्टोरी की जगह कम होती जा रही है.

आशीष कुमार ‘अंशु’

“आज पत्रकार राजनीति में सक्रिय हो गए हैं और राजनेता पत्रकार बन गए हैं. उद्योगपति मीडिया समूह चला रहे हैं. पता ही नहीं लगता कौन पत्रकार है, और कौन राजनीति में है?”

‘द ट्रिब्यून’ के संपादक हरीश खरे की इस टिप्पणी से पत्रकारिता की थोड़ी सी भी समझ रखने वाला व्यक्ति असहमत नहीं होगा. वास्तव में यह पत्रकारिता का संक्रमण काल है. जहां कोई हल्की सी भी रोशनी दिखती है तो पत्रकारिता में विश्वास करने वाले व्यक्ति के अंदर का विश्वास फिर से जागृत हो जाता है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है. परिवर्तन बाकी है. समाज का विश्वास फिर से पत्रकारिता पर कायम होगा.

हाल में ही अपने रिपोर्टर अभिषेक गौतम की प्रशंसा में नवभारत टाइम्स दिल्ली के संपादक सुधीर मिश्रा की फेसबुक पोस्ट उसी उम्मीद का उदाहरण है, जो हर उस पत्रकार के अंदर बची है. जो पत्रकारिता से प्रेम करता है. जिसके लिए आज भी पत्रकारिता कोई रोजगार नहीं है. वह पत्रकारिता को औजार समझ रहा था, लेकिन मीडिया घराने के मालिकों ने उसे पैसा कमाने का हथियार बनाकर उपयोग किया. सुधीर मिश्रा अपने रिपोर्टर अभिषेक की शानदार रिपोर्टिंग के लिए लिखते हैं – “रेलवे के ठेके लेने वाली विशालकाय लॉन्ड्री में छह दिन तक पैंतालिस डिग्री में जिस्म तपा कर सच निकालने वाले अभिषेक गौतम की देश भर में चर्चा हो रही है. खासतौर पर मीडिया जगत में. सोशल मीडिया पर देश के बड़े-बड़े संपादकों, अफसरों, नेताओं, पत्रकारों और आम लोगों ने नवभारत गोल्ड के स्टिंग ऑपरेशन को साझा किया और सराहना की. इससे यह समझ आना चाहिए कि जब लोग मीडिया और पत्रकारों के बारे में तरह-तरह की नकारात्मक उपमाओं, अपशब्दों और आलोचनाओं से हमलावर होते हैं तो यह उनकी पत्रकारिता से नाराजगी नहीं होती, यह उनकी विवशता और गुस्सा है क्योंकि उन्हें अपने टीवी चैनलों और दूसरे मीडिया माध्यमों से वह नहीं मिलता, जिसकी उन्हें आवश्यकता है. हर तरह की खबर पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को चाहिए होती है. लेकिन सबसे ज्यादा उसके प्रतिदिन के जीवन से जुड़ी हुई. कुछ लोगों को नेताओं के भाषणों, सियासी हलचलों में दिलचस्पी हो सकती है. लेकिन आटा, दाल, चावल, यात्रा, बच्चों की पढ़ाई और बुजुर्गों की सेहत से ज्यादा नहीं. उन्हें अपनी जिंदगी से जुड़ी खबरें चाहिए. बीते 28 साल के करियर में तो मैंने यही जाना और सीखा कि एक खबरनवीस की जिंदगी में आम लोगों की खुशी, दुःख और तकलीफ की समझ और उनके प्रति संवेदना सबसे आवश्यक है. अलग-अलग अखबारों में ऐसे बहुत से सहयोगी और जूनियर साथी मिले जिनके जज्बे को हमेशा सराहता हूं. सच कहूं तो ऐसे कई युवा हैं जो अभिषेक की ही तरह साहसी, संवेदनशील और बेहतर समझ के पत्रकार हैं. गालियों के दौर में अभिषेक को मिल रही यह सराहना उन्हें भी प्रेरणा दे ही रही है कि बिना किसी खेमेबंदी और सियासत में उलझे हुए भी वह कुछ ऐसा कर सकते हैं जो समाज को प्रेरित करे. मैंने जितने भी अखबारों में काम किया है, वहां नब्बे प्रतिशत पत्रकार पूरी सच्चाई से अपना काम करना चाहते थे और चाहते हैं, बस उन्हें सच्चा काम करने का माहौल देने की आवश्यकता है.”

आम तौर पर संपादक वर्ग प्रशंसा करने में थोड़ा कंजूस माना जाता है, लेकिन इस टिप्पणी में उदारता दिखाई देती है. वैसे अभिषेक ने काम भी काबिले तारीफ किया है. जिसकी वजह से पत्रकारों के बीच भी उसे खूब सारी शुभकामनाएं और प्रशंसा मिली. रेल के एसी कोच के टिकट सामान्य श्रेणी की टिकटों से महंगे हैं, फिर भी उसमें मिलने वाली चादरें और तकियों के गंदे होने की शिकायतें लगातार आ रहीं थी. वे इतने गंदे थे कि आप बीमार पड़ जाएं. इस बात की पड़ताल करने के लिए अभिषेक ने उस कारखाने में एक मजदूर की तरह प्रवेश किया, जहां रेलवे अपनी चादर धुलवाता है. वहां छह दिनों तक काम किया. वहां की स्थिति देखकर स्टिंग का विचार आया. फिर जो कल तक सबसे छिपाकर चल रहा था, अभिषेक ने उसे सबके सामने ला दिया.

अब बात थोड़ी पत्रकारिता के भविष्य की कर लेते हैं. बीते बीस वर्षों में पत्रकारिता बहुत बदली है. पहले किसी भी संस्थान में संपादक नाम की सत्ता होती थी. जिसे हम मीडिया में प्रकाशित अथवा प्रसारित सामग्री के लिए जिम्मेवार मानते थे. बीते दो दशकों में हुआ यह कि मीडिया के संस्थानों से धीरे धीरे संपादकों को विदा किया जाने लगा और उनकी जगह प्रबंधक बिठाए गए. जिन्हें कन्टेन्ट की समझ चाहे थोड़ी कम थी, लेकिन उन्हें बिजनेस की समझ पूरी थी. उन्हें यह भी पता था कि खबर छापने से अधिक पैसे ना छापने के मिलते हों तो खबर को ना छापना सही निर्णय है. यह बिल्कुल 2006-07 का वह समय था, जब स्व. प्रभाष जोशी, राम बहादुर राय जैसे वरिष्ठ पत्रकार पेड न्यूज के खिलाफ अभियान चला रहे थे. यह वह समय था, जब टीवी पत्रकार और बाद में आम आदमी पार्टी के नेता रहे आशुतोष गुप्ता ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता संस्थान में छात्रों को साफ शब्दों में बताया कि यदि वे पत्रकारिता से समाज बदलने का कोई सपना लेकर माखनलाल में पढ़ाई कर रहे हैं तो अपने अभिभावकों का पैसा बर्बाद किए बिना उन्हें वापस घर लौट जाना चाहिए. पत्रकारिता एक्टिविस्ट के लिए नहीं है. पत्रकार होना भी दूसरी नौकरियों की तरह ही है.

मतलब जैसे कुछ लोग मोबाइल की शॉप खोलते हैं, कुछ लोग रियल एस्टेट का काम करते हैं, वैसे ही कुछ लोग मीडिया की पढ़ाई करके पत्रकार बन जाते हैं. आशुतोष ने कहा था कि यदि पत्रकारिता में आकर आप मूल्यों और सामाजिक सरोकार की बात करते हैं अथवा परिवर्तन लाना चाहता हैं तो आपने गलत पेशा चुन लिया है.

यह बात पत्रकारिता के छात्रों को अकेले आशुतोष नहीं समझा रहे थे. यह बात मीडिया के छात्रों को मीडिया में आने से पहले ठीक प्रकार से समझा दी गई कि आप एक नौकरी के लिए खुद को तैयार कीजिए. सिस्टम को बदलने के लिए कोई भी मीडिया संस्थान आप पर निवेश नहीं करेगा. संपादकों को कैम्पस सेलेक्शन के दौरान उन लड़कों को ही छांटना है जो मीडिया हाउस के मालिक के दूसरे कारोबारों को बढ़ाने में टूल की तरह खुद को खपाने के लिए तैयार हों.

वर्ष 2012 आते आते संपादक को हटाकर प्रबंधकों को बिठाने वाले संस्थानों में मालिकों ने सारा काम अपने हाथ में ले लिया. वह पत्रकारों की भर्ती से लेकर संपादकीय निर्णयों में भी हस्तक्षेप करने लगे. पेड न्यूज के खिलाफ जो मुहिम चल रही थी, उस पर कोई ईमानदार बहस प्रारंभ हो, उसकी जगह फेक न्यूज ने ले ली. पत्रकारिता में फैक्ट चेकर नाम की एक नई प्रजाति का जन्म हुआ.

2012-13 में सोशल मीडिया की ताकत को सत्ता में बैठे लोगों ने महसूस किया. एक ऐसी ताकत धीरे-धीरे खड़ी होने लगी थी जो राजनीतिक सत्ता और मीडिया की सत्ता दोनों को चुनौती दे रही थी. सोशल मीडिया ने आम आदमी की अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को सशक्त किया. जिसे आजादी समझ कर आम आदमी सोशल मीडिया पर जी रहा था, उसे लेकर मुख्य धारा की मीडिया में आजादी या अराजकता के नाम पर बहस चल पड़ी. मई 2014 में जब भारत में केन्द्र की सरकार बदली तो मीडिया विश्लेषणों में बार बार यह बात आई कि इस जीत में प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तित्व का चमत्कार तो था ही लेकिन कांग्रेस के तख्ता पलट में बड़ी भूमिका सोशल मीडिया की थी.

वर्ष 2010 के आस पास की बात है, यह खबर आई कि एक संयुक्त संपादक को सवा करोड़ रुपए के पैकेज पर नियुक्ति मिली है. उन्हीं दिनों ग्रामीण विकास की पत्रिका सोपान स्टेप के लिए एक कवर स्टोरी की थी. वह अंतर समझ आ रहा था, जहां एक तरफ राजस्थान के बारां में एक सहरिया जनजातीय परिवार पांच-सात सौ रुपये में पूरे महीने जीवन यापन कर रहा था. वहीं, दूसरी तरफ मुकेश अंबानी मुम्बई में 15000 करोड़ की लागत से अपना घर एंटीलिया बना रहे थे. मुकेश अंबानी से क्या शिकायत की जाए, वे तो व्यवसायी व्यक्ति हैं. पत्रकारिता में जब 10,000 से लेकर 15,000 के मासिक वेतन पर ठीक-ठाक से संस्थान अपने यहां पत्रकारों की नियुक्ति कर रहे हों और उसी दौरान कोई दस लाख रुपये मासिक वेतन एक मीडिया संस्थान से ले और इतने बड़े अंतर को देखते हुए भी उसे इस वेतन को लेकर कोई चिंता ना हो. पत्रकारिता कर रहे सबसे अंतिम पायदान पर खड़े पत्रकार को लेकर कहीं कोई विमर्श ना हो तो मुझे लगता है कि समाज को मार्ग दिखाने से पहले भारतीय पत्रकारिता के विषय में थोड़ा ठहर कर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है.

रांची, दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार विनय चतुर्वेदी ने एक बार कहा था – शोषण के खिलाफ सबसे अधिक मुखर वर्ग पत्रकारों का है और समाज में सबसे अधिक शोषण उसी का हो रहा है. विडम्बना यह है कि वह दूसरों के शोषण पर कलम चला सकता है, लेकिन अपने शोषण पर खामोश रहना ही उसकी नियति है.

पत्रकारिता को अपने अंदर चल रहे कई सवालों को आने वाले समय में हल करना है. जब तक वह अपनी उलझनों को दूर नहीं करेगा. उसके आगे का रास्ता आसान नहीं होने वाला. यदि सोशल मीडिया ने समानांतर मीडिया के तौर पर अपनी जगह बनाई है तो यह जगह बनाने का अवसर मीडिया ने ही दिया है. मीडिया में धीरे धीरे ग्राउंड स्टोरी की जगह कम होती जा रही है.

यह भी समझना होगा कि उसकी सारी ताकत उस वक्त तक है, जब तक समाज का उस पर विश्वास है. फेक न्यूज और पेड न्यूज जैसी खाज जो उसे लगी है, उसे कोढ़ में बदलने से पहले उसका उपचार करना बहुत आवश्यक है. उसके बाद ही भविष्य की पत्रकारिता से समाज कोई उम्मीद रख पाएगा.

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