प्रमोद भार्गव
कश्मीर में आतंकी गैर-मुस्लिम पेशेवरों को निशाना बनाने की नई साजिश को अंजाम दे रहे हैं. जिस दौरान भारत-पाकिस्तान ने स्थाई सिंधु आयोग की बैठकर हो रही थी, उसी दौरान पाकिस्तान परस्त आतंकी घाटी में एक-एक कर हिन्दू नौकरीपेशाओं की लक्षित हत्या में लगे थे. राहुल भट्ट, रजनीबाला, बैंक प्रबंधक विजय कुमार ऐसी ही हत्याओं के परिणाम हैं. बीते 22 दिन में 19 नागरिकों की लक्षित हत्याएं हुई.
हालांकि इनमें ऐसे मुस्लिम भी मिल हैं, जिनका रुख भारत के साथ है. बावजूद सिन्धु जल संधि एक ऐसी संधि है, जो दोनों देशों के बीच युद्ध और द्विपक्षीय संबंधों में ठहराव से बची हुई है. किंतु जब पाक उरी, पाठानकोट और पुलवामा आतंकी हमलों के बाद अब कश्मीर में आ रही शांति और स्थिरता को अशांत और अस्थिर करने से बाज नहीं आ रहा है, तब भारत को इस संधि पर पुनर्विवार करने की आवश्यकता है. यह इसलिए, क्योंकि पाकिस्तान अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आ रहा है.
पाक आतंकी घटनाओं को अंजाम देकर, एक तो कश्मीरियों के हितों की चिंता की नौटंकी करता है, दूसरे इसके ठीक विपरीत अवैध कब्जे वाले कश्मीर के लोगों का अमानुशिक दमन करता है. इससे उसका दोहरा चरित्र सामने आता है कि उसकी चिंता कश्मीरियों के प्रति न होकर भारत को परेशान करने के अलावा कुछ नहीं है. तय है, भारत सरकार ने पाकिस्तान को ईंट का जबाव पत्थर से नहीं दिया तो कश्मीर में विस्थापित हिन्दुओं के पुर्नवास की जो पहल शुरू हुई है, उसे झटका लगना तय है.
भारत में ढाई दशक से चले आ रहे पाक प्रायोजित छाया युद्ध के खिलाफ 1960 में हुए सिंधु जल समझौते को रद्द करने पर विचार करना होगा. क्योंकि आपसी विश्वास और सहयोग से ही कोई समझौता स्थाई बना रह सकता है. वैसे भी इस समझौते में साख की खास अहमियत है, जो टूट रही है.
विश्व बैंक की मध्यस्थता में 19 सितंबर 1960 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान ने सिंधु जल-संधि पर हस्ताक्षर किए थे. इसके अंतर्गत पाकिस्तान से पूर्वी क्षेत्र की तीन नदियों व्यास, रावी व सतलुज की जल राशि पर नियंत्रण भारत के सुपुर्द किया था और पश्चिम की नदियों सिंधु, चिनाब व झेलम पर नियंत्रण की जिम्मेवारी पाक को सौंपी थी.
दरअसल, सिंधु-संधि के तहत उत्तर से दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा सुनिश्चित की गई है. इसके तहत सिंधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां सिंधु, चिनाब और झेलम पूरी तरह पाकिस्तान को उपहार में दे दी गई हैं. इसके उलट भारतीय संप्रभुता क्षेत्र में आने वाली व्यास, रावी व सतलज नदियों के बचे हुए हिस्से में ही जल सीमित रह गया है. इस लिहाज से यह संधि दुनिया की ऐसी इकलौती अंतर्देशीय जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है. और संधि की असमान शर्तों के चलते ऊपरी जलधारा वाला देश, नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली जलधारा वाले देश पाकिस्तान के लिए अपने हितों की न केवल अनदेखी करता है, वरन बालिदान कर देता है.
इतनी बेजोड़ और पाक हितकारी संधि होने के बावजूद पाक ने भारत की उदार शालीनता का उत्तर पूरे जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में आतंकी हमलों के रूप में तो दिया ही, इनका विस्तार भारतीय सेना व पुलिस के सुरक्षित ठिकानों तक भी देखने में आया है. उड़ी, गुरूदासपुर, उधमपुर, पठानकोट, मजार-ए-शरीफ, पंपोर और जलालाबाद में आतंकी हमले हुए हैं. ये सभी हमले आतंकवाद को बहाना बनाकर छद्म युद्ध के जरिए किए गए, जबकि ये सभी हमले पाक सेना की करतूत हैं.
दरअसल, छद्म युद्ध में लागत तो कम आती ही है, हमलावर देश पाकिस्तान वैश्विक मंचों पर इस बहाने रक्षात्मक भी हो जाता है कि इन हमलों में उसका नहीं, आतंकवादियों का हाथ है. हैरानी इस बात पर है कि इस संधि को तोड़ने की हिम्मत न तो 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद दिखाई गई और न ही 1971 में. हालांकि 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में विभाजित कर नए राष्ट्र बांग्लादेश को अस्तित्व में लाने की बड़ी कूट व रणनीतिक सफलता हासिल की थी.
पाकिस्तान की प्रकृति में ही अहसानफरोशी शुमार है. इसीलिए भारत ने जब झेलम की सहायक नदी किशनगंगा पर बनने वाली ‘किशन गंगा जल विद्युत परियोजना‘ की बुनियाद रखी तो पाकिस्तान ने बुनियाद रखते ही नीदरलैंड में स्थित ‘अन्तर्राष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय‘ में 2010 में ही आपात्ति दर्ज करा दी थी. जम्मू-कश्मीर के बारामूला जिले में किशनगंगा नदी पर 300 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है.
हालांकि 20 दिसंबर 2013 को इसका फैसला भी हो गया था. दुर्भाग्य कह लें या भारत द्वारा ठीक से अपने पक्ष की पैरवी नहीं करने के कारण यह निर्णय भारत के व्यापक हित साधे रखने में असफल रहा. न्यायालय ने भारत को परियोजना निर्माण की अनुमति तो दे दी, लेकिन भारत को बाध्य किया गया कि वह ‘रन ऑफ दि रिवर‘ प्रणाली के तहत नदियों का प्रवाह निरंतर जारी रखे. फैसले के मुताबिक किशनगंगा नदी में पूरे साल हर समय 9 क्यूसिक मीटर प्रति सेंकेड का न्यूनतम जल प्रवाह जारी रहेगा.
हालांकि पाकिस्तान ने अपील में 100 क्यूसिक मीटर प्रति सेकेंड पानी के प्राकृतिक प्रवाह की मांग की थी, जिसे न्यायालय ने नहीं माना. पाकिस्तान ने सिंधु जल-समझौते का उल्लघंन मानते हुए भारत के खिलाफ यह अपील दायर की थी. इसके पहले पाकिस्तान ने बगलिहार जल विद्युत परियोजना पर भी आपत्ति दर्ज कराई थी. जिसे विश्व बैंक ने निरस्त कर दिया था.
किशनगंगा को पाकिस्तान में नीलम नदी के नाम से जाना जाता है. इसके तहत इस नदी पर 37 मीटर यानि 121 फीट ऊंचा बांध निर्माणाधीन है. बांध की गहराई 103 मीटर होगी. यह स्थल गुरेज घाटी में है. इसका निर्माण पूरा होने के अंतिम चरण में है. बांध बनने के बाद किशनगंगा के पानी को बोनार मदमती नाले में प्रवाहित किया जाएगा.
दरअसल द्विपक्षीय वार्ता के बाद शिमला समझौते में स्पष्ट उल्लेख है कि पाकिस्तान अपनी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकवाद को फैलाने की इजाजत नहीं देगा. किंतु पाकिस्तान इस समझौते के लागू होने के बाद से ही, इसका खुला उल्लघंन कर रहा है. लिहाजा पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने के नजरिए से भारत को सिंधु जल-संधि को ठुकराकर पानी को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की आवश्यकता है.
इस संधि के चलते यहां की जनता को पानी के उपयोग के मौलिक अधिकार से भी वंचित होना पड़ रहा है. इसलिए आतंक का माकूल जबाव देने के लिए भारत सरकार को सिंधु जल को कूटनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत है.