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अब रुख से नकाब सरक रहा है…!!!

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फिल्में तो बेशुमार बनती हैं. मगर विवेक रंजन अग्निहोत्री ने फिल्म नहीं बनाई है. उन्होंने परदे में छिपे हुए कश्मीर के सच से हिजाब हटा दिया है. तीन दशक का दर्द सिनेमा हॉल में आंसू बनकर बह निकला है. पिछली बार किस मूवी के दर्शकों को डायरेक्टर के पैरों पर गिरते हुये आपने देखा..?? कब बिलखती हुई किसी महिला दर्शक ने एक नये नवेले एक्टर को सीने से लगाकर बहुत आगे जाने की दुआएं दीं थीं..??

आज मैं “द कश्मीर फाइल्स” की बात कर रहा हूँ, जो मैंने अभी तक देखी नहीं है. मैं पिछले छह दिन से सिर्फ देखने वालों को देख रहा हूँ, गौर से सुन रहा हूँ. मगर फिल्म देखने की हिम्मत अभी तक जुटा नहीं पाया हूँ.

निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री यह फिल्म लेकर आए हैं. मगर विवेक रंजन के नाम के आगे न चोपड़ा लगा है, न कपूर. वे न जौहर हैं, न रामसे. वे न भंसाली हैं, न बड़जात्या. वे न सिप्पी हैं, न देसाई. यह बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी का जमाना भी नहीं है. कथा-पटकथा लिखने वाले न सलीम हैं, न जावेद. डायलॉग लिखने वाले कादर खान भी नहीं हैं. कौमी एकता के तराने किसी कैफी आजमी या कैफ भोपाली ने भी नहीं लिखे हैं. वे सिर्फ विवेक रंजन अग्निहोत्री हैं, अग्निहोत्री. उन्होंने एक आहुति दी है. अपनी कला से बस एक अग्निहोत्र ही किया है और पवित्र अग्नि से निकला यज्ञ का यह प्रचंड धुआं समस्त वायुमंडल में व्याप्त हो गया है.

बड़े सितारे वे नहीं होते, जो परदे पर चमकते हैं. बड़े सितारे वे हैं, जो उन सितारों को सितारा हैसियत में लेकर आते हैं. सिनेमा के आम और अनाम दर्शक. किंग नहीं, किंग मेकर ही बड़ा होता है. सियासत हो या साहित्य या फिर सिनेमा. नेताओं, लेखकों और अदाकारों को बड़ा बनाने वाला होता है उनका वोटर, उनका पाठक और उनका दर्शक. हाँ, वे जरूर इस वहम में हो सकते हैं कि वे अपने बूते पर बड़े बने हैं.

अभी तक तो भारत की सेक्युलर सियासत बुरी तरह बेपर्दा हुई थी. अब एक झटके में बॉलीवुड बेनकाब हो गया है. भारत का सबसे मालदार सिनेमा उद्योग अनगिनत धुरंधर लेखकों और रचनाकारों के होते हुये भी इतना दरिद्र रहा कि सवा सौ साल में अपने लिये एक मौलिक नाम तक नहीं खोज पाया. हॉलीवुड की भोंडी नकल में बॉलीवुड ही बना बैठा है, आज उसके सारे हिजाब हट गये हैं. वह एक गैंग की तरह ही सामने आ गया है. जहां हैं, ऐसी बेजान और बिकाऊ कठपुतलियां, जिनकी डोर किसी और के ही हाथों में रही थी. उनके असल निर्णायक कोई और हैं. मगर आज इस समय सबके चेहरे उतरे हुये हैं.

सबकी चमक बीते शुक्रवार को फीकी पड़ गयी है. हिंदी में बनी एक फिल्म, दुनिया भर में करोड़ों लोगों के दिलों को छू सकती है. सिर्फ सच की बदौलत. देश को न इस नरेशन की जरूरत है, न उस नरेशन की. नरेशन जो भी हो, राष्ट्र का हित दायें-बायें न हो. अभी तो पेंडुलम पूरा ही एक तरफ सरका हुआ है.

सलीम-जावेद के संयुक्त सौजन्य से सिनेमाई कहानियों में जो रहीम और रहमत चचा, खान और पठान जरूरत के वक्त हीरो के मददगार के रूप में चित्रित किये गये थे, वे चित्र से बाहर कश्मीर में कुछ और ही करते हुये नजर आ गये. वर्ना एक लड़की के साथ सामूहिक रेप के बाद आरे से चीरने वाले कौन थे..?? चावल के ड्रम में अपनी जान बचाने के लिये छिपे निहत्थे आदमी को गोलियों से किसने भून डाला था..?? वो कौन थे, जिन्होंने खून से सने चावल को घर की औरतों और बच्चों के सामने परोस दिया था..?? वो कौन थे, जिन्होंने इशारे में बताया था कि निहत्था आदमी छत पर कहां छिपा हुआ है..?? वो कौन थे, जो लाउड स्पीकरों पर खुलेआम धमका रहे थे..?? उनके नाम क्या हैं, जो भीड़ में तकबीर के नारे बुलंद कर रहे थे..??

कश्मीर कब तक जन्नत था और कब से जहन्नुम हो गया..?? इसे जहन्नुम बनाने में किन-किन के हाथ लगे..?? चलो मान भी लिया कि आतंक का तो कोई मजहब नहीं होता. मगर कश्मीर के इन वहशी चेहरों में एक जैन, एक बौद्ध, एक सिक्ख, एक पारसी, एक यहूदी या एक हिन्दू ही बता दीजिये. सिनेमा के परदे का रहीम और रहमत, खान और पठान कश्मीर में आकर क्या से क्या नजर आया..?? सियासत और साहित्य की तरह सिनेमा भी ३२ साल से एक शातिर चुप्पी में पड़ा रहा. विधु विनोद चोपड़ा (नेत्रहीन दिव्यांग) तो स्वयं एक कश्मीरी हैं, दो साल पहले “शिकारा” में लोरी सुनाने निकले थे और पहले ही शो में गालियां खाकर लौटे थे.

सबकी परतें उधड़ रही हैं. सबकी कलई खुल रही है. घातक सेक्युलरिज्म के दुष्प्रभाव अपनी कहानी खुद कह रहे हैं. इंडिया टुडे के कवर किन चेहरों से सजाये गये थे..?? कौन बड़े ठाठ से प्रधानमंत्री से हाथ मिला रहा था..?? कौन दिल्ली में लाल कालीन सजाये बैठे थे..?? गंगा-जमुनी माहौल कितना शायराना बना दिया गया था..?? एनडीटीवी की नजर में यह एक प्रोपेगंडा फिल्म है. ये सब मिलकर भारत को एक फरेब में घसीटकर ले गये. बटवारे की भीषण और भारी कीमत चुकाने के बावजूद इस देश पर किसी को दया नहीं आई. अंतत: यह एकतरफा चाल सिर्फ उन ताकतों को ही भारी नहीं पड़ी, जिनके चेहरे से सत्तर साल बाद नकाब हटे हैं. यह देश के लिए बहुत महंगी साबित हुई. परदे पर तो एक कश्मीर का भोगा हुआ सच सामने आया है. भुक्तभोगी कश्मीरी हिन्दू सुशील पंडित कितने मंचों से आगाह करते रहे हैं कि देश में ऐसे पांच सौ कश्मीर तैयार हैं. फिर ये किया धरा किसका है..??

फिल्में तो बेशुमार बनती हैं. मगर विवेक रंजन अग्निहोत्री ने फिल्म नहीं बनाई है. उन्होंने परदे में छिपे हुए कश्मीर के सच से हिजाब हटा दिया है. तीन दशक का दर्द सिनेमा हॉल में आंसू बनकर बह निकला है. पिछली बार किस मूवी के दर्शकों को डायरेक्टर के पैरों पर गिरते हुये आपने देखा..?? कब बिलखती हुई किसी महिला दर्शक ने एक नये नवेले एक्टर को सीने से लगाकर बहुत आगे जाने की दुआएं दीं थीं..?? कब किसी टीवी चैनल को यह चुनौती देते हुये देखा था कि अगर सिनेमा हॉल में फिल्म के प्रदर्शन में अड़चन आये तो उसका मंच खुला हुआ है..?? मगर डरे हुये लोगों द्वारा फिल्म को रोकने की याचिका के हाईकोर्ट से खारिज होते ही पहले दिन के तीन सौ स्क्रीन तीन दिनों में २६ सौ हो गये.

आम दर्शकों की तीखी प्रतिक्रिया के ये सारे चौंकाने वाले दृश्य परदे पर फिल्म के “द एंड” के बाद के हैं. हम देख रहे हैं कि प्रत्येक दर्शक एक कड़क समीक्षक की भूमिका में आ गया है. तकनीक ने उसे मीडिया का मोहताज नहीं रहने दिया है. न टीवी का, न प्रिंट का. डिजिटल प्लेटफॉर्म पर वह लिख रहा है. खुलकर बोल रहा है. सोशल मीडिया को अनिद्रा का वरदान टेक्नालॉजी ने ही दिया है. भारत का भोगा हुआ सच अब हजार दरवाजों और लाखों खिड़कियों से झांकेगा. सिनेमा से भी, साहित्य से भी और सियासत से भी. वह हम सबसे हिसाब मांगेगा. सवाल करेगा, आइना दिखाएगा, अक्ल ठिकाने लगाएगा, होश भी उड़ाएगा और सोचने पर निश्चित मजबूर भी करेगा. और हमारे जवाब का इंतजार भी करेगा. अभी तो बस यह शुरुआत है.

सचिन त्यागी

कुछ संशोधन व संकलन के साथ

संदर्भ स्रोत – विजय मनोहर तिवारी

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