अजीत प्रताप सिंह
तुलसीदास जी जब अपनी मानस रचना करते समय अयोध्या से चलकर बनारस आए तो उनके गुरुभाई के मित्र ने एक घाट पर उनके रहने की व्यवस्था की. तुलसीदास लेखक/कवि तो उत्तमकोटी के थे ही, कथाकार भी थे. दो-चार रोज में ही पूरे बनारस में उनकी धूम मच गई. उन्हें सुनने के लिए प्रतिदिन भीड़ बढ़ती ही जाती.
उनके ही एक गुरुभाई तो उनसे जलते ही थे. शिव की नगरी में राम के गुण गाने पर कुछेक शैव भी नाराज थे, और कुछ वैष्णव इस बात पर खार खाये थे कि वे आमजन की भाषा में रामायण लिख रहे थे. हालांकि बनारस की अधिसंख्य जनता राम और शिव में या राम और शक्ति में कोई अंतर नहीं मानती थी, न उसे इससे फर्क पड़ता था कि भगवत भक्ति के लिए माध्यम संस्कृत हो या आमजन की बोली. पर जो भी हो, जितने भी हों, किसी भी शाक्त, शैव या वैष्णव ने उनका अनैतिक या हिंसक प्रतिरोध नहीं किया.
पर, बनारस में एक और समुदाय था जो उनका प्रचंड विरोधी था. और अन्य जनों की भाँति उसका प्रतिरोध मात्र वचनों तक सीमित नहीं था, अपितु उसने एक नई ही रीति खोज निकाली थी. तुलसीदास के उठने से पहले ही वह कथा-स्थल पर हड्डियां फेंक देता. जैसे-तैसे वे और भक्तजन उस गंदगी को साफ करके कथा सुनने-सुनाने बैठते, घरों से पत्थर उछलकर आने लगते.
दो-चार दिन तो तुलसी सहते रहे, पर कब तक? तत्कालीन प्रशासन भी विधर्मी था, उन्हीं पत्थरबाजों के मजहब का था, अतः शिकायत का भी क्या ही फायदा होता. तो अंतिम उपाय के तौर पर तुलसी दूसरे घाट पर आ गए और वहां उन्होंने अखाड़ा बनाया. अब रोज सुबह-शाम खुद पहलवानी करते और जवानों को पहलवानी की शिक्षा देते. न केवल अस्सी घाट पर, बल्कि बनारस के कोने-कोने में अखाड़े तैयार किए गए.
कुछ समय बाद जब स्थानीय प्रशासन ने तुलसीदास को कैद किया, तब इन्हीं अखाड़ों से निकले युवाओं ने पूरी कोतवाली को बंधक बनाकर तुलसीदास को उसी शाम छुड़ा लिया और इस घटना से इतना तहलका मचा कि खुद बादशाह अकबर ने बनारस-जौनपुर के गवर्नर को बर्खास्त कर रहीम को वहां नियुक्त किया और रहीम खुद चलकर माफी मांगने आए.
उपरोक्त घटना ऐतिहासिक सत्य है. यह पत्थरबाजी, यह धर्म-कर्म के काम में रुकावट डालना सदियों से चलता आ रहा है. पहले पता नहीं चलता था, आज सोसल मीडिया का जमाना है, हर हाथ में कैमरा है, हर व्यक्ति पत्रकार है, अतः घटनाएं छिप नहीं पाती.
अब कोई यह कह सकता है कि तुलसीदास के समय जो हुआ, वह किसने देखा? और जो आज वर्तमान में हुआ वह तो इसलिए हुआ कि वर्तमान सरकार की नीतियों के कारण विद्वेष फैला है और यदाकदा वाली घटना के तौर पर इसे गम्भीरता से लेने की जरूरत नहीं है. तो अपने ही बचपन की एक याद सुनाता हूँ.
मेरे बनारस में ठेठ बनारसी के अलावा भी बहुत सारे बनारसी रहते हैं. बंगाली बनारसी हैं, द्रविड़ बनारसी हैं, मारवाड़ी बनारसी हैं. सबके अपने-अपने मोहल्ले हैं. सब इतना घुलमिल कर रहते हैं कि हमें अंतर महसूस ही नहीं होता. तो एक बार मैं गोदौलिया की तरफ जा रहा था और वहां इतनी ज्यादा पुलिस लगी हुई थी कि उन्हें देख भय होना लाज़मी था. ज्ञात हुआ कि बंगाली समुदाय का कोई त्योहार था और वे लोग काली माँ की मूर्ति विसर्जित करने जाने वाले हैं. अब कोई काली माँ की मूर्ति विसर्जित करने जाए तो यातायात व्यवस्था के लिए पुलिस का होना समझ आता है, पर वज्र वाहन, पीएसी इत्यादि दंगारोधी पुलिस क्यों? फिर मालूम हुआ कि हर साल जब बंगाली लोग एक विशेष रोड से जाते हैं तो उन पर घरों की छतों से, छज्जों से पत्थरबाजी होती है.
यह तब की बात है, जब मोदी का राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर कोई अस्तित्व ही नहीं था.
यह कैसी विचित्र मानसिकता है जो किसी शोभायात्रा में, विसर्जन यात्रा में पत्थरबाजी करती है? घरों के आगे से झूमती-गाती, अल्हड़ नृत्य करती भीड़ को देख कौतूहल होगा, आदमी उसे चाव से देखेगा क्योंकि यह रोज-रोज घटने वाली घटना तो है नहीं. यातायात की थोड़ी समस्या मान सकते हैं, पर इसके अतिरिक्त तो ऐसा कुछ नहीं कि पत्थर ही मार दिया जाए?
इस अनौचित्यपूर्ण घृणा का क्या उत्तर है हमारे पास? कभी प्रशासन के हाथ बंधे होते हैं तो वो कुछ नहीं करती. और कभी प्रशासन चुस्त होता है तो उन पत्थरबाजों पर कार्रवाई होती है. पर पत्थरबाजी, यह घृणा, यह दुस्साहस खत्म क्यों नहीं होता? आज यहां, तो कल वहां, और फिर किसी नई जगह पर, फिर किसी अन्य स्थान पर यह बार-बार होता है तो इसका उत्तर क्या है?
कानून का राज पर्याप्त होता तो यह सब बहुत पहले ही बन्द हो जाना चाहिए था. दर्द देने वाले को जब तक उसी दर्द का अहसास न हो, तब तक क्या यह रुक सकता है? अत्याचार गलत है, अत्याचार को सहना मूढ़ता है. तो क्या अत्याचार के उत्तर में प्रत्याचार उचित है?
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.