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ओपनहायमर तो मान गए! लेकिन… / दो

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प्रशांत पोळ

अब ‘इलास्टिसिटी’, गुणधर्म का उदाहरण लेते हैं। आधुनिक विज्ञान के मतानुसार ‘इलास्टिसिटी’ का गुणधर्म सबसे पहले खोजा, रॉबर्ट हुक नाम के अंग्रेज पदार्थ विज्ञान वैज्ञानिक ने, वर्ष 1660 में। वर्ष 1667 में उन्होंने सिद्धांत के रूप में रखा। आगे चलकर यह ‘हुक का नियम’ (Hook’s Law) नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस नियम अनुसार, ‘किसी भी पदार्थ की लंबाई या चौड़ाई में परिवर्तन, यह उस पदार्थ पर लगाए गए बल के समानुपाती रहता है’।

अब इसके 600 – 700 वर्ष पीछे जाते हैं। बंगाल के हुगली जिले के ‘भुरीश्रेष्ठ’ गांव के ‘श्रीधराचार्य’ नाम के विद्वान व्यक्ति ने, दसवीं सदी में ‘न्याय कंदली’ ग्रंथ लिखा। आज की भाषा में यह ग्रंथ ‘मटेरियल साइंस’ पर लिखा हुआ ग्रंथ है। इस ग्रंथ के एक श्लोक में श्रीधराचार्य कहते हैं –

ये घना निबिडाः अवयवसंन्निवेशः तैः विशिष्टेषु

स्पर्शवत्सु द्रव्येषु वर्तमानः स्थितिस्थापकः स्वाश्रयमन्यथा

कथामवनामितं यथावत् स्थापयति पूर्ववदृजुः करोति।।

संस्कृत समझने वाला कोई भी व्यक्ति इस श्लोक का अर्थ सहजता से समझ सकता है। ‘स्थिति स्थापक’ इस शब्द का अर्थ है ‘इलास्टिसिटी’।

अर्थात – ‘घनत्व से बने हुए पदार्थ का आकार, यदि किसी बाह्य बल के कारण बदलता है, तो उसे पुनश्च एक बार, अपनी पूर्व स्थिति में लाने वाला गुणधर्म है, इलास्टिसिटी।’

इतने स्पष्ट रूप से लिखने के बाद भी, आज हम विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं कि इलास्टिसिटी का आविष्कार रॉबर्ट हुक ने किया। सच में हमारे जैसे दुर्भागी हम ही हैं। हुक्स का नियम (Hook’s Law) क्यों? श्रीधराचार्य का नियम (Shridharacharya’s Law) क्यों नहीं?

गुरुत्वाकर्षण के संदर्भ में भी यही कहानी है…

हम सब बचपन से सुनते आ रहे हैं, पढ़ते आ रहे हैं कि गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार न्यूटन ने किया। वर्ष 1887 में लिखे गए ‘प्रिन्सीपिया’ ग्रंथ में, उसने सर्वप्रथम गुरुत्वाकर्षण की संकल्पना रखी। हमारे शिक्षकों ने, ‘न्यूटन ने पेड़ से सफरचंद को गिरते हुए देखा, और इस पर से उन्होंने गुरुत्वाकर्षण की खोज की’, ऐसा पढ़ाया।

परंतु सत्य स्थिति कुछ और है। उपनिषदों का काल खंड साधारणतः दो हजार से साढ़े चार हजार वर्ष पुराना माना जाता है। इन उपनिषदों में से 10 उपनिषदों पर आद्य शंकराचार्य जी ने भाष्य लिखे हैं। उसमें से एक है ‘प्रश्नोपनिषद’। अर्थात प्रश्नोपनिषद कम से कम दो हजार वर्ष पुराना है। उस पर शंकराचार्य जी द्वारा लिखा भाष्य भी कम से कम 1300 वर्ष पुराना है। इस भाष्य के तीसरे अध्याय का आठवां श्लोक है –

तथा पृथ्वीव्यामभिमानिनी या देवता प्रसिद्धा सैषा।

पुरुषस्य अपानवृत्तिमवष्टभ्याकृष्य वशीकृत्याध एव।।

अपकर्षेंण अनुग्रह कुर्वंति वर्तत इत्यर्थः।

हि शरिरं गुरुत्वात् पतेत् सावकाश वोद्गच्छेत।।

अर्थात, ‘पृथ्वी यह देवता, मानव के अंदर के ‘अपान’ को आकर्षित करती है। उस पर नियंत्रण रखती है। उसे स्थिर रखती है। पृथ्वी का अगर यह गुण नहीं रहता, तो मानव शरीर, उसके वजन के कारण जमीन पर गिर जाता या आकाश में मुक्त रूप से संचार करता रहता’।

केवल आद्य शंकराचार्य जी ही नहीं, तो हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने गुरुत्वाकर्षण के गुणधर्म के संदर्भ में अनेकों बार लिखकर रखा है।

ब्रह्मगुप्त ने वर्ष 628 में ‘पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण बल है’, ऐसा स्पष्ट रूप से कहा था। उन्होंने ही सर्वप्रथम ‘गुरुत्वाकर्षणम्’ शब्द का उपयोग किया। उन्होंने लिखा है, ‘उल्का पिंड पृथ्वी पर गिरते हैं, क्योंकि पृथ्वी का स्वभाव पिंडों को आकर्षित करने का है’। आगे वह उनके ‘ब्राह्मस्फुट सिद्धांत’ ग्रंथ में लिखते हैं, ‘सभी भारी (वजनी) वस्तुएं पृथ्वी के केंद्र की ओर आकर्षित होती हैं। वस्तुओं को आकर्षित करना, और अपने पास खींचना, पृथ्वी का स्वभाव है’।

इसके बाद, साधारणतः 400 वर्षों के पश्चात, भास्कराचार्य ने ”सिद्धांत शिरोमणि’ ग्रंथ के, गोलाध्याय के भुवन कोष के छठवें श्लोक में लिखा है –

आकृष्ट शक्तिश्च मही तया यत्र खंस्थं, गुरु स्वाभिमुखं स्वशक्तया।

आकृष्यते तत् पतती भाति, समे समंतात क्व पतत्वियं खेल।।

अर्थात, ‘पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। इस शक्ति के कारण वह भारी वस्तुओं को अपनी ओर खींच लेती है। और इसी कारण वस्तुएं जमीन पर गिरती हैं’।

अर्थात हजारों वर्षों से, अत्यंत स्पष्ट शब्दों में अपने पूर्वज, पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण शक्ति के संदर्भ में लगातार बोलते, कहते आ रहे हैं।

लेकिन हम अंग्रेजी मानसिकता के गुलाम, आज भी अपने बच्चों को ‘गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार न्यूटन ने किया’ यही पढ़ा रहे हैं..!

मैंने स्कूल में पढ़ा है कि वर्ष 1543 में कोपर्निकस नाम के पोलिश वैज्ञानिक ने सर्वप्रथम आविष्कार किया कि ‘अंतरिक्ष का केंद्र बिंदु सूर्य है, और पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है’। आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह एक क्रांतिकारी और ऐतिहासिक शोध था, क्योंकि इसके पूर्व पाश्चात्य जगत बाइबल में लिखे अनुसार ‘पृथ्वी चपटी है’, ऐसा मानता था। साथ ही, सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, ऐसा भी माना जाता था।

लेकिन, इसके हजारों वर्ष पहले, अपने पूर्वज अत्यंत स्पष्ट रूप से कहते आ रहे थे कि पृथ्वी गोल है और सूर्य के चारों ओर घूमती है।

साधारणतः हजारों वर्ष पूर्व के विष्णु पुराण के दूसरे भाग में आठवें अध्याय का 15वां श्लोक देखिए –

नैवास्त मनमर्कस्थ नोदयः सर्वदा स्तर।

उदयास्तमनाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः।।

अर्थात, ‘सत्य यह है कि सूर्य का उदय और अस्त नहीं होता है। वह एक ही स्थान पर स्थिर रहता है’।

ऐसे ही प्राचीन यजुर्वेद के आरण्यक में आठवें अनुवाक का तीसरा वर्ग है –

दाधर्व पृथ्वी भितो मयुखैः

अर्थात, ‘सूर्य पृथ्वी को सभी दिशाओं से (बाजुओं से) उसके किरणों की सहायता से बांधकर रखता है’।

ऐसे अनेक उदाहरण है। चुंबक के बारे में भी वही है…

चुंबक का आविष्कार अंग्रेज वैज्ञानिक विलियम गिलबर्ट ने सन् 1600 में किया, ऐसा माना जाता है। अपने प्राचीन ग्रंथों में अनेक स्थानों पर चुंबक का नामोल्लेख आता है। विलियम गिलबर्ट के 500 वर्ष पहले, ‘रसार्णव’ रसायन विज्ञान के ग्रंथ में चुंबक का स्पष्ट और परिपूर्ण उल्लेख आता है। ग्रंथ के 40वें अध्याय का 21वां श्लोक है –

भ्रामकं चुंबकं चैव कर्षकं द्रावकं तथा। एवं चतुर्विधं कांतं रोमकांतंचं पंचमम्।।

एकद्वित्रीचतुः पंच सर्वतोमुखमेव तत्। पीतं कृष्णं तथा रक्तं त्रिवर्णं स्यात् पृथक् पृथक्।।

अर्थात, इस श्लोक में केवल चुंबक का वर्णन या गुण नहीं है, अपितु पांच प्रकार के चुंबक बताए गए हैं।

  1. ब्रह्मकम्, 2. चुंबकम्, 3. कर्षकम्, 4. द्रावकम, 5. रोम कंटकम

इसमें से प्रत्येक चुंबक यह एक मुखी, द्विमुखी, त्रिमुखी आदि होते हैं। प्रत्येक चुंबक का रंग पीला, काला या लाल हो सकता है।

ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किए अनेक आविष्कार, अनेक सिद्धांत हमारे पूर्वजों को पहले से ही ज्ञात थे। समाज में भी इस ज्ञान का सहजता से उपयोग होता था। और इसीलिए हो सकता है, ओपनहायमर जैसे वैज्ञानिकों को प्राचीन भारतीय ज्ञान ने आकर्षित किया होगा।

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