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प्राण प्रतिष्ठा समारोह – संस्कृति में सह-अस्तित्व के सूत्र

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“रामलला पधार रहे हैं”

विजय मनोहर तिवारी

पाँच सौ वर्ष की दीर्घ प्रतीक्षा के बाद वह क्षण आ ही गया, जब श्रीराम की जन्मभूमि पर प्राण प्रतिष्ठा का पवित्र अनुष्ठान आरंभ हुआ है. अयोध्या का उल्लास एक विराट स्वप्न के साकार होने पर कल्पनातीत है. पीढ़ियों के संघर्ष और बलिदान का प्रतिफल अपने सम्मुख देख अयोध्यावासियों की प्रसन्नता का पारावार नहीं है. अयोध्या के मंदिरों-भवनों, घर-दुकानों पर केसरिया पताकाएँ फहरा रही हैं. कोई कोना नहीं है, जहाँ राम नाम का जाप और वैदिक मंत्रों की गूंज सुनाई न दे रही हो. प्रात: निर्धारित समय पर जन्मभूमि स्थान पर अनुष्ठान के संयोजक गणेश्वर शास्त्री द्रविड़ और प्रमुख आचार्य लक्ष्मीकांत दीक्षित पहुँचे. पूरे अयोध्या क्षेत्र में जो, जहाँ भी था, सबका ध्यान यहाँ था.

सब रामलला के दर्शन हेतु शेष दिन उंगलियों पर गिन रहे थे. आज मंगलवार होने से हनुमानगढ़ी आए हजारों रामभक्त केवल कृतज्ञता ज्ञापित कर रहे थे कि यह शुभ कार्य अंतत: पूरा होने जा रहा है. सरयू के तटों पर पंडे-पुरोहितों के लिए जैसे जीवन की साध पूरी हुई. मंदिर निर्माण के संघर्ष में सहभागी रहे अवध के लाखों परिवारों में जैसे जीवन का सबसे बड़ा शुभ समाचार आज आया. जन्मभूमि परिसर के बाहर के निर्माण अंतिम चरण में हैं. व्यापक रूप से परिसर को चमकाया जा रहा है. यहाँ नियुक्त चार हजार सुरक्षा प्रहरी और इतने ही श्रमवीर शिल्पी-श्रमिक इस पवित्र अवसर के सबसे निकट साक्षी बने. मंदिर परिसर में आरंभ अनुष्ठान के लिए अनेक वेदियाँ बनाई गईं. द्वारपाल, क्षेत्रपाल सहित अनेक देवताओं के निमित्त निर्धारित हवन की प्रक्रिया मंत्रोच्चारण के साथ आरंभ हुई.

मैं संस्कृत नहीं जानता. वेद के कुछ भाग केवल हिंदी में पढ़े हैं. मुझे शुक्ल यजुर्वेद का तो बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है, जिसमें ऋषियों ने भारतीय परंपरा के अनुष्ठान सूत्रबद्ध किए. जीवन के प्रत्येक विशेष अवसरों पर होने वाले अनुष्ठान. वे केवल कर्मकांड नहीं हैं. उनके अर्थ क्या हैं? विशेष रूप से राम जन्मभूमि पर रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के निमित्त आरंभ हुए विधि विधान किसलिए हैं? उन्हें हम कैसे आत्मसात कर सकते हैं? मानते तो हैं किंतु जानते नहीं.

मैं अपनी इसी दुविधा के साथ आचार्य मिथिलेशनंदिनी शरण की शरण में गया. वे रामानंदाचार्य की परंपरा में संन्यस्त होने के पहले हिंदी के प्रतिभाशाली विद्यार्थी रहे हैं और गोस्वामी तुलसीदास पर शोध किया है. तार्किक और सात्विक वाणी, मुखर अभिव्यक्ति उनकी पहचान है और अयोध्या में उनकी आभा अलग ही है. कभी विस्तार से अपने अनुभव लिखूँगा, लेकिन रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के अनुष्ठान के सरल भाषा में क्या अर्थ हैं, उनसे ही जानने की जिज्ञासा मुझे हनुमत निवास ले गई, जहाँ वे विराजते हैं.

संस्कृति में सह-अस्तित्व के सूत्र

अनुष्ठान का प्रथम दिन मुख्य रूप से प्रायश्चित संकल्प के लिए था. वैदिक विधान के अनुसार इस स्थान पर मंदिर निर्माण की संपूर्ण प्रक्रिया में पत्थरों को तराशते हुए, नींव, द्वार-दीवार, छत इत्यादि के निर्माण के समय ज्ञात-अज्ञात जीवों को हुई पीड़ा के लिए प्रायश्चित का संकल्प किया गया. यह प्रकृति के प्रति मनुष्य के सह अस्तित्व के सूत्र हैं, जिन्हें ऐसे किसी भी कार्य में स्मरण का अनिवार्य विधान ऋषियों ने किया है. इसके साथ ही जड़-चेतन और जल के प्रति समस्त त्रुटियों के लिए देवताओं से क्षमा याचना की गई. इसके उपरांत देवताओं को आह्वान किया गया कि वे अयोध्या में आएं, इस मंगल अवसर को अपनी उपस्थिति से पवित्र करें, क्योंकि प्रभु श्रीराम अपने स्थान पर प्रतिष्ठित होने के लिए पधार रहे हैं.

आचार्य मिथिलेशनंदिनी शरण ने अनुष्ठान के अर्थ को गोस्वामी तुलसीदास की इस चौपाई में स्पष्ट किया – अब जहाँ राऊर आयस होई, मुनि उद्वेग न पावे कोई. अस जिय जानि कहिए सोई ठाऊँ, सिय सौमित्र सहित जहाँ जाऊँ. अर्थात् श्रीराम जहाँ भी बसते हैं, वहाँ मुनिजनों को कोई उद्वेग नहीं होना चाहिए, जहाँ सब सह अस्तित्व में स्थिर होकर रहते हों. अयोध्या में यह अनुष्ठान सह अस्तित्व की इसी मंगलकामना के साथ आरंभ किया गया है.

यह भारत की संस्कृति का एक परिचय है, जिसमें हर जीव मात्र के मंगल का विचार निहित है. संसार की कौन सी संस्कृति में ऐसी दार्शनिक पृष्ठभूमि है? यही सनातन का आधार है, जहाँ इतनी सूक्ष्म संवेदनाओं के साथ जीवन में छोटे-बड़े कार्य को आरंभ करने के लिए विधि विधान नियत किए गए हैं. अर्थ जाने बिना उपहास उड़ाना बहुत सरल है. दुर्भाग्य से हमारी एक पैर की पंथनिरपेक्षता ने इस दिशा में बहुत क्षति पहुंचाई है कि स्वतंत्रता के बाद हमारी तीन पीढ़ियाँ अपने मूल से कटी ही आगे बढ़ गईं.

आज मीडिया और राजनीति में ऐसे बहुत आधुनिकतावादी हैं, जिन्हें अयोध्या फूटी आँखों नहीं सुहा रही. उन्हें कोसने से कोई लाभ नहीं है. उनका पालन-पोषण ऐसा ही हुआ है. उनके माइंड-सेट ऐसे ही हैं. वे हजार कुतर्कों से आपको निरुत्तर कर देंगे. अब वे अपने अदृश्य आकाओं की दिहाड़ी पर भी हैं. निजी जीवन में छट पूजा पर वे पूरे सनातनी होंगे, लेकिन दिल्ली लौटते ही वे फिर विषाक्त पेरोल पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं. उनके ईको सिस्टम की पोलें खुली हुई हैं.

विजय मनोहर तिवारी जी के फेसबुक से साभार

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