जयपुर.
राजस्थान में दुष्कर्म के आंकड़े भयावह हैं. यहां पिछले चार महीनों में दुष्कर्म के 2243 मामले दर्ज हुए हैं, यानि पहले प्रतिदिन औसत 17 के मुकाबले आज 19 बेटियां दरिंदों की हवस का शिकार हो रही हैं. इनमें छोटी-छोटी अबोध बच्चियां तक शामिल हैं. लेकिन शायद बेटियों की सुरक्षा प्राथमिकता में नहीं है. और शायद न ही हाथरस की घटना को लेकर हल्ला करने वाली गैंग को बेटियों की चिंता है. तभी उनकी ओर से कोई आंदोलन, बेटी हूं लड़ सकती हूं…. का नारा सुनने को नहीं मिल रहा.
सरकार के रवैये की बात करें तो दुष्कर्मियों को कानून का कोई डर नहीं प्रतीत हो रहा. आज स्थिति यह है कि चलते-फिरते कोई भी किसी भी लड़की को उठा लेता है और दरिंदगी करके कभी सड़क तो कभी पुलिया पर लहूलुहान अवस्था में फेंक देता है. कुछ दिन पहले करौली से एक चार साल की बच्ची उठा ली गई, वह सुबह लहूलुहान हालत में मिली. ऐसे ही अलवर में मूक बधिर बच्ची के साथ दुष्कर्म हुआ, वह पुलिया पर लहूलुहान अवस्था में मिली. मामले में खूब बयानबाजी हुई, लेकिन दुष्कर्मियों को सजा तो दूर उनका पता तक न चल सका.
मुख्यमंत्री भले ही कहें कि 3 वर्षों में पॉक्सो एक्ट में आठ दोषियों को फांसी, 137 से अधिक को उम्र कैद सहित 620 से अधिक दोषियों को सजा सुनाई जा चुकी है. लेकिन संज्ञान लेने वाली बात यह है कि इनमें से आज तक किसी को फांसी नहीं हुई और प्रदेश में पिछले 28 महीनों (2020 से अप्रैल 2022) में ही दुष्कर्म के 13,890 केस दर्ज हो चुके हैं, जिनमें 11,307 केस नाबालिगों से दुष्कर्म के हैं. अब यदि 700-800 को सजा हो भी गई तो बाकी तो खुले घूम रहे हैं.
नाबालिगों की ही बात करें तो उच्च न्यायालय ने 2018 में दुष्कर्म के 50 मुकदमों पर एक पॉक्सो कोर्ट खोले जाने के आदेश दिए थे, प्रदेश में सिर्फ 57 कोर्ट ही हैं, उनमें भी बालिगों के केस भेजे जा रहे हैं. न्याय प्रक्रिया पहले ही धीमी है, फिर उसका और धीमा होना क्या स्थिति को बिगाड़ नहीं रहा? दुष्कर्म की एक घटना किसी मासूम का बचपन छीन लेती है तो किसी बेटी की मुस्कुराहट. कोई बेटी आत्महत्या कर लेती है तो कोई जिंदा रहते हुए भी लाश बनकर रह जाती है. उसमें भी जब दुष्कर्मी को सजा नहीं होती तो पीड़िता और उसके परिवार को दोहरी सजा मिलती है. ऐसी ही एक पीड़िता के पिता ने अपनी विवशता जताते हुए कहा – “जब गाँव में उसे घूमता हुआ देखता हूँ तो कहीं चोट लगती है, मुट्ठियां भिंच जाती हैं. लेकिन स्वयं को लाचार पाता हूं और कोसता हूं कि मैं कैसा पिता हूं जो अपनी बेटी को न्याय नहीं दिला पा रहा.”
समाजसेवी राधिका कहती हैं कि मुख्यमंत्री जितनी सावधानी अपने विधायकों की बाड़ाबंदी के समय बरतते हैं, यदि उतनी ही सावधानी बेटियों की सुरक्षा के लिए बरती जाए तो शायद बेटियों का सम्मान भी लुटने से बच जाए.