रवि प्रकाश
अब, जबकि पूरे विश्व के समग्र हिन्दुओं की आस्था और भावना के प्रतीक भगवान श्रीराम के मंदिर के निर्माण की प्रक्रिया अयोध्या में आरम्भ हो चुकी है, तब यह आकांक्षा उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि इसी के साथ भारत में राम राज्य की स्थापना का सूत्रपात भी होना ही चाहिए. कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो देश में हर कोई राम राज्य की संकल्पना का स्वागत करेगा. इस संकल्पना को साकार करने से देश में न केवल एक नया वातावरण निर्मित होगा, वरन करोड़ों देशवासियों के मन में आत्मविश्वास का नया संचार भी होगा. आखिर कुछ तो बात होगी राम राज्य में कि महात्मा गाँधी ने भी अपनी प्रार्थना की प्रारम्भिक पंक्ति के लिए “रघुपति राघव राजा राम….” को चुना था.
भारत में राम राज्य की संकल्पना कोई नयी चीज नहीं है. सदियों से इस देश के लोग राम राज्य के सुखदाई सपने के साथ जी रहे हैं. राजनैतिक रूप से भी महात्मा गांधी ने भारत के सामाजिक ताने-बाने के लिए राम राज्य की कल्पना की थी. अलग-अलग देवी-देवताओं के प्रति आस्थावान भारतीय समाज में एक श्रीराम ही तो हैं, जो भारत के साथ-साथ विश्व के विभिन्न भागों में नाना रूपों और नाना विधियों से पूजे जाते हैं. तो यह सही समय है, जब भारत में राम राज्य की स्थापना के लिए उचित वातावरण तैयार किया जाए.
राम राज्य का तात्पर्य क्या है? राम राज्य कोई शब्द नहीं है. यह एक सामाजिक व्यवस्था है. त्याग और समर्पण के बिना राम राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है. अनेक शब्दों को मिलाकर एक शब्द राम राज्य बनता है. राम राज्य केवल शब्द नहीं, बल्कि एक व्यवस्था का रूपक है. जिसमें सत्यता, आकांक्षा, लोक भावनाएं, शांति समाहित होती है. सत्यता एवं विश्वसनीयता अर्थात् जो वायदा किया जाए, वचन दिया जाए, उसका पूर्ण रूपेण पालन करना. प्रजा की इच्छा जानना, जिसके लिए वे अपने गुप्तचरों को ही नहीं अपने सभासदों को भेजते थे ताकि वे अपनी प्रजा की इच्छाओं को जानें, या राजा के कार्यों की निंदा करते हों तो उन कारणों को समझें. लोक भावनाओं के अनुसार शासन का संचालन करना. आतंकवाद का यथा शीघ्र सफाया करना, तब आएगा राम राज्य. “दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज्य काहू नहीं व्यापा.” अर्थात राम राज्य में लोगों को दैहिक (रोग), दैविक (प्राकृतिक आपदाएं) तथा भौतिक (इच्छाओं की पूर्ति सम्बन्धी) कोई कष्ट नहीं होते थे.
ऐसा नहीं है कि गांधीजी के समय में राम राज्य शब्द के प्रति भ्रांतियां नहीं थीं. कई मौकों पर खुद उन्हें इस पर स्पष्टीकरण देना पड़ा था. इसलिए विभिन्न अवसरों पर उनके रामराज्य संबंधी वक्तव्यों का पुनर्पाठ इस मायने में बहुत ही महत्वपूर्ण हो सकता है. दांडी मार्च के दौरान ही ऐसी ही भ्रांतियों के निवारण के लिए उन्हें 20 मार्च, 1930 को हिन्दी पत्रिका ‘नवजीवन’ में ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक से एक लेख लिखना पड़ा था. इसमें गांधीजी ने कहा था – ‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएं, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य. यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूंगा. रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जाएंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा. …सच्चा चिंतन तो वही है, जिसमें रामराज्य के लिए योग्य साधन का ही उपयोग किया गया हो. यह याद रहे कि रामराज्य स्थापित करने के लिए हमें पाण्डित्य की कोई आवश्यकता नहीं है. जिस गुण की आवश्यकता है, वह तो सभी वर्गों के लोगों- स्त्री, पुरुष, बालक और बूढ़ों- तथा सभी धर्मों के लोगों में आज भी मौजूद है. दुःख मात्र इतना ही है कि सब कोई अभी उस हस्ती को पहचानते ही नहीं हैं. सत्य, अहिंसा, मर्यादा-पालन, वीरता, क्षमा, धैर्य आदि गुणों का हममें से हरेक व्यक्ति यदि वह चाहे तो क्या आज ही परिचय नहीं दे सकता?’
श्रीराम का अर्थ है मर्यादा. राज राज्य की स्थापना का अर्थ है मर्यादा की स्थापना. बहुत सोच-समझ कर बनाए गए हमारे संविधान में विविध प्रावधान होने पर भी, पारदेशीय संस्कृति और समाज के प्रभाव के कारण विविध प्रकार की विसंगातियां हमारे समाज में आज भी विद्यमान हैं. कर्त्तव्य विस्मृत करके केवल अधिकार की लड़ाई ने समाज में अविश्वास और घृणा का वातावरण पैदा कर दिया है. श्रीराम की मर्यादा का अर्थ है कर्त्तव्य का सर्वोपरि होना. कर्त्तव्य सर्वोपरि हो तो अधिकार, उत्तरदायित्वपूर्ण अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है. कर्त्तव्य की अनुभूति स्वतः अधिकार के प्रयोग की सीमा निर्धारित कर देती है. मनुष्य निष्काम कर्मयोगी बन जाता है. फिर किसी के अधिकार की रक्षा के लिए किसी शासनाधीन रक्षक की आवश्यकता नहीं रह जाती. कर्त्तव्य-बोध से संचालित अधिकार की अनुभूति और उसके साथ उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो जाने पर अपने कर्त्तव्य की पूर्ति और और सभी के अधिकार का सम्मान समाज की सहज प्रवृत्ति बन जाती है. फिर न्याय-अन्याय और उचित-अनुचित का निर्णय भी सहज हो जाता है. व्यक्ति से लेकर परिवार तक, समाज तक और सम्पूर्ण राष्ट्र तक सभी अपने-अपने कर्त्तव्य के प्रति चैतन्य हो जाते हैं.
श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन चरित ऐसी मर्यादाओं, कर्तव्य पालन और सभी के अधिकारों के प्रति सम्मान का पर्याय है. मानव सभ्यता के सम्पूर्ण लिखित-अलिखित इतिहास में श्रीराम जैसा व्यक्तित्व और चरित्र का दूसरा उदाहरण उपलब्ध नहीं है. श्रीराम तो शिक्षा ग्रहण करके माता सीता के साथ अयोध्या लौटे थे राज्याभिषेक के लिए. लेकिन नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था. पिता का आदेश हुआ, वनवास पर जाना होगा. युवराज होने के नाते और धनुर्विद्या की प्रचंड शक्ति से युक्त राम का मानस अपने राज्याभिषेक के अधिकार के लिए अवज्ञापूर्ण युद्ध का निर्णय कर सकता था. किन्तु नहीं, श्रीराम के राज्य की संस्कृति थी कि पहले कर्त्तव्य का पालन, फिर अधिकार की बात. सो, वे निकल पड़े 14 वर्ष के वनवास पर. माता कैकेयी ने जिस पुत्र के लिए श्रीराम के वनवास की पृष्ठभूमि तैयार की थी, उस पुत्र भरत को अपने राज्याभिषेक का अवसर पाकर प्रसन्न होना चाहिए था. पर ऐसा नहीं हुआ. भरत के साथ भी अपने कर्त्तव्य की अनुभूति और दूसरे के अधिकार के सम्मान का भाव लगा रहा. तभी तो वे समझ पाए कि अयोध्या के राज सिंहासन पर आरूढ़ होने का प्रथम अधिकार श्रीराम का था. तभी तो भरत यह निर्णय कर पाए कि वे श्रीराम के साथ हुए व्यवहार में सहभागी नहीं बनेंगे. और श्रीराम के मन में माता कैकेयी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं. यह जो आदर्श है, यह जो मर्यादा है, कहीं और कहाँ मिलते हैं. दीन-दुखियों, उपेक्षितों-वंचितों को गले लगाना, भव्य नगरों से लेकर पहाड़ों, जंगलों में वास करने वाले सभी प्राणियों के साथ समान व्यवहार करना, स्वार्थ के वशीभूत दुष्टों-उत्पीड़कों को सही राह बताना, उद्दंड-अहंकारी दुष्टों का व्यापक मानव हित में संहार करना, समस्त लोभ से परे होकर समुचित हाथों में सत्ता सौंप देना, आदि ऐसे अद्भुत आचरण हैं, जो अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ हैं.
सम्पूर्ण देश में बाल्यावस्था ही से यदि एक-एक व्यक्ति को श्रीराम की मर्यादा का पाठ पढ़ाया जाए, तो सोचिए कैसा समाज बनेगा! निःसंदेह देश में कर्तव्य और परस्पर सम्मान की प्रबल भावना का विकास होगा. एक सामान्य जन की बात पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करने की प्रेरणा शासन-संचालकों को मिलेगी. अहंकार दुर्बल होगा, सहयोग और सामंजस्य प्रबल होगा. एक-दूसरे के लिए त्याग की भावना जाग्रत होगी. अन्याय के विरुद्ध न्याय के पक्ष में एकजुट होकर खड़ा होने की इच्छा का विकास होगा. देश का बचपन श्रीराम के आदर्शों पर “अग्रते सकलं शास्त्रम्, पृष्ठते सशरह धनु” से युक्त होगा तो स्वभावतः देश की युवा शक्ति भी उसी आदर्शों का वाहक बनेगी. तब कोई उत्पीड़क नहीं होगा, कोई उत्पीड़ित नहीं होगा. सभी के मन में राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव होगा. ऐसा समाज, ऐसा राष्ट्र ही तो विश्वगुरु बन सकता है.
महात्मा गांधी के राम राज्य की संकल्पना को साकार करने के लिए आज जैसा उपयुक्त वातावरण देश में पहले कभी उपलब्ध नहीं था. आज देश का नेतृत्व ऐसे प्रधानमन्त्री के हाथों में हैं, जिनके साथ कोई अनिर्णय, कोई असमंजस, कोई दुविधा की स्थिति नहीं है. आज भारत निर्णय करने के साहस के साथ आगे बढ़ रहा है. चाहे पश्चिमी सीमा पर कार्रवाई करनी हो, या उत्तरी सीमा पर आंख में आंख मिलाकर डटे रहने की बात हो, देश के नेतृत्व के पास एक स्पष्ट दृष्टि है, दृष्टिकोण भी है. तो अभी से हम राम राज्य की संकल्पना को साकार करने की दिशा में कार्रवाई आरम्भ कर सकते हैं, ताकि श्रीराम मंदिर का निर्माण पूरा होते-होते, देश राम राज्य की अवस्था स्वीकार करने की स्थिति में आ सके और महात्मा गांधी का वचन पूरा हो सके.
लेखक भारत विकास परिषद के पश्चिमी रीजन के रीजनल सेक्रटरी हैं.