गोपाल माहेश्वरी
मातृ भू की पीर की करना पढ़ाई जानते थे.
रक्त से जय मातृ भू की लिखाई जानते थे..
खाली समय में मित्रों से गपशप करना तो प्रायः सभी बच्चे जानते हैं. मुक्त मन से मित्रों से मन की बात बाँटने का यह सबसे उत्तम अवसर होता है. उत्तर प्रदेश के देवरिया के पास एक ग्रामीण क्षेत्र है घूसी. वहीं के एक छोटे से गाँव हथियागढ़ की एक शाला में छठी कक्षा के कुछ बच्चे ऐसी ही गपशप में व्यस्त थे. लेकिन दूर से गपशप लगने वाली यह बातचीत कितनी गंभीर थी, यह तो उनकी चर्चा सुनकर ही जाना जा सकता था.
“अपने देश की आजादी के लिए हमें भी कुछ करना चाहिये.” एक बालक बोला.
“हम? हम तो बच्चे हैं?” मित्र ने रोका.
“तो क्या आन्दोलन के सारे बड़े नेता बन्दी हो जाने पर छात्र उसे आगे नहीं बढ़ा रहे हैं?” बात 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के विषय में थी.
“बोलो! तो क्या हम पीछे रह जाएँ?” उसी बालक जिसका नाम था रामचन्द्र, ने झकझोरा.
“हाँ हम भी कुछ करेंगे, पर क्या करें यह भी तो बताओ.” एक दूसरे उत्साहित साथी ने कहा.
“वही, जो सारे देश में किया जा रहा है. तिरंगा फहराना, अंग्रेजी शासन के विरोध में सभाओं एवं जुलूसों में भाग लेना.” रामचन्द्र समझाने लगा.
“लेकिन वहाँ गोलियाँ चलती हैं, लोग मारे जाते हैं.” पूछने वाले छात्र के स्वर में भय था.
“तो क्या हम इससे डर कर घर बैठे रहें? अंग्रेज यही तो चाहते हैं, ऐसे तो हम कभी आजाद नहीं होंगे. क्या हम कायर हैं?” रामचन्द्र आवेश में मुट्ठी बाँधकर बोला. छात्रों की अधिकांश टोली बिखर गई. छह साथी ही बचे रहे.
देवरिया की अदालत पर तिरंगा फहराएंगे, तय हुआ. सातों सपूत अपने कपड़ों में तिरंगा छिपाए निकल पडे़. काम राष्ट्र का हो तो जागना ही नहीं जगाना भी आवश्यक है. उन्हें यह अवसर भी मिला. राह चलते कुछ किसानों की बातें सुनीं. रामचन्द्र ने कहा “काका! खेत छोड़ो, रणखेत में उतरो. आजाद रहे तो खूब खेती कर लेंगे, नहीं तो खेती हम करेंगे और पेट दुश्मन का भरेंगे.”
किसान बोला, “बेटा! हम हल-फावडे़ चलाने वाले किसान, बन्दूक चलाने वाले अंग्रेजों से कैसे लड़ेंगे? हम तो न पढ़े न लिखे.”
“अपने फावडे़ से मेरा सिर काट दो. ऐसे ही अंग्रेजों को मारना, बस सीख गए लड़ना और क्या?” रामचन्द्र ने फावड़ा उठाकर पकड़ा दिया.
किसान छोटे से बच्चे का साहस देख जैसे नींद से जाग पड़े. “नहीं बेटा! पहले हम अपना सिर कटाएँगे तब बच्चों की बारी आएगी.” उसने फावड़ा काँधे पर रख लिया. ऐसे ही जागृति फैलती गई.
देवरिया की कचहरी. चारों ओर पुलिस की सख्त चौकन्नी पहरेदारी. सातों बच्चे उस पर फहराते यूनियन जैक को ऐसे घूर रहे थे मानों क्रोध की आग में ही जला देंगे. तीन साथी वहीं रुके. रामचन्द्र के साथ खेलने-कूदने वाले बच्चों सा नाटक करते तीन भवन के पीछे जा पहुँचे. झण्डा सबके पास था. जिसे अवसर मिले, तिरंगा फहराना ही था. रामचन्द्र को यह सौभाग्य मिला. एक पाइप के सहारे वह अदालत की छत पर चीते जैसी फुर्ती से चढ़ा और अगले पल ही यूनियन जैक की जगह तिरंगा फहरा उठा. केवल तिरंगा लहराना ही तो न था, अंग्रेज सरकार को बताना भी तो था. ‘इंकलाब जिन्दाबाद’, ‘वन्देमातरम्’, ‘भारत माता की जय’ सुनकर सिपाही ऐसे चौंके मानों भुतहा महल में कोई अचानक चीख सुनकर डर जाए. बच्चे भाग रहे थे. सिपाही आगबबूला होकर उन पर शिकारी कुत्तों जैसे दौड़े. सामने चल रहे एक समारोह में बच्चे गायब हो चुके थे. खीज भरा क्रोध बेचारे निर्दोष लोगों पर, जो उस समारोह में आए थे, लाठियों के रूप में बरस पड़ा.
वीर कभी निर्दोषों को फंसा कर अपने प्राण नहीं बचाते. “इन्हें क्यों पीटते हो? झण्डा मैंने फहराया है, मारना हो तो मुझे मारो.” भीड़ से निकलकर रामचन्द्र सामने आ गया.
मजिस्ट्रेट छठी कक्षा के छोटे से बच्चे को देख आश्चर्य से बोला ‘तूने फहराया है झण्डा?”
“हाँ, हाँ! मैंने ही फहराया है.” रामचन्द्र अकड़ कर खड़ा था. मजिस्ट्रेट का संकेत हुआ और एक गोली उसके सीने में समा गई.
बाल बलिदानी रामचन्द्र की शवयात्रा में सारा नगर तो उमड़ ही पड़ा, यह समाचार जहाँ-जहाँ भी गया, लोग श्रद्धा से झुक गए.
गोपाल महेश्वरी
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है.)