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संघ शताब्दी वर्ष में डॉ. हेडगेवार जी का स्मरण

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आसिंधु सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका

पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिंदुरिति स्मृतः

इस के अनुसार “भारत के वह सभी लोग हिन्दू हैं जो इस देश को पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं”

वीर सावरकर के इस दर्शन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मूलाधार बनाकर संघ संस्थापना करने वाले डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का प्रथम श्रेणी में डॉक्टरी की परीक्षा को उत्तीर्ण करना और उसके बाद चिकित्सा के पेशे से सर्वथा भिन्न समाज व राष्ट्र सेवा में लगना एक गहन जिज्ञासा का विषय है.  डॉ. हेडगेवार जी को हम यदि पूर्ण रूप से अपनी कल्पना में पिरोने का कार्य करें तो यह कार्य तनिक दुष्कर ही होगा. यह कार्य दुष्कर इसलिए होगा क्योंकि अधिकतर विचारक हेडगेवार जी के विषय में कहते, लिखते, सोचते समय अपनी दृष्टि को संघ केन्द्रित कर लेते हैं. “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” को ही उनके राष्ट्रीय शिल्प का मानक या केंद्र माना जाता है जो एक अधूरी, अपूर्ण व मिथ्या अवधारणा है.

वस्तुतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके विशाल, महत्वाकांक्षी “भारत एक विश्व गुरु” व “परम वैभवमयी भारत माता” के लक्ष्य का एक पाथेय भर है. वस्तुतः डॉ. हेडगेवार जी का समूचा जीवन चरित्र एक व्यापक एवं गहन अनुसंधान के साथ साथ सहज चिंतन व चर्चा का भी विषय है. उनके जीवन के विभिन्न गुणात्मक भाग गंभीर अध्येताओं व समाज शास्त्रियों हेतु हमेशा ही एक खोज का विषय बने रह सकते हैं. लोग विचारते हैं कि संघ ही डॉ. हेडगेवार का जीवन लक्ष्य था, जबकि सत्य यह है कि संघ को डॉ. साहब ने केवल अपना माध्यम बनाया था; उनका मूल लक्ष्य तो स्वर्णिम भारत, भारत माता की परम वैभव शिखर पर स्थापना व हिन्दुत्व ध्वजा को विश्व भर में फहराना ही था; जो आज संघ का परम लक्ष्य है.

डॉ. हेडगेवार जी ने स्वयं को तो संघ के रूप में संपूर्णतः व्यक्त कर दिया था, किंतु संघ की विचार शक्ति, योजना, कार्यशक्ति, कल्पना शक्ति, संवेदनशीलता को इस प्रकार शिल्प किया था कि संघ कभी भी, किसी भी काल में, किसी भी परिस्थिति में संपूर्णतः व्यक्त हो ही नहीं सकता है!! संघ को सदैव स्वयं अव्यक्त रहकर समाज को अभिव्यक्त करना आता है. संघ को स्वयं कुछ भी न करके सब कुछ कर देने का दिव्य अकर्ता भाव धारण करना आता है. संघ को सर्वदर्शी होकर कहीं भी न दिखने की दिव्य दृष्टि से परिपूर्ण डॉ. साहब ने ही किया है. संघ का यही निर्लिप्त भाव डॉ. हेडगेवार जी की सबसे बड़ी सफलता ही नहीं, बल्कि अलौकिक उपलब्धि है. संघ का यही स्वरूप डॉक्टर हेडगेवार जी को एक संगठन शास्त्री ही नहीं, अपितु एक ऐसे समाज शास्त्री के स्थान पर बैठाता है, जिसमें समाज की दृष्टि राष्ट्र केन्द्रित होती है. यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज सम्पूर्ण विश्व हेतु कौतुहल व जिज्ञासा के साथ साथ श्रद्धा विषय हो गया है. विश्व के समस्त संगठन विज्ञानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंतर्तत्व, मर्म व गुंठन-अवगुंठन को समझना चाहते हैं. किंतु, यह भी सत्य है कि संघ बड़े-बड़े ज्ञानियों के समझ नहीं आता है और जब यही महाज्ञानी अपने भोलेपन व कुछ न जानने के बालपन के भाव से संघ की शाखा में जाते हैं तो संघ को सहजता से संपूर्णतः जान लेते हैं.

संघ को आखिर डॉ. हेडगेवार ने कौन सी जादुई प्राणशक्ति दी है, जिससे यह सदैव स्वस्फूर्त, स्वशासी, स्वमेव स्वायत्त होकर भी अनुशासित रूप में कार्य करता रहता है. डॉ. हेडगेवार जी संघ की स्थापना से पूर्व अपने विद्यार्थी जीवन में बंगाल के क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति में सक्रिय रूप से कार्यरत रहे थे. युवावस्था में ही उनके अनुभवों व कार्य कलापों के चलते हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश के उपाध्यक्ष बनाए गए थे. कांग्रेस में भी कुछ समय तक सक्रियता से दायित्व निभाते रहे. प्रश्न यह है कि संघ के इस अनहद, विहंगम, विराट व आत्मा में बस जाने वाले सूक्ष्म स्वरूप की कल्पना डॉ. साहब कैसे कर पाए थे?

तथ्यों के स्थूल व भौतिक कल्पना से चलने वाले संगठन विज्ञानी इसे समझें न समझें, अपने भोले मन से चलने व कार्य करने वाला एक स्वयंसेवक आज भी संगठन में डॉ. हेडगेवार जी को स्वयं के सम्मुख प्रकाशपुंज के रूप में साक्षात उपस्थित पाता है. प्रकाश पुंज के रूप में सतत उपस्थिति के इस तथ्य का अलौकिक आभास एक सामान्य स्वयंसेवक भी अपने “आद्य सरसंघचालक प्रणाम” की प्रक्रिया में बड़ी सहजता से करता है.

व्यक्ति के आंतरिक व्यक्त–अव्यक्त गुणों, कथित–अकथित क्षमताओं को उभारना व उसकी कार्यशीलता का भरपूर दोहन करना, वे भली भांति जानते थे. संघ की आंतरिक कार्य प्रणाली को उन्होंने इस प्रकार विकसित किया कि चाहे कोई भी व्यक्ति स्वयंसेवक बने, उसकी क्षमताओं का सौ प्रतिशत उपयोग राष्ट्र सेवा में संघ कर ही लेगा. डॉक्टर साहब ने अपने इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु कई प्रकार के नवाचार किये व नए-नए प्रयोग अपनाए.

डॉक्टर साहब ने वीर सावरकर जी के हिन्दुत्व दर्शन को स्थापित किया, जिसकी यह अविभाज्य मान्यता थी कि “भारत के वह सभी लोग हिन्दू हैं जो इस देश को मातृभूमि, पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं”. इनमें सनातनी, आर्य समाजी, जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि पंथों एवं धर्म विचार को मानने वाले व उनका आचरण करने वाले समस्त जन को हिन्दू के व्यापक दायरे में रखा गया था. भारतीय समाज में सामाजिक समरसता की स्थापना व प्रत्येक स्तर पर अस्पृश्यता की समाप्ति संगठन के मूल मंत्र में स्थापित है.

डॉ. साहब शिल्पित संघ आज समविचारी संगठनों के साथ भारत की प्रत्येक श्वांस में अपने पूर्ण स्वरूप में विद्यमान दिखता है. यह बड़ा ही सशक्त, किंतु विनम्र तथ्य है कि इतनी विराट, व्यापक व व्यवस्थित उपस्थिति के बाद भी संघ अपने किसी मंच से अपनी इस बलवान, प्रभासाक्षी व सर्वव्यापी उपस्थिति की उद्घोषणा नहीं करता. किंतु शाखा जाने वाले किसी साधारण से स्वयंसेवक के माध्यम से समाज में पूर्णतः व्यक्त हो जाता है.

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