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परावर्तन के अग्रदूत स्वामी श्रद्धानन्द जी

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नई दिल्ली. भारत में आज जो मुसलमान हैं, उन सबके पूर्वज हिन्दू ही थे. उन्हें अपने पूर्वजों के पवित्र धर्म में वापस लाने का सर्वाधिक सफल प्रयास स्वामी श्रद्धानन्द जी ने किया. स्वामी जी द्वारा प्रारम्भ परावर्तन का कार्य क्रमशः पूरे देश में जोर पकड़ रहा था. भारत के मुस्लिमों में अपने देश, धर्म और पूर्वजों का अभिमान जाग्रत होते देख कुछ असहिष्णु मुस्लिम नेताओं ने उनके विरुद्ध फतवा जारी कर दिया. 23 दिसम्बर, 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक कट्टरपन्थी युवक ने उनके सीने में तीन गोलियां उतार दीं. स्वामी जी के मुख से ‘ओम्’ की ध्वनि निकली और उन्होंने प्राण त्याग दिये.

संन्यास से पूर्व उनका नाम मुंशीराम था. उनका जन्म वर्ष 1856 में ग्राम तलबन (जिला जालन्धर, पंजाब) में एक पुलिस अधिकारी नानकचन्द जी के घर में हुआ था. 12 वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह हो गया. बरेली में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द के प्रवचनों से वे अत्यन्त प्रभावित हुए. उन्होंने अस्पृश्यता तथा जातीय भेदभाव के विरुद्ध प्रबल संघर्ष करते हुए अपनी पुत्री अमृतकला तथा पुत्रों पंडित हरिश्चन्द्र विद्यालंकार व पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति का अंतरजातीय विवाह किया.

वर्ष 1917 में सन्यास लेने पर उनका नाम स्वामी श्रद्धानन्द हो गया. स्वामी जी और गांधी जी एक दूसरे से बहुत प्रभावित थे. गांधी जी को सबसे पहले ‘महात्मा’ सम्बोधन स्वामी जी ने ही दिया था, जो उनके नाम के साथ जुड़ गया. 30 मार्च, 1919 को चांदनी चौक, दिल्ली में रौलट एक्ट के विरुद्ध हुए सत्याग्रह का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानंद जी ने ही किया. वहां सैनिकों ने सत्याग्रहियों पर लाठियां बरसायीं. इस पर स्वामी जी उनसे भिड़ गये. सैनिक अधिकारी ने उनका सीना  छलनी कर देने की धमकी दी. इस पर स्वामी जी ने अपना सीना खोल दिया. सेना डर कर पीछे हट गयी.

स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें एक वर्ष चार माह की सजा दी गयी. जेल से आकर वे अछूतोद्धार तथा मुसलमानों के शुद्धिकरण में लग गये. वर्ष 1924 में शुद्धि सभा की स्थापना कर उन्होंने 30,000 मुस्लिम (मलकाना राजपूतों) को फिर से हिन्दू बनाया. इससे कुछ मुस्लिम नेता नाराज हो गये, पर स्वामी जी निर्भीकता से परावर्तन के काम में लगे रहे. वर्ष 1924 में स्वामी जी ‘अखिल भारत हिन्दू महासभा’ के भी राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे. मुसलमानों में देशप्रेम जगाने के लिए खिलाफत आन्दोलन के समय वे चार अप्रैल, 1919 को दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण देने गये.

स्वामी जी ने हरिद्वार के पास 21 मार्च, 1902 को होली के शुभ अवसर पर ‘गुरुकुल कांगड़ी’ की स्थापना की. इसके लिए नजीबाबाद (जिला बिजनौर, उत्तर प्रदेश) के चौधरी अमनसिंह ने 120 बीघे भूमि और 11,000 रुपए दिये. इसकी व्यवस्था के लिए स्वामी श्रद्धानंद जी ने अपना घर बेच दिया और सर्वप्रथम अपने दोनों लड़कों को प्रवेश दिलवाया. उन्होंने जालन्धर और देहरादून में कन्या पाठशाला की भी स्थापना की. जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद जब पंजाब में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन करने का निर्णय हुआ, तो भयवश कोई कांग्रेसी उसका स्वागताध्यक्ष बनने को तैयार नहीं था. ऐसे में स्वामी श्रद्धानन्द जी आगे आये और वर्ष 1920 में अमृतसर में अधिवेशन हो सका. इसमें स्वामी जी ने हिन्दी में भाषण दिया. इससे पूर्व अधिवेशनों में अंग्रेजी में भाषण होते थे. इसी प्रकार भाई परमानन्द और लाला लाजपतराय जी निर्वासन के बाद जब स्वदेश लौटे, तो स्वामी जी ने लाहौर में उनका सम्मान जुलूस निकलवाया.

 

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