जयपुर. पौराणिक महत्व के तीर्थ क्षेत्रों को संरक्षित करने के लिए 550 दिन से शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन कर रहे संतों को आखिर स्वयं को होम कर जनकल्याण की राह खोलनी पड़ी. कानों में उंगली डाले बैठे शासन प्रशासन से निराश एक संत ने आत्मदाह कर लिया और दूसरे संत मोबाइल टावर पर बैठ गए. लोकतंत्र में इससे बड़ी विडम्बना कुछ नहीं हो सकती कि एक न्यायपूर्ण मांग के लिए संत और समाज को लम्बा आंदोलन करना पड़े और अंत में व्यथित होकर अपनी जान तक देनी पड़ जाए. राजस्थान के भरतपुर जिले की यह घटना बताती है कि तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति में संत महात्मा कहीं फिट नहीं होते.
क्या है मामला?
भरतपुर के डीग और कामां क्षेत्र के कनकांचल और आदि बद्री पर्वतों को संरक्षित वन क्षे़त्र घोषित करने और यहां से अवैध खनन रुकवाने के लिए क्षेत्र का संत समुदाय पिछले वर्ष जनवरी से आंदोलनरत है. यह पूरा क्षेत्र देवभूमि बृज का हिस्सा है और बृज की 84 कोस की परिक्रमा यहां के दर्शन के बिना पूरी नहीं होती. यह पूरा क्षेत्र वैध और इससे भी ज्यादा अवैध खनन का शिकार है. अवैध खनन धीरे-धीरे पौराणिक महत्व के इस क्षेत्र को समाप्त कर रहा है. यही कारण है कि संत समाज लम्बे समय से खनन का विरोध कर रहा है. कई बार सरकार को ज्ञापन भी दिए गए. शांतिपूर्ण तरीके से धरने प्रदर्शन भी चले. लेकिन सरकार की नींद नहीं टूटी. मजबूरन संतों को एक न्यायपूर्ण मांग के लिए आंदोलन का रास्ता चुनना पड़ा.
लेकिन, चूँकि संत समाज शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन कर रहा था और यह बात तय थी कि इस आंदोलन से ना तो वोट बैंक प्रभावित होगा और ना ही कानून व्यवस्था बिगड़ेगी, शायद इसीलिए सरकार को उनकी आवाज सुनाई नहीं दे रही थी. हालांकि, बार बार आत्मदाह की चेतावनी के बीच एक बार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत आंदोलनरत संतों से मिले थे और उन्हें उनकी मांगें पूरी करने का आश्वासन भी दिया था, लेकिन इस आश्वासन के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई और संतों को अपना आंदोलन जारी रखना पड़ा.
लेकिन अब शायद उनका धैर्य भी समाप्त हो गया था, क्योंकि सुनवाई के कोई आसार ही नजर नहीं आ रहे थे. फिर सरकार के मुखिया हों या जिन विधानसभा क्षेत्रों में यह पूरा क्षेत्र आता है, वहां के जनप्रतिनिधि, किसी से भी उन्हें आश्वासनों से अधिक कुछ नहीं मिला. शायद इन सभी के लिए वोट बैंक की राजनीति किसी भी न्यायपूर्ण मांग से अधिक महत्व रखती है. अंत में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे बाबा हरिबोल दास को यह कहना पड़ा कि मेरी मृत्यु का समय अब निश्चित हो चुका है, जिसे कोई बदल नहीं सकता है. प्रशासन चाहे कितना ही पुलिस अमला लगा दे, 19 जुलाई को मेरा बृजभूमि की सेवा और रक्षा के लिए मरना तय है. मेरी मृत्यु की जिम्मेदार राजस्थान सरकार होगी.
…और आखिर 19 जुलाई को एक संत नारायण दास को अपनी मांग मनवाने के लिए मोबाइल टावर पर चढ़ कर तपस्या करनी पड़ी और 20 जुलाई को संत विजयदास ने आत्मदाह कर लिया.
अब जरा कल्पना कीजिए कि प्रदेश की वर्तमान सरकार के समय ऐसी घोषणा मुस्लिम समाज में से किसी ने की होती या उस समुदाय के किसी व्यक्ति को ऐसा कुछ करना पड़ जाता तो क्या स्थिति बनती? हालांकि ऐसे किसी मामले में यह सरकार ऐसी नौबत ही नहीं आने देती, क्योंकि जो सरकार रमजान के दौरान सिर्फ एक विधायक की मांग पर मुस्लिम बहुल मोहल्लों में बिजली आपूर्ति सुचारू रखने का आदेश जारी कर सकती है, किसी का सिर तन से जुदा करने का नारा देने वाले मौलवी को पकड़ने के लिए एक माह से भी अधिक का समय लगा सकती है और भड़काऊ वीडियो बनाने वाले खादिम को सरकार की पुलिस यह सलाह दे सकती है कि बोल देना नशे में था, इसलिए वीडियो बना दिया, वह अपने वोट बैंक को पक्का करने के लिए क्या नहीं कर सकती है.
अंत में यही कहना पड़ रहा है – क्षमा कीजिए संतो, आप सर्वे भवंतु सुखिनः के संस्कारों का पालन करते हैं, लेकिन वोट बैंक की राजनीति इसे नहीं मानती.