भारत में भक्ति आंदोलन में मीराबाई का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. मेवाड़ की वीर नारियां रानी पद्मिनी, ताराबाई, कर्मवती और पन्नाधाय अपनी वीरता और साहस के लिए विख्यात हैं, तो मीराबाई अपनी भक्ति, जनजागरण और लोक मान्यता के लिए प्रसिद्ध हैं. उनका जीवन एक प्रेरणा है, विशेषकर उत्तर भारत में, जहाँ उन्हें भक्ति और लोक जागरण का प्रतीक माना जाता है. मीरा की भक्ति और कृष्ण के प्रति प्रेम ने उन्हें आम समाज से अलग कर दिया. उनके पद और भजन कृष्ण के प्रति असीम प्रेम और समर्पण की अभिव्यक्ति हैं. वे कहती हैं, “राणा जी अब न रहूँगी तोरी हटकी”. इसका अर्थ था कि उन्होंने समाज की परंपराओं और रीति-रिवाजों को छोड़कर श्रीकृष्ण के प्रति अपनी निष्ठा को सर्वोच्च रखा.
मीरा का जन्म विक्रम संवत 1561 (सन् 1498) में मेड़ता रियासत के कुड़की ग्राम में हुआ था. उनका परिवार मेड़ता रियासत से संबंधित था. उनके पिता राव रतन सिंह राठौड़ थे, जो मेड़ता के शासक थे. राव रतन सिंह, राव दूदा जी के पुत्र थे और राव दूदा जी, जोधपुर के संस्थापक राव जोधा जी के पुत्र थे. इस प्रकार मीराबाई मारवाड़ (जोधपुर) के शाही परिवार से संबंध रखती थीं. मीराबाई का जीवन भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण की जीवंत कहानी है. उनकी भक्ति बाल्यकाल से ही शुरू हुई थी, जब उन्होंने श्रीकृष्ण की मूर्ति को अपना जीवनसाथी मान लिया था. मीरा ने कृष्ण को अपने पति, प्रियतम और सखा के रूप में स्वीकार किया और उनके साथ आध्यात्मिक विवाह की भावना से जुड़ीं. उनकी भक्ति का सार है – श्रीकृष्ण के प्रति निष्काम प्रेम और समर्पण. मीरा के भजनों में अक्सर यह प्रेम दिखता है –
“मेरो तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई.
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई..”
मीरा के विवाह का संबंध भी राजस्थान के एक प्रमुख राजवंश से था. उनका विवाह मेवाड़ के महान शासक राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार भोजराज के साथ हुआ था. भोजराज एक वीर और प्रतिष्ठित राजकुमार थे, लेकिन उनका विवाह के कुछ समय बाद ही निधन हो गया. मीरा के परिवार में उनके चाचा जयमल मेड़ता के प्रमुख व्यक्ति थे, जिन्होंने मीरा को काफी संरक्षण दिया. मीरा ने अपने भाई जयमल के साथ कुछ समय मेड़ता में भी बिताया. मीराबाई का परिवार राजस्थान के दो प्रमुख राजवंशों – राठौड़ और सिसोदिया – से जुड़ा था. राणा सांगा ने राजपूत राज्यों को एकजुट करने के लिए प्रयास किए. वे आदर्श नायक माने जाते हैं, जिन्होंने मुगलों और दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध राजपूताना गौरव और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया. उनके प्रयास एक स्वतंत्र और शक्तिशाली राजपूताना बनाने के थे, जहाँ सभी राजपूत राजा एकजुट होकर विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ सकें. राणा सांगा की सबसे प्रमुख लड़ाई बाबर के विरुद्ध थी. बाबर ने 1526 में पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी थी. इसके बाद, राणा सांगा ने बाबर के विरुद्ध लड़ाई की और 1527 में खानवा की प्रसिद्ध लड़ाई लड़ी. यद्यपि, इस युद्ध में राणा सांगा को पराजय मिली, लेकिन उनकी वीरता, साहस और संघर्ष ने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया.
मीरा का योगदान सिर्फ भक्ति और धर्म में नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता में भी महत्वपूर्ण है. उन्होंने अपने पदों और भजनों के माध्यम से समाज में नारी की स्वतंत्रता, आस्था और भक्ति का संदेश फैलाया. उनके जीवन से प्रेरणा लेकर अनेक स्त्रियाँ धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय हुईं.
सामाजिक बंधनों से परे भक्ति
मीरा की भक्ति ने सामाजिक बंधनों और मान्यताओं को चुनौती दी. उस समय जब एक विधवा को समाज में उपेक्षा और निरादर का सामना करना पड़ता था, मीरा ने वैधव्य और राजसी जीवन को त्यागकर, कृष्ण की भक्ति में अपना जीवन समर्पित कर दिया. उन्होंने राजसी वैभव, परिवार और सामाजिक मर्यादाओं को त्याग दिया और साधारण भिक्षुणी की भांति भगवान श्रीकृष्ण की आराधना में लीन हो गईं. उन्होंने समाज की निंदा को दरकिनार करते हुए सार्वजनिक रूप से भक्ति का मार्ग चुना. उनके भजन और पदों में यह विद्रोह और स्वतंत्रता की भावना स्पष्ट रूप से प्रकट होती है.
स्वतंत्रता और समर्पण का मेल
मीरा की भक्ति केवल एक व्यक्तिगत आध्यात्मिक यात्रा नहीं थी, बल्कि यह सामाजिक स्वतंत्रता और आत्म-समर्पण की एक मिसाल भी थी. उन्होंने संदेश दिया कि सच्ची भक्ति सामाजिक बंधनों, रीतियों और परंपराओं से परे होती है. उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि भक्ति में कोई ऊंच-नीच नहीं होती और न ही कोई जाति. उन्होंने कृष्ण को अपना सर्वस्व मानकर, हर सांस में उनके नाम का जप किया और हर स्थिति में भगवान को समर्पित रहीं.
“पायो जी मैंने राम रतन धन पायो.
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनाय..”
मीरा की भक्ति का सबसे सशक्त माध्यम उनके पद और भजन थे, जो आज भी हर घर में गाए जाते हैं. उनके भजनों में कृष्ण के प्रति प्रेम, समर्पण और विरह की भावना मुखर रूप से प्रकट होती है. उन्होंने अपनी पीड़ा, प्रेम और आत्म-समर्पण को अपने भजनों के माध्यम से अभिव्यक्त किया. उनके भजनों में वेदना, प्रेम और स्नेह की गहराई है, जो भक्तों को आत्मिक शांति और प्रेरणा देती है.
मीरा के भजनों ने समाज के हर वर्ग को प्रभावित किया – चाहे वे राजे-महाराजे हों या साधारण जनता. उनके भजन भक्ति आंदोलन का एक अभिन्न हिस्सा बने और आज भी उनकी लोकप्रियता उतनी ही है.
मीरा की भक्ति में कृष्ण से विरह का एक गहरा भाव भी है. उन्होंने अपने भजनों के माध्यम से यह दर्शाया कि किस प्रकार भक्ति के मार्ग पर चलने वाला भक्त अपने प्रियतम (ईश्वर) से मिलन के लिए तड़पता है. मीरा का कृष्ण से यह आध्यात्मिक मिलन ही उनकी भक्ति का चरम लक्ष्य था और इस मिलन की भावना उनके भजनों में बहुत ही मार्मिक तरीके से व्यक्त होती है –
“मोहे लागी लगन, गुरु चरनन की.
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै..”
लोक जागरण और नारी स्वतंत्रता
मीरा की भक्ति ने केवल धार्मिक क्षेत्र में योगदान नहीं किया, बल्कि उन्होंने समाज में जागरूकता और नारी स्वतंत्रता की भावना को भी प्रकट किया. उन्होंने न केवल अपने जीवन में भक्ति का संदेश दिया, बल्कि समाज में व्याप्त विषमताओं, बंधनों और रूढ़िवादिता का भी विरोध किया.
मीराबाई का जीवन भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति और समर्पण का प्रतीक था. उनके अंतिम समय की घटना भी उनकी भक्ति की चरम परिणति मानी जाती है. उनके जीवन के आखिरी क्षणों के बारे में कई किंवदंतियां और कहानियाँ प्रचलित हैं, जो उनके परमात्मा के साथ एकाकार होने की गाथा को दर्शाती हैं.
मीराबाई ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में द्वारका में निवास किया. वहां उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में शरण ली और अपनी भक्ति को पूरी तरह से समर्पित कर दिया. मीरा ने ब्रज और वृंदावन में वर्षों तक भक्ति का प्रचार किया और समाज को प्रेम, भक्ति, और त्याग का संदेश दिया. परंतु उनके जीवन का अंतिम पड़ाव द्वारका बना, जहां उन्होंने द्वारिकाधीश के मंदिर में भक्ति और आराधना की.
मेवाड़ से संदेश
जब मेवाड़ के राजा को लगा कि मीराबाई के यहां से चले जाने के कारण ही उनके राज्य पर संकट आए, तो उन्होंने मीरा को वापस बुलाने के लिए अपने दूत भेजे. राजा उदयसिंह ने अपने राजपुरोहित और कुछ गणमान्य लोगों को द्वारका भेजा ताकि मीरा को मनाकर वापस मेवाड़ लाएं. साथ ही, मीरा के भाई जयमल के दोनों पुत्र भी उन्हें मनाने के लिए द्वारका पहुंचे.
मीरा ने जब यह सुना कि मेवाड़ के लोग उन्हें वापस ले जाने आए हैं, तो उन्होंने उनसे कहा कि वे पहले अपने आराध्य श्रीकृष्ण से अनुमति लेंगी. इसके बाद, मीराबाई द्वारिकाधीश के मंदिर गईं और वहां भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने ध्यानमग्न होकर भजन गाने लगीं. कहा जाता है कि उस समय, भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में उनके साथ एकात्म हो गईं और मीराबाई का शरीर श्रीकृष्ण में विलीन हो गया. यह घटना विक्रमी संवत 1630 (1573 ईस्वी) की मानी जाती है. इसे उनके जीवन का परम मोक्ष माना जाता है, जिसमें वह अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ एकाकार हो गईं.