725वीं पुण्यतिथि के अवसर पर स्मरण – कर्म को ही भगवान मानने वाले संत सावता माली 

Spread the love

प्याज मूली की तरकारी. सारी विठाई माता मेरी.

कर्म को ही भगवान मानने वाले संत सावता माली 

क्या बताऊं अब संतों के उपकार. मुझे निरंतर जगाते हैं.

समाज को लगातार जागृत करने का काम संतों ने किया है. लेकिन संतों के काम को ज्यादातर धार्मिक, संकीर्ण मानकर प्रगतिशील विचारकों ने उसे नजरअंदाज किया है. लेकिन जिन लोगों ने संत साहित्य पर गौर किया है और अध्ययन किया है, नीर,क्षीर, विवेक, बुद्धि से अवलोकन किया है, उन्होंने संतों के काम की महानता को रेखांकित किया है. इनमें प्रा. बा. र. सुंठणकर, प्रा. गं.बा सरदार का समावेश है. प्रा. सुंठणकर कहते हैं, “यह सिर्फ मंजिरे बजाने वालों का पंथ नहीं है, इसकी जड़ें समाज में गहरी हैं. संत ज्ञानदेव के पसायदान में समाज की एकता की सर्वोच्च भावना प्रकट हुई है.” वहीं प्रा. सरदार कहते हैं, “संतों ने सामाजिक जागृति और पुनरुद्धार का मूल काम किया है.” महाराष्ट्र में संतों की एक गौरवशाली परंपरा है. उस संत परंपरा में,  तेरहवीं शताब्दी के ज्ञानदेव आदि संत मंडली में एक प्रमुख संत संत सावता माली हुए. ‘Work is worship‘ ‘श्रम ही पूजा है’ इस सुविचार के अनुसार स्वकर्म को ही भगवान मानते हुए, उन कर्मों को करना ही ईश्वरपूजा मानने वाले संत के रूप में सावता माली को सभी संतों ने महिमामंडित किया है.

प्याज मूली की तरकारी. सारी विठाई माता मेरी..

लहसुन मिर्च कोथमिर. सारे बने मेरा हरी..

मोट, नाडा, कुआं, रस्सी. सबने भर दी पंढरी…

सावता कहें बनाया खेत.  विठ्ठल के पैर में अर्पित किया गला.

सावता माली का यह अभंग उनकी कर्मप्रवृत्ति और कार्य ही ईश्वर और ईश्वरपूजा है, इसका आकर्षक दर्शन है. अपने काम को छोड़कर संत सावता ना दिंडी लेकर पंढरी गए और न ही वे तीर्थ यात्रा पर गए. खास बात यह कि आज भी सभी संतों की पालकी आषाढ़ी वारी को पंढरपुर जाती है, लेकिन उसमें सावता माली की पालकी नहीं जाती है. इसके विपरीत, संत सावता माली की पुण्यतिथि के दिन, जो आषाढ़ी वारी के 15 दिन बाद होती है, विठ्ठल की पालकी पंढरपुर से उनके गाँव ‘अरण’ में संत सावता के दर्शन के लिए जाती है. यह ध्यान देने योग्य है.

“शांत रहकर एकाग्र बनो. अनंत को प्यार से भजो.

वन में जाने की जरूरत नहीं है. नारायण स्वयं घर आता है.’’ संत तुकाराम के इस वचन के संत सावता माली प्रत्यक्ष उदाहरण हैं.

धन्य है अरण. रत्नों की खान है. जहां सावता का जन्म हुआ.

संत सावता माली का ‘अरण’ गाँव पुणे-सोलापुर महामार्ग पर मोडलिंब गांव के पास है. यह गांव सावता माली की जन्मभूमि-कर्मभूमि और समाधिस्थल है. पंढरपुर से यह गांव केवल 25 किमी दूर है. आज यह गाँव सोलापुर जिले के माढा तालुका में है. लेकिन अतीत में यह श्रीमंत पटवर्धन के मिरज रियासत में था. इस अरण गाँव के पास ही 2 किलोमीटर पर एक गाँव है ‘भेंड’ और यह गाँव सावता माली की ससुराल है. ‘अरण’ गाँव को हर जगह ‘अरण-भेंडी’ के नाम से ही जाना जाता है. अरण में श्री परसुबा माली के घर शके 1172 (1250 ई.) में  संत सावता का जन्म हुआ था और शके 1217 (1295 ई.) में उन्होंने आषाढ़ वद्य चतुर्दशी को वे समाधिस्थ हुए और इहलोक में अपने कार्य की समाप्ति की. संत सावता माली संत ज्ञानदेव-नामदेव के समकालीन संतों में से एक थे. ज्ञानदेव की संत मंडली में उन 4 भाई-बहनों के अलावा संत गोरोबा कुंभार, संत विसोबा खेचर, संत नामदेव, संत जनाबाई, संत चोखामेला, संत नरहरि सोनार, संत सेना न्हावी, परीसा भागवत, जोगा परमानंद और संत सावता माली ऐसे समाज के सभी जातियों और वर्ग के संत थे. इससे पता चलता है कि कैसे ज्ञानदेव-नामदेव ने विट्ठल की नामभक्ति के माध्यम से पूरे समाज में आत्मविश्वास पैदा करके भक्ति की ध्वजा के तले सबको एकजुट किया. इस असाधारण संगठनात्मक कार्य की प्रशंसा बाद के संत तुकाराम ने ‘मिलाई वैष्णवों की मंडली’ इन शब्दों में की है. संत सावता माली इन सभी संतों में आयु में बड़े थे, उनके बाद गोरोबा दूसरे वरिष्ठ संत थे. इसलिए संत मंडली में सावता और गोरोबा का विशेष स्थान और सम्मान था.

संत सावता माली ज्ञानेश्वर से 25 वर्ष बड़े थे और संयोग से सावता माली और संत ज्ञानदेव दोनों ने क्रमश: शके 1218 में आषाढ वद्य चतुर्दशी और कार्तिक वद्य त्रयोदशी के दिन 4  महीने के अंतराल पर समाधि लेकर अपने अवतार कार्य का समापन किया. पंढरी के आषाढ़ी वारी आषाढ वद्य त्रयोदशी के दिन पंढरपुर में संत नामदेव की पुण्यतिथि मनाई जाती है और अगले दिन चतुर्दशी के दिन, संत सावता माली का पुण्यतिथि उत्सव ‘अरण’ में मनाया जाता है. इसके लिए, विठ्ठल की पालकी पंढरपुर से ‘अरण’ में आती है. तीन दिवसीय पुण्यतिथि समारोह भजन-प्रवचन, कीर्तन-भारुड़ के साथ मनाया जाता है और गोपालकाला के कीर्तन के साथ समापन होता है. वारकरी संप्रदाय के पंढरपुर स्थित देहूकर फड का इसमें प्रमुख सहभाग और मान है. पूरा गाँव समारोह में भाग लेकर धन्यता महसूस करता है. अरण में इसी तरह चैत्र के महीने में भी बड़ी यात्रा होती है. इसे ‘चंदन उटी यात्रा’ कहा जाता है.  चैत्र वद्य दशमी से द्वादश तक तीन दिन यह यात्रा होती है. वासकर फड का इसमें बड़ा मान और सहभाग है.

कोई भी कार्य श्रेष्ठ या हीन नहीं होता. काम करने वाला काम को श्रेष्ठ बनाता है. स्वयं को प्राप्त कर्म भगवान की पूजा है, इस निष्काम भाव से करना, कर्म में ईश्वर भजना चाहिए, गृहस्थी को त्यागकर उपासना-परमार्थ करने की आवश्यकता नहीं है, संसार में रहकर परमार्थ कैसे किया जाता है, यही सावता माली ने सबको दिखाया है. संत एकनाथ महाराज ने सावता माली को अभंगरूप चरित्र लिखकर वंदन किया है. ‘धन्य है सावता. मैं इसकी महिमा नहीं जानता.’ संत सावता के समकालीन और साथी संत शिरोमणि नामदेव ने भी उनकी महीमा गाई है. ‘सावता सागर. प्रेम का अवतार. अवतार लिया. माली के घर.’  यह कहते हुए नामदेव महाराज ‘धन्य है उनकी माता, धन्य है उनके पिता.’ कहकर उनके माता-पिता को भी वंदन करते हैं. और अंत में वे कहते है, ‘ नामा कहता है उसका जन्म सफल रहा. माली वंश का उसने उद्धार किया.’

वर्तमान में उनके केवल 40 अभंग उपलब्ध हैं. लेकिन उनके वे अभंग भी उनके साक्षात्कारी जीवन और आध्यात्मिक अधिकार का दर्शन कराते हैं. इन अभंगों में एक उपदेश अभंग है जो उन्होंने अपनी पत्नी को उपदेश के लिए किया था. वह उपदेशात्मक अभंग पत्नी के बहाने पूरे समाज के लिए एक मार्गदर्शक है. ‘गृहस्थी में होकर भी परमार्थ करना चाहिए. मुंह से पांडुरंग का नाम लेना चाहिए.’

वारकरी संतों को संसार छोड़कर संन्यास या वनवास मान्य नहीं है. अपनी गृहस्थी और अपना दैनिक व्यवसाय – काम,  ईश्वर को अर्पण भावना से करते हुए गृहस्थी को ही परमार्थ रूप करने का उऩका आग्रह है. और यही संत सावता,  संत नामदेव, संत चोखोबा, संत एकनाथ, संत तुकाराम ने उत्तम गृहस्थी और परमार्थ करते हुए दिखाया है. सावता माली ने किसानों और खेतिहर मजदूरों के बीच नामभक्ति का विशेष प्रसार किया. विठ्ठलार्पण भाव से लगातार नाम  लेते हुए काम का उऩके आत्मनिवेदनपरक अभंग से ‘सावता कहें बनाया खेत. विठ्ठल के पैर में अर्पित किया गला.’ इस तरह दर्शन होता है. संत सावता किसान भाईयों-भक्तों को उपदेश करते है कि नाम भक्ति के सरल मार्ग का अनुसरण करें, आपके लिए स्वतः मुक्ति द्वार आ जाएगा. सावता कहें ऐसा भक्ति का मार्ग अपनाओ. तुम मुक्ति से पार हो जाते हो.

ऐसे साक्षात्कारी कर्मयोगी संत सांवता माली को सप्त शतकोत्तर रजत वर्ष (725वीं) पुण्यतिथि के अवसर पर त्रिवार वंदन!

विद्याधर ताठे

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *