जयपुर.
इस वर्ष माघ पूर्णिमा पर बेणेश्वर मेला नहीं भरने दिया. राज्य सरकार तथा प्रशासन ने कोविड नियमों का बहाना देकर वागड़ का कुंभ कहलाने वाले बेणेश्वर मेले पर प्रतिबंध लगा दिया. राजस्थान सरकार की मानें तो कोरोना वायरस भी तुष्टिकरण की राह चल चुका है. सरकार की दृष्टि में उर्स की भीड़ से संक्रमण की पीक पर भी कोरोना नहीं फैलता, जबकि हिन्दुओं के धार्मिक उत्सवों को सरकार कोरोना के बहाने रोक रही है. यही राज्य सरकार उर्स मेले के लिए तुरत-फुरत में रविवारीय कर्फ्यू हटाकर भीड़ जुटाने का प्रबंध कर रही थी.
कोविड की तीसरी लहर के आंकड़े बढ़ रहे थे, तब राज्य सरकार अजमेर में उर्स की भीड़ जुटा रही थी. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह के 810वें उर्स के लिए राज्य सरकार ने उर्स मेला लगाने की अनुमति तो दी ही, साथ ही आनन -फानन में रविवारीय कर्फ्यू भी हटा दिया था. उर्स का झंडा चढ़ाते समय उमड़ी हजारों की भीड़ को रोकने के कोई प्रयास नहीं किए गए, ना ही दुकानों पर प्रतिबंध लगा. यह तब हो रहा था, जब विश्व में ओमिक्रोन सहित कोरोना के नए वेरिएंट्स मिल रहे थे.
प्रश्न है कि जब उर्स मेले के लिए अनुमति मिल सकती है तो बेणेश्वर के माघ पूर्णिमा मेले पर क्या आपत्ति? जबकि तुलनात्मक रूप से उर्स की अपेक्षा अब कोरोना का संक्रमण न्यून हो चुका है. बेणेश्वर माघ मेला का महत्व धार्मिक तथा सांस्कृतिक तो है ही, साथ ही यह स्थानीय जनसमुदाय के लिए विशेष आर्थिक महत्व भी रखता है. आसपास के समाज यहाँ वर्ष में एक बार व्यापार, वस्तु विनिमय के लिए भी एकत्रित होते हैं. ऐसे में सरकार व प्रशासन द्वारा कोविड के बहाने मेले पर रोक आश्चर्यजनक है.
क्या प्रकरण केवल कोरोना तक सीमित है या इस बहाने से जनजातीय समुदाय की परंपराओं को नष्ट करने के प्रयास हो रहे हैं? कहीं यह जनजातीय समाज को सनातन से काटकर मतांतरण करवाने वाले तत्वों को खुली छूट देने जैसा तो नहीं है?
सोम, माही व जाखम नदियों के संगम पर स्थित बेणेश्वर धाम की तुलना प्रयागराज से की जाती है. बेणेश्वर महादेव का स्थल है. यह विष्णु अवतार संत मावजी की पुण्यभूमि है. इस स्थल की मान्यता इतनी है कि राजस्थान, गुजरात व मध्यप्रदेश के विभिन्न समाज अपने पूर्वजों के अस्थि विसर्जन के लिए यहाँ आते हैं. आदिकाल से यहाँ बेणेश्वर मेला भरता आ रहा है, जिसमें माघ पूर्णिमा का विशेष महत्व है. बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, उदयपुर, सिरोही इत्यादि जिलों में रहने वाले लाखों श्रद्धालुओं की आस्था बेणेश्वर के माघ पूर्णिमा मेले से जुड़ी है. जनजातीय युवाओं की नई पीढ़ी बेणेश्वर के दर्शन कर अपनी जड़ों को सुदृढ़ बनाती है.
क्या राज्य सरकार यह मानती है कि कोरोना का वायरस पंथ/समुदाय देखकर आक्रमण करता है अथवा वह जनजातीय समुदाय की सनातन परंपराओं को समाप्त कर देना चाहती है? राज्य सरकार के रहते हुए (अथवा उनके संरक्षण में) जनजातीय समुदाय की भावनाओं को बार-बार आहत किया जा रहा है. कुछ समय पूर्व आमागढ़ पर माता मंदिर से भगवा ध्वज न केवल उतार फेंका गया, अपितु जनजातीय बंधुओं को सनातन से काटने के प्रयास भी हुए. जिन्हें स्वयं जनजातीय समाज ने विफल कर दिया.
प्रश्न अनुत्तरित है. यदि उर्स हो सकता है तो बेणेश्वर मेला क्यों नहीं? क्या केवल कथित अल्पसंख्यकों को प्रसन्न रखने के लिए ऐसा किया जा रहा है या फिर उससे कहीं अधिक, यह सनातन परंपराओं को क्षीण कर मतांतरण की ओर धकेलने का प्रयास है?
हमने वागड़ क्षेत्र के कुछ प्रबुद्धजनों से इस विषय पर बात की. सभी ने एक स्वर में राज्य सरकार व प्रशासन के भेदभावपूर्ण व्यवहार से असहमति व्यक्त की.
प्रभु कटारा (जनजातीय समाज के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी) – जब उर्स हो सकता है तो बेणेश्वर मेला क्यों नहीं? प्रशासन का एकपक्षीय व्यवहार अनुचित है. बेणेश्वर मेला जनजातीय समाज का कुंभ है. शताब्दियों से लग रहे इस मेले की महत्ता हरिद्वार व प्रयाग के समान है. वागड़ से लगते राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा गुजरात के लाखों श्रद्धालु बेणेश्वर में दर्शन व पूर्वजों के अस्थि विसर्जन के लिए आते हैं. यहीं पर जनजातीय समाजों में वर्ष भर की वस्तुओं, कृषि व घरेलू औजार इत्यादि का विनिमय, विपणन करता है. जब अन्य सभी कार्य पूर्ववत चलने लगे हैं तो मात्र मेले पर प्रतिबंध लगाना ठीक नहीं है.
कांतिलाल डामोर (जिला अध्यक्ष जनजाति मोर्चा व समाजसेवी) – उर्स को हाँ और हिन्दू धार्मिक उत्सव को ना; यह प्रशासन का सौतेला व्यवहार है. बेणेश्वर धाम मेले पर प्रतिबंध लगाना सनातन को तोड़ने का षड्यंत्र है. जिसके विरुद्ध जनजाति मोर्चा ने जिला प्रशासन को ज्ञापन भी सौंपा. प्रशासन से अनुरोध है कि जनभावना व आस्था से खिलवाड़ न करे.
वीरेंद्र सिंह पंवार (समाजसेवी,गौसेवक)- बेणेश्वर धाम तथा यहां लगने वाला माघ मेला न केवल लाखों की श्रद्धा का केंद्र है अपितु यह युवाओं को अपनी परंपराओं से परिचित करवाता है.