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सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने Anglo-Manipuri युद्ध वीरों के वंशजों को सम्मानित किया

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इम्फाल, मणिपुर. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने इम्फाल में आयोजित कार्यक्रम में Unsung Anglo-Manipuri War Heroes at Kalapani पुस्तक का विमोचन किया. पुस्तक का प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया है. पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में सरसंघचालक जी ने Unsung Anglo-Manipuri War Heroes के वंशजों को सम्मानित किया.

विमोचन कार्यक्रम में सरसंघचालक जी ने कहा कि हमारे लिए, यानि मणिपुरवासियों और पूरे भारतवासियों के लिए गौरव का विषय है कि स्वतंत्रता के लिए जिन वीरों ने अपने जीवन को समर्पित कर दिया. स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने पर हम उनका स्मरण कर रहे हैं इतना ही नहीं, उनके बारे में जानकारी बढ़ा रहे हैं.

क्योंकि जैसे किसी व्यक्ति को पिता जी की, दादा जी की संपत्ति (एस्टेट) मिल गई, उसने स्वयं कुछ नहीं किया. तो उसकी वैल्यू क्या है, महत्व क्या है? यह उसे तब समझ में आता है, जब उसे पिता-दादा जी के परिश्रम की जानकारी मिलती है. हमको स्वतंत्रता मिली, 75 वर्ष हुए, अब तो स्वतंत्रता के बाद जन्मी हुई जनरेशन अपने देश में है तो उनको पता ही नहीं कि आज हम जिस स्वतंत्रता का उपभोग कर रहे हैं, उसको पाने के लिए हमारे पूर्वजों ने क्या-क्या किया, उनको कितना कुछ त्याग-बलिदान देना पड़ा?

इतना त्याग-बलिदान करने की ताकत हमारे पूर्वजों में थी, उनका ही खून हमारे नसों में बह रहा है. तो हम भी उतना ही त्याग बलिदान करते हुए, अपने देश को बड़ा कर सकते हैं. अपने जीवन को वास्तविक स्वतंत्र और सुखी जीवन बना सकते हैं. यह आत्मविश्वास स्मरण में से प्राप्त होता है. ये भी पता चलता है कि हमारा जो ये कुल है भारतवंशियों का, मणिपुरवंशियों का जैसे है, वैसे ही पूरे भारत वर्ष में संघर्ष हुआ है. कभी-कभी बताया जाता है कि ये संघर्ष केवल कहीं पर नॉर्थ इंडिया में हुआ है, ऐसा नहीं है.

अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष केवल 1857 में हुआ है, ऐसा भी नहीं है, उसके पहले से शुरू हुआ और 1947 तक निरंतर चला है. थोड़ा-थोड़ा सुलगने लगा, 1857 के आस-पास चरम पर आया, बाद में भी संघर्ष का क्रम थमा नहीं, चलता रहा. सन् 1830 में केरल में वीर पांड्यकट्टबोमन ने संघर्ष शुरू किया. तो 1857 के पहले से सन् 1947 तक भारत में संघर्ष कैसे हुआ, इसका एक उत्तम उदाहरण मणिपुर का संघर्ष (1891) है. 1891 के हमारे योद्धा स्वतंत्र्य योद्धा थे. वो अपनी स्वतंत्रता के लिए, मणिपुर राज्य के अधिकारों के लिए और मणिपुर के लोगों के सुख के लिए लड़ रहे थे, वैसे ही अपने धर्म के लिए भी लड़ रहे थे. लड़ाई के समय उनका व्यवहार वीरता का रहा, दुष्टता या पशुता का व्यवहार नहीं रहा.

अंग्रेजों का रिकॉर्ड लिखता है, ब्रिटिश पार्लियामेंट में इस युद्ध को लेकर जो विवाद हुआ उसका एक कारण यह था कि अंग्रेज सेना की पलटनों ने अनसोल्ज़रली कंडक्ट दिखाया. हमारे वीरों ने थोड़े होते हुए भी अनसोल्ज़रली कंडक्ट नहीं दिखाया. युद्ध में विजय प्राप्त होती है, पराजय होती है. तो जैसे गीता कहती है – सुख दुखम् समय कृत्वा……..वैसे उस युद्ध में पराजित होने के बाद भी, जब जेल में रहे, ट्रायल चला, सजा घोषित हुई, कालापानी भेजा गया, वहां जो कंडक्ट (व्यवहार) रहा, और वापस आने के बाद का हमारे लोगों का व्यवहार पूर्णतः अपनी धर्म-संस्कृति-परंपरा के अनुरकूल था. स्वाभिमानी मनुष्य के जैसे था. तो उस परिस्थिति में भी अपना आचरण नहीं छोड़ा. अपने तत्व की भूमिका में स्थिर रहे, उसके फलस्वरूप मृत्यु मिला तो मृत्यु को भी हंस कर स्वीकार किया, कालापानी जाना था तो कालापानी गए. हम लोग बाहर का कोई नहीं चाहिए, इसके लिए ही नहीं हमारा अपना कुछ है उसके संरक्षण के लिए हम लड़े.

सरसंघचालक ने कहा कि हमारी स्वतंत्रता केवल तंत्र को लेकर बात नहीं थी, स्व को लेकर भी बात थी. हम भारत के लोग हैं. भारत के हर प्रांत के, भाषा के, हर प्रांत जाति के लोगों का एक स्व है जो हम सबको को जोड़ता है. तो भारत का व्यक्ति सेक्युलर अलग और रिलीजीयस अलग, ऐसा नहीं होता. वो धार्मिक होता है, सब कुछ शाश्वत तत्वों के आधार पर चलता है. भौतिक जीवन भी श्रद्धा के आधार पर, धर्म के आधार पर चलता है. वैसा ही व्यवहार हमारे सब लोगों का रहा, बड़ा वीरता पूर्ण व्यवहार रहा.

इंग्लैंड की पार्लियामेंट में जो हंगामा हुआ, उसका एक कारण यह भी बताया है कि देशी लोगों की छोटी फौज ने, बिना आधुनिक हथियारों के, चारों ओर से घिरे होने के बावजूद, पराक्रम और वीरता के साथ अंग्रेजों का सामना किया. तो ऐसे पराक्रमी पूर्वजों के हम वंशज हैं.

मेरा मणिपुर से सीधा संबंध नहीं है, केवल 8-10 बार यहां आना हुआ है. लेकिन यह पुस्तक पढ़ने के बाद मुझे भी उन बलिदानियों के प्रति एक श्रद्धा का अनुभव होता है और ऐसा मणिपुर भारत में है, इसलिए भारत का संबंध भी उनसे है, इसका आनंद होता है.

श्रद्धा के चलते हम उनका स्मरण करते हैं. उनका जीवन, उनका परिश्रम, उनका युद्ध, उनका त्याग, उनके बलिदान से हम सब लोगों को, आज हमें कैसे जीना चाहिए, इसका पथ प्रदर्शन करना है. हमारे स्व को, हमारी स्वतंत्रता को, हमारे धर्म को, संस्कृति को कोई डराता है तो उसके प्रतिकार में हमारा शौर्य वैसा ही होना चाहिए, हमारे मन में भय नहीं होना चाहिए.

हमारे देश को हमारे पूर्वजों के कारण, उनके त्याग बलिदान के कारण, स्वतंत्रता मिली. उनसे पाठ पढ़ कर उनका अनुसरण करते हुए हम लोग ऐसा पुरुषार्थ करेंगे तो हम अपने देश को विश्वगुरु बनाएंगे, यह संकल्प हमें करना चाहिए.

हमारी स्वतंत्रता के लिए जिन लोगों ने अपने सर्वोच्च का होम कर दिया, अपने स्वार्थ की होली जला दी. त्याग किया, बलिदान किया, पर ऐसा करने के बाद भी मन से किसी के दुश्मन नहीं बने. विश्व बंधुत्व का हमारा जो स्वभाव है, उसको हम बिना छोड़े, उसी प्रकार उसी त्याग, बलिदान, बंधुत्व की भावना के आधार पर, उसी प्रकार का पुरुषार्थ पराक्रम दिखाते हुए, अपने स्व का विवेक रखते हुए, हम सब लोग विविधता भरे इस देश के सब भाषा-भाषी, सब प्रांतों के, सब जाति वर्गों के, सब पंथों-उपासनाओं के लोग मिलकर वैसा चलेंगे तो हम अपने देश को विश्व गुरु बनाएंगे.

 

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