डॉ. पिंकेश लता रघुवंशी
शक्ति के प्रति सम्मान का पर्व है शारदीय नवरात्र. वास्तव में यह उस सृजनात्मक शक्ति को नमन करने का अवसर है, जिसे जिसे ईश्वर ने स्त्रियों को सौंपा है. उस अथाह प्रेम, ममत्व और करुणा को जो कभी मां के रूप में व्यक्त होती है, कभी बहन, कभी बेटी, कभी मित्र, कभी प्रिया और कभी पत्नी के रूप में. दुर्गा पूजा, गौरी पूजा और काली पूजा वस्तुतः स्त्री-शक्ति के तीन विभिन्न आयामों के सम्मान के प्रतीकात्मक आयोजन हैं. काली स्त्री का अपरिष्कृत, अनगढ़ और अनियंत्रित स्वरुप है, जिसे नियंत्रण में करना पुरुष अहंकार के बस की बात नहीं. गौरी या पार्वती स्त्री का सामाजिक स्तर पर नियंत्रित, गृहस्थ, ममत्व वाला स्वरूप है जो सृष्टि की जननी भी है और सृष्टि की पालक भी.
दुर्गा स्त्री के अपरिष्कृत और गृहस्थ रूपों के बीच की वह स्थिति है जो परिस्थितियों के अनुरुप करूणामयी भी है और संहारक भी. नवरात्र के हर दिन पूजी जाने वाली नौ देवियां सृष्टि-प्रक्रिया के नौ माहों में स्त्री की जटिल शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्थितियों के नौ सांकेतिक स्वरूप हैं. संदेश यह कि सृष्टि प्रक्रिया के इन नौ चरणों में स्त्री की हर मनोदशा सम्मान के योग्य है. यह विडंबना है कि स्त्री-शक्ति के सांकेतिक रूप आज हमारे आराध्य बन बैठे और जिस स्त्री के सम्मान के लिए समस्त प्रतीक गढ़े गए, वह पुरूष अहंकार के पैरों तले आज रौंदी जा रही है.
हमारा देश नवरात्र में नन्हीं बालिकाओं की दुर्गा के स्वरूप के नाते आराधना भी करता है और पूजन भी करता है, फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि आज समाज में न नौ माह की बालिका सुरक्षित है और ना ही नब्बे वर्ष की प्रौढ़. क्या कारण है कि काली को पूजने वाले बंगाल में कोई महिला चिकित्सक इसलिए काल कवलित हो गई कि किसी पुरुष की वासना ने वीभत्स स्वरूप धारण कर लिया, दक्षिण में किसी गृहणी के उन्सठ टुकड़े कर दिये गये क्योंकि उसके साथी का उससे मन भर गया था. शक्ति के आराधक शिवाजी महाराज की पुण्यभूमि महाराष्ट्र के बदलापुर में एक सफाईकर्मी मात्र नौ वर्ष की बालिका से दुराचार करता है तो भारत के मध्य में स्थित भोपाल में तीन वर्ष की बालिका अपने विद्यालय में भी सुरक्षित नहीं. यह सूची बहुत लम्बी है और वास्तव में भारत में भारत माता की जय का उद्घोष का स्वर कहीं न कहीं ऐसी घटनाओं से धीमा ही पड़ जाता है.
क्या विरोध प्रदर्शन, शासकीय हस्तक्षेप अथवा पुलिस प्रशासन के बल पर ही इन घटनाओं पर विराम लग सकता है अथवा अन्य कोई और उपाय आवश्यक है. हम स्त्रियाँ नि:संदेह आज स्वाधीनता के उपरांत पुनः उसी युग की ओर अग्रसर हैं, जब राष्ट्र के हर निर्णय, हर कार्य, हर सफलता, हर योजना में हमारी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी, आज अंतरिक्ष की उड़ान हो या कोई अनुसंधान, सीमाओं की सुरक्षा हो या समाज जीवन के कार्य, संसद में शक्ति वंदन के नाते हमारा प्रतिनिधित्व हो या कुशल गृहिणी के रूप में हम अपनी सिद्धता सिद्ध कर ही रही हैं. जो स्थिति आज स्त्री की सुरक्षा को लेकर होती जा रही है, वह भारतीय दर्शन में तो नहीं ही रही है, भारत कल भी स्त्री को शक्ति के स्वरूप में पूजता था, भारत आज भी शक्ति की आराधना करता है. फिर क्या है जो स्थितियां ऐसी निर्मित हो गई कि एक ओर विश्व में नारियों के लिए सर्वाधिक योजनाओं को साकार करता भारत अपनी बेटियों की सुरक्षा के लिए चिंतित है.
उत्तर मात्र एक ही है छद्म बाजारवाद, पाश्चात्य चिंतन, भौतिकता वादी जीवन, अपने मूल से कटकर कहीं न कहीं हम स्वयं इस स्थिति के निर्माता होते जा रहे हैं. अतः एक स्त्री शक्ति के नाते कुछ आग्रह समस्त भारतीय समाज से यही है कि हमारे प्रतीकों की आराधना के साथ हमें सामर्थ्य चाहिए अपने समाज से कि हम जहाँ जिस स्थान पर भी कार्यरत हैं, वहाँ हमें सम्मान के साथ साथ सुरक्षित रहने का वातावरण मिले.
हम स्त्रियाँ भी आसमान छूने की आस रखें तो अपनी जड़ों को न छोड़ने का प्रयास भी करें, समाज जीवन में जब असंख्य लोग असीमित भावनाओं के साथ दृष्टिगोचर होते हैं, जहाँ दुर्भवनाओं वाली मानसिकता के लोग तो सीमित ही होते हैं, फिर भी वे अपना कार्य कर जाते हैं और सभ्य समाज मौन रह मात्र दर्शक बन रह जाता है. ये मौन और दर्शक की भूमिका से निकल उन पीड़ित होने वाली स्त्रियों पर आघात होने के पूर्व साथ खड़े होने का आश्वासन चाहिए. समाज की प्रत्येक मातृ शक्ति मेरी भारत की बेटी है, मेरे परिवार के समान है. यह भाव लेकर चलेंगे तो अवश्य ही इन घटनाओं में कमी आएगी. हर महिला को भी अपने जीवन से संबंधित निर्णय लेने की स्वतंत्रता होनी चाहिये, किंतु उस स्वतंत्रता में स्वछंदता न होकर मानवीय मूल्यों की मर्यादा, परिवारिक संस्कारों का श्रृंगार, वैज्ञानिक सोच व नैतिकता का बोध समाहित हो. न्याय व्यवस्था इतनी विलंबित न हो कि समाज में रह रहे विकृत मानसिकता के लोगों में न्याय का भय हो. नैतिकता का कोई प्रमाण पत्र नहीं होता, ये व्यवहार से झलकती है, इसके लिए शिक्षा देने वाले विद्यालयों को व्यवसायिक शिक्षा के साथ साथ नैतिक और चारित्रिक रूप से सक्षम युवा पीढी को गढ़ने की जिम्मेदारी लेनी होगी. बेटियों, बहनों और महिलाओं को सुरक्षा के पहरे की नहीं, स्वयं की सुरक्षा सीखने की आवश्यकता है. तभी उसका दुर्गा और काली का स्वरूप जागृत हो सकता है. संबंधों में समझ, बहलाने वाले बहरूपियों की पहचान, परिवार के सम्मान का मान, ये भाव यदि सभी में आ गया तो उनके अंदर की सरस्वती स्वतः जागृत हो जाएगी और अपनी कार्य कुशलता, सृजन करने की क्षमता, प्रबंधन कला से स्वयं स्वावलम्बन पाती है तो वह लक्ष्मी बन जाती है. उसके ये सारे रूप ही तो पूजनीय हैं, किंतु सर्व समाज से यही अपेक्षा – मत उसे पूजिये, मत उसे दुत्कारिये, बस उसे उसके लिए ही स्वातंत्र्य पूर्ण जीवन जीने का सम्मान देते हुए अनुकूल वातावरण बना सामर्थ्य प्रदान कीजिये, संभवत यही हम सबकी सच्ची शक्ति पूजा होगी.
(लेखिका विद्या भारती मध्य क्षेत्र की सह मंत्री है.)