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कोरोना काल में संवेदनशील भारत की सेवा गाथा – कुछ भावपूर्ण अनुभव

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१. कूच बिहार की स्वाभिमानी माताजी

लॉकडाउन में कहां-कहां मदद की आवश्यकता है, यह खोजते हुए संघ के स्वयंसेवकों की एक टोली (टीम), मघपाला नाम के छोटे से गांव में पहुची. बंगाल के ‘कूच बिहार’ जिले में स्थित यह गांव, जिला मुख्यालय, कूच बिहार से मात्र ३५ किलोमीटर की दूरी पर है. इस गांव में एक जर्जर झोंपड़ी में स्वयंसेवक गए. उन्हें देखकर झोपड़ी के सामने खेल रहे बच्चे अंदर चले गए, और अंदर से उनकी मां निकली. साधारण सी, जीर्ण-शीर्ण साड़ी पहने हुए थी. चेहरे पर असहाय सा भाव.

टोली के साथ गांव का ही एक स्वयंसेवक भी था. उसके अनुसार, लॉकडाउन के कारण इस परिवार की हालत अत्यंत कठिन और कष्टप्रद हो गई थी. स्वयंसेवक ने उस महिला से पूछा, “माताजी कैसी हैं आप..?” यह सुनकर वह महिला थोड़ा हंसते हुए बोली, “हम तो एकदम ठीक हैं. अच्छे हैं.”

अभाव में भी, अपरिचित, आगंतुकों के सामने अपनी विवशता न दिखाने का सनातन संस्कार निभा रही थी वह माताजी..!

स्वयंसेवकों की इस टोली ने उस माताजी को और उसके बच्चों को खाद्य सामग्री दी, पेन-पेंसिल-कॉपी दी… यह देखकर उस माताजी की आंखें झरझर बहने लगी. वह कहने लगी, “आपदा में आए हुए देवदूत हैं आप….”

२. कुथुकड का दातृत्व

बंगलुरु के पास, पैंतीस – चालीस किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा सा औद्योगिक शहर है – हुसूर. यूं तो वह बंगलुरु का ही एक हिस्सा लगता है, किंतु है वह तमिलनाडु में. कृष्णागिरी जिले का एक तालुका (तहसील). संघ की दृष्टी से हुसूर यह जिला है. चमक – दमक वाले इस हुसूर जिले में, एक छोटा सा गांव है, कुथुकड. किसी को विश्वास भी नहीं होगा कि बंगलुरु जैसे प्रगत शहर के पास एक ऐसा भी गांव है, जहां जाने के लिये बस का रास्ता भी नहीं है. लगभग १३ किलोमीटर, छोटे वाहन से जाना पड़ता है, या पैदल चलना पड़ता है. तमिलनाडु की, कर्नाटक से लगी सीमा पर यह क्षेत्र होने से बहुत हद तक उपेक्षित है.

जब लॉकडाउन लगा, तो इस गांव का संपर्क, जो पहले ही मजबूत नहीं था, अन्य गांवों से, हुसूर से कट सा गया. कुछ दिनों बाद गांव में खाने पीने की, औषधियों की समस्या खड़ी हो गई. इस गांव की एक युवा महिला हैं – अर्चना. इसने कुछ दिन पहले ‘सेवा भारती’ के एक शिविर में भाग लिया था. इसलिये वह सेवा भारती के कार्यकर्ताओं को जानती थी. उसने सेवा भारती के कार्यकर्ताओं से मदद करने के लिये संपर्क किया. हुसूर में सेवा भारती का ‘निवेदिता अंबुलम’ अनाथ बच्चों के लिये एक प्रकल्प चलता है. यहां के कार्यकर्ता तुरंत कुथुकड पहुंचे. वाहन के लायक रास्ता नहीं था, फिर भी इन कार्यकर्ताओं ने सहायता सामग्री से लदी एक जीप उस रास्ते पर डाली और जैसे-तैसे गांव पहुंचे.

कुथुकड गांव में पक्के मकान बहुत कम हैं. सर्वत्र झोंपड़ियां ही दिखती हैं. सेवा भारती के कार्यकर्ता, गांव की सभी झोंपड़ियों में गए. एक झोंपड़ी में जब कार्यकर्ता सहायता सामग्री दे रहे थे, तब उस झोंपड़ी की महिला ने एक बोरी इन कार्यकर्ताओं को दी. कार्यकर्ताओं ने उसे लेने से मना किया. तो उस महिला ने उन्हें आग्रह किया, उस बोरी को रखने का.

उसका कहना था, वह अंबुलम (अनाथालय) के बच्चों के लिये दे रही है. कार्यकर्ताओं के मना करने के बाद भी उस महिला ने वह बोरी (जिसमें ५५ किलो रागी – Finger Millet, थी) उस वाहन में डाल दी. जिसमें कार्यकर्ता सहायता सामग्री लेकर आए थे.

अत्यंत गरीबी में, अभाव की परिस्थिति में रहने वाली उस महिला में दातृत्व का यह भाव जागना, अपने आप में प्रेरक और हृदयस्पर्शी तो है ही, साथ ही मिट्टी से जुड़ी इस देश की सभ्यता और परंपरा को दर्शाता है.

३. विल्लुपुरम में किन्नरों की कृतज्ञता

छत्रपति संभाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात, महाराष्ट्र में आए औरंगजेब से शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र, राजाराम ने संघर्ष किया, जिंजी (चंदी) के किले से. ये जिंजी का किला है, तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले में.

इस विल्लुपुरम जिले के मुख्यालय में, लॉकडाउन के काल में जब संघ के स्वयंसेवक, लोगों की मदद करने के लिये घूम रहे थे, तब वे अयानकोईलपट्टू और जानकीपुरम, दोनों क्षेत्रों में भी गए. इन क्षेत्रों में किन्नरों का निवास था. स्वयंसेवकों ने यहां सहायता सामग्री बांटी, और सबको कोरोना से बचने के उपायों का भी प्रशिक्षण दिया. कार्यकर्ताओं ने किन्नरों से अपील की कि वे कोरोना काल में समाज की सहायता के लिये आगे आएं.

इसका सकारात्मक परिणाम रहा. कोरोना काल में चल रहे सहायता कार्यों में किन्नर वर्ग ने मजबूत हाथ बंटाया. बाद में रुबीनी नाम की किन्नर विल्लुपुरम के संघ कार्यालय में आईं. उसने कहा, “संघ के कार्यकर्ता हम से सम्मान से व्यवहार करते हैं. इन्होंने हमें प्रतिष्ठा दी है. अब हम इनकी प्रेरणा से, समाज में चल रहे सहायता कार्य में हिस्सा ले रहे हैं.” रुबीनी ने संघ कार्यालय में, कार्यकर्ताओं के साथ भोजन भी किया. कार्यकर्ताओं का सात्विक स्नेहार्द, निष्कपट और निच्छल व्यवहार देखकर, रुबीनी की आंखों में आंसू आ गए..!

४. महिला की प्रसव पीड़ा देख, स्वयंसेवक ने मंगाई एंबुलेंस

महाराष्ट्र, गुजरात आदि स्थानों से उत्तर प्रदेश में, अपने गांव जाने वाले श्रमिक, महाराष्ट्र के जलगांव होकर जा रहे थे. वहां के स्वयंसेवकों ने इन श्रमिकों के लिए आवश्यक सभी व्यवस्थाएं की थीं. इन्हीं श्रमिकों में एक थे, उत्तर प्रदेश के अपने पैतृक गांव लौटने वाले नूर मुहम्मद. वे सूरत में कपड़ों की फेरी लगाया कराते थे. उनका पैतृक गांव है, मेरठ. सूरत से १,३०४ किलोमीटर दूर. वे अपनी पत्नी इशरत के साथ, पैदल जा रहे थे. वे जब जलगांव शहर से गुजर रहे थे, तभी उनकी पत्नी को अचानक प्रसव पीड़ा होने लगी. वह दर्द से कराहते और चीखते हुए मदद मांगने लगी.

शहर में लॉकडाउन होने की वजह से उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही थी. उनकी स्थिति देखकर सहायता करने की कोई हिम्मत नहीं कर रहा था. इस बीच एक व्यक्ति ने नूर मुहम्मद को शहर के संघ स्वयंसेवक रवि कासार का मोबाइल नंबर दिया. रवि कासार को यह बात पता चलते ही वह तुरंत मुहम्मद की मदद करने के लिए चले आए और साथ में एंबुलेंस भी ले आए. मुहम्मद के पत्नी को जल्द से जल्द हॉस्पिटल पहुंचाना आवश्यक था, इसलिए वे उन्हें एंबुलेंस में लिटा के अस्पताल की ओर ले गए. लेकिन प्रसव पीड़ा इतनी बढ़ गई थी कि रवि कासार को अपने साथियों के साथ मिलकर उनकी प्रसूति करनी पड़ी. हालांकि वे ना तो डॉक्टर थे और ना आरोग्य कर्मचारी. फिर भी उन्होंने जिम्मेदारी लेकर उसे पूर्ण किया और अगले क्षण उस माता को अस्पताल में भर्ती करवाया. इसके साथ उन्हें भोजन और अन्य सामग्री उपलब्ध कारवाई. मोहम्मद की पत्नी इशरत के उद्गार थे, “आप तो हमारे लिए खुदा हो..!”

(सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘कोरोना काल में, संवेदनशील भारत की सेवा गाथा’ पुस्तक के अंश)

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