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विश्व कल्याण का पोषक – सूर्यषष्ठी व्रत

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नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे

जगत्प्रसूतिस्थितिनाशहेतवे

त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे

विरञ्चिनारायणशङ्करात्मने

जो जगत् के एकमात्र प्रकाशक हैं; संसार की उत्पत्ति, स्थिति और नाश के कारण हैं; उन वेदत्रयी स्वरूप, सत्त्व-रज-तम, इन तीन गुणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश नामक तीन रूप धारण करने वाले सूर्य भगवान् को नमस्कार है.

जब युद्धभूमि में प्रभु श्रीराम थककर चिन्तातुर खड़े थे, तब ऋषि अगस्त्य ने उन्हें समस्त शत्रुओं पर विजय दिलाने वाले नित्य अक्षय एवं कल्याणमय  ‘आदित्यहृदयस्तोत्रम्’ सुनाकर जप करने के लिए कहा था. इस स्तोत्र में भुवन भास्कर भगवान् सूर्य को सविता (जगत् को उत्पन्न करने वाले), पूषा (पालन-पालन करने वाले) और त्वष्टा (जगत् का संहार करने वाले) के रूप में निरूपित किया गया है. इस स्तोत्र के अनुसार सूर्य अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता और शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं. सम्पूर्ण लोकों में जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में भगवान् सूर्य पूर्ण समर्थ हैं. विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा किसी भी प्रकार के भय उत्पन्न होने पर सूर्यदेव का कीर्तन करने पर दुःख नहीं भोगना पड़ता. भिन्न-भिन्न स्तोत्रों में भगवान् सूर्य को ‘दारिद्र्यदुःखक्षयकारणं’ (दारिद्र्य-दुःख के नाश का कारण), ‘सर्वपापक्षयकारणं’ (सबके पापों के नाश का कारण), ‘व्याधिविनाशदक्षं’ (रोगों का विनाश करने में समर्थ) आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है. ‘विष्णुपुराण’ के द्वितीय अंश का अष्टम अध्याय पूर्णतः सूर्यदेव को समर्पित है. इसमें वर्णित है कि सर्वदा एक रूप से स्थित सूर्यदेव का वास्तव में न उदय होता है और न अस्त; बस, उनका दिखाई देना और दिखाई न देना ही उनका उदय और अस्त है. यहाँ यह भी उल्लिखित है कि सूर्य विष्णु भगवान् के अति श्रेष्ठ अंश और विकाररहित अन्तर्ज्योतिस्वरूप हैं.

ऐसे महिमामंडित भगवान् सूर्य साक्षात् देव हैं, जिनकी उपासना कार्तिक मास में की जाती है. शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि को “सूर्यषष्ठी व्रत” किया जाता है. यह व्रत जिसको अनुष्ठान के रूप में आयोजित किया जाता है, चार दिवसों में पूर्ण होता है. पहले दो दिनों में शुद्धता और सिद्धता का अभ्यास होता है, तीसरे दिन मुख्य व्रतोपवास तथा अंतिम दिवस पारण व प्रसाद-ग्रहण किया जाता है. सूर्य की दो पत्नियाँ ऊषा और प्रत्यूषा हैं जो उनकी शक्तियों का मुख्य स्रोत मानी जाती हैं. छठ पूजा में सूर्यदेव को उदय होते एवं अस्त होते हुए – दोनों समय अर्घ्य देकर नमन करते हैं. सायंकाल में प्रत्यूषा के साथ सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है तो अगले दिन प्रात:काल ऊषा के साथ सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत सम्पन्न किया जाता है. इसके साथ इस बात को भी जोड़कर देखा जाता है कि हमें न केवल उत्कर्ष प्राप्त किए लोगों को ही महत्व देना चाहिए, बल्कि जो ढलान की ओर हैं अथवा जिनकी प्रगति कम मात्रा में हुई है, उनको भी उतना ही सम्मान मिलना चाहिए.

यह व्रत लिंग-विशिष्ट त्यौहार नहीं है अर्थात् इस व्रत को स्त्री-पुरुष सभी समान रूप से करते हैं. इस व्रत के महात्म्य और फलप्राप्ति को दृष्टिगत रखते हुए बहुतायत मात्रा में अन्य मतावलम्बियों द्वारा भी पूर्ण निष्ठा से किया जाता है. बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल और नेपाल के तराई क्षेत्र में यह पर्व बहुत श्रद्धापूर्वक एवं धूमधाम से मनाया जाता है. इन प्रदेशों के निवासियों के अन्य स्थानों पर प्रवास करने के कारण यह पर्व वर्तमान में भारत के अधिकांश राज्यों के साथ-साथ कई देशों में भी मनाया जाने लगा है. इस व्रत में भगवान् सूर्यदेव के साथ-साथ षष्ठी माता (अपभ्रंश- छठी मैया) की भी उपासना की जाती है. लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का सम्बन्ध भाई-बहन का है.

व्रत के प्रादुर्भाव के विषय में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं. छठ पर्व का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी मिलता है. पौराणिक मान्यता के अनुसार छठी मैया या षष्ठी माता संतानों की रक्षा करती हैं और उन्हें दीर्घायु प्रदान करती हैं. शास्त्रों में षष्ठी देवी को ब्रह्मा जी की मानस पुत्री भी कहा गया है. पुराणों में इन्हें माँ कात्यायनी भी कहा गया है, जिनकी पूजा नवरात्रि में षष्ठी तिथि पर होती है. षष्ठी देवी को ही स्थानीय भाषा में छठी मैया कहा जाता है. एक कथा के अनुसार प्रथम मानव स्वायम्भुव मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत को यज्ञ के पश्चात् प्राप्त मृत संतान को षष्ठी देवी ने आशीष देते हुए जीवित कर दिया था. देवी की इस कृपा से राजा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने षष्ठी देवी की आराधना की. ऐसी मान्‍यता है कि इसके बाद ही इस पूजा का लोक में प्रसार हो गया. एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के पश्चात् राम राज्य की स्थापना के दिन (कार्तिक शुक्ल षष्ठी) भगवान् राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की. सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था. कुछ कथाओं में पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है. वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लम्बी उम्र के लिए नियमित सूर्य की पूजा करती थीं.

हमारे समाज में अनेक प्रकार के उत्सव मनाए जाते हैं. कुछ धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव होते हैं, कुछ ऐतिहासिक-सामाजिक महत्व के होते हैं. कई राष्ट्रीय पर्व भी मनाए जाते हैं. प्रत्येक उत्सव का कोई-न-कोई अपना वैशिष्ट्य होता है, जिसका व्यक्ति और समाज पर प्रभाव पड़ता है.

छठ पूजा की विशेषता है कि इससे व्रतियों की शारीरिक-मानसिक शुचिता में वृद्धि होती है. व्रतियों के अतिरिक्त शेष समाज भी शुद्धता का विशेष ध्यान रखता है. इसी प्रकार इस पूजा में गंगा या अन्य नदी, सरोवर, ताल-तलैया का विशेष महत्व है, कुएँ का भी उपयोग किया जाता है. इसके कारण सम्पूर्ण समाज सभी नदी-तालाबों आदि की साफ-सफाई के लिए प्रयासरत रहते हैं. इस व्रत में उपयोग आने वाली सामग्रियों की सूची इतनी लम्बी होती है कि समाज के सभी वर्गों के व्यवसाय को लाभ पहुँचता है. यह समाज में रहने वालों के बीच के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध का अनुपम उदाहरण है. इस उत्सव में सभी एक-दूसरे के सहयोगी के रूप में कार्य करते हैं. व्रत के दूसरे दिन का प्रसाद खिलाने की परम्परा भी अद्भुत है, व्रती के परिजनों द्वारा श्रद्धापूर्वक और अपने-पराये के सारे भेद मिटाकर सभी इष्ट-मित्रों व समाज के अन्य बन्धुओं को प्रसाद खिलाने की व्यवस्था की जाती है. इसी प्रकार अंतिम दिन प्रसाद वितरण में सारा ध्यान इस ओर रहता है कि कोई भी व्यक्ति प्रसाद पाने से वंचित न रह जाए. इस तरह का सामाजिक सद्भाव अपने-आप में अनूठा है और सामाजिक समरसता को बल प्रदान कर पुष्ट करता है.

सूर्यदेव एवं छठी मैया को समर्पित “सूर्यषष्ठी व्रत” समाज को एकसूत्र में बाँधने वाला अति महत्वपूर्ण त्यौहार है. इस पूजा द्वारा आत्मिक उत्थान के साथ-साथ सामाजिक एवं आर्थिक विकास में बहुमूल्य योगदान होता है. आज के वैमनस्य भरे वातावरण में इस उत्सव की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है. सूर्यदेव की अनुकम्पा से सामाजिक सद्भाव का जो स्वरूप पूजा के दिनों में दृष्टिगोचर होता है, वह स्थायी रूप से हमारे समाज की विशेषता बने – ऐसे ही संकल्प के साथ इस वर्ष यह व्रतोत्सव मनाया जाए तो सम्पूर्ण भारत में एक नई ऊर्जा का संचार होगा और हम वैश्विक मानवता के लिए दिग्दर्शक के रूप में उभरकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” को शीघ्र ही चरितार्थ कर सकेंगे.

रजनीश सुधाकर

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