सुखदेव वशिष्ठ
पिछले दो महीने में लोगों ने कोरोना का भयावह रूप देखा. लाखों संक्रमित हुए और हजारों की मौत हो गई. भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 2017 में कहा था कि भारत “एक संभावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी का सामना कर रहा है”. एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2017 में ही भारत की 14% आबादी मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों से पीड़ित थी, जिसमें 45.7 मिलियन लोग अवसाद संबंधी विकारों से और 49 मिलियन लोग चिंता संबंधी विकारों से पीड़ित थे. कोविड-19 महामारी ने मानसिक स्वास्थ्य संकट को अधिक बढ़ा दिया है. दुनिया-भर की रिपोर्टों से पता चलता है कि यह वायरस और इससे जुड़े लॉकडाउन बड़ा प्रभाव डाल रहे हैं, जिनमें युवा वर्ग खास तौर से प्रभावित है.
वर्तमान में देश में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति
‘India State-Level Disease Burden Initiative’ के एक अध्ययन से पता चला है, मानसिक विकारों के चलते साल 1990 से 2017 के बीच रोगों का बोझ 2.05 फीसदी से बढ़कर 4.7 हो गया. रिपोर्ट के अनुसार मानसिक विकारों के कारण भारत में रोग का बोझ (विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष) के रूप में 1990 में 2.5% था जो 2017 में बढ़कर 4.7% हो गया है, और वाईएलडी (विकलांगता के साथ बिताए गए वर्ष) में इसका योगदान देश में सभी वाईएलडी का 14.5% था. कोरोना महामारी और लॉकडाउन के असर से लोगों की मानसिक स्थिति पर प्रभाव पड़ रहा है.
मनोरोग चिकित्सक एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के पहले महानिदेशक ब्रॉक चिशहोम, की प्रसिद्ध उक्ति है – ‘बगैर मानसिक स्वास्थ्य के, सच्चा शारीरिक स्वास्थ्य नहीं हो सकता है.’ वर्षों के रिसर्च के बाद इस बात को लेकर कोई शक नहीं रह गया है कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बुनियादी तौर पर और अभिन्न रूप से आपस में जुड़े हुए हैं. वर्तमान परिस्थिति में किसी समाचार को पढ़ने के लिए कोविड-19 को लेकर सही और फर्जी सूचनाओं की बाढ़ से होकर गुजरना पड़ता है, लेकिन महामारी के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पहलू के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है. संक्रामक महामारियां आम लोगों में चिंता और घबराहट को बड़े स्तर पर बढ़ाती हैं. नया रोग अपनी प्रकृति में अपरिचित होता है और इसके परिणामों के बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता है.
शोधकर्ताओं ने कोरोना के साथ-साथ आने वाली कई मानसिक स्वास्थ्य चिंताओं को भी रेखांकित किया है, जिनमें अवसाद, तनाव और मनोविकृति और पैनिक अटैक शामिल हैं. इसी प्रकार कोरोना काल में संक्रमित और उसका इलाज पा रहे लोगों को सामाजिक एकांतवास का भी सामना करना पड़ा. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें अलग-थलग रखा गया था. इसी प्रकार सामाजिक दूरियां भी बन गईं. शुरू में बीमारी को शायद कलंक के तौर पर देखा गया हो और जिसके कारण कुछ संक्रमित को अपने साथ भेदभाव महसूस हुआ होगा. यह भी संभव है कि कोरोना से ग्रसित लोगों में दूसरों को संक्रमित करने का भी अपराध बोध घर कर गया हो.
वर्तमान में कोविड-19 से प्रभावित लोगों के अनुभवों को समझने और सार्वजनिक स्वास्थ्य की नीति बनाने के लिए इन कारकों पर ध्यान देना जरूरी है. ऐसा करके ही उनके मानसिक स्वास्थ्य की चिंताओं पर भी ध्यान दिया जा सकेगा.
यह साफ है कि संक्रामक रोग सभी लोगों पर एक गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हैं – उन लोगों पर भी जो वायरस से प्रभावित नहीं हैं. इन बीमारियों को लेकर हमारी प्रतिक्रिया मेडिकल ज्ञान पर आधारित न होकर हमारी सामाजिक समझ से भी संचालित होती है. इंटरनेट के युग में हम ज्यादातर सूचनाएं ऑनलाइन हासिल करते हैं. समाचार माध्यमों के आलेखों और सोशल मीडिया पोस्ट्स में आउटब्रेक को सनसनीखेज बनाने और गलत जानकारी का प्रसार करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे डर और भगदड़ की स्थिति बनती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित प्रमाणित स्वास्थ्य संगठनों ने यह सिफारिश की है कि लोग तनाव और बेचैनी का कारण बनने वाली फर्जी जानकारियों से बचने के लिए विश्वसनीय स्वास्थ्य पेशेवरों से ही जानकारी और सलाह लें. लेकिन वैध सूचना भी हमेशा अच्छी नहीं होती है. महामारी के दौर में चारों तरफ से क्या करें, क्या न करें की सूचनाओं की बमबारी होती रहती है. लेकिन इसके कैसे-कैसे नतीजे हो सकते हैं, इसके बारे में विचार नहीं किया जाता है. दरअसल घबराहट आदि से जूझ रहे लोगों में पहले से ही मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं होती हैं. किसी आघात के बाद के तनाव से जूझ रहे लोग या खास तौर पर स्वास्थ्य को लेकर चिंतित रहने वाले और किसी बीमारी से ग्रसित हो जाने को लेकर आशंकित रहने वाले लोगों को पैनिक अटैक आ सकता है और वे ज्यादा तनावजन्य प्रतिक्रियाएं दे सकते हैं.
अंत में, यह समझना जरूरी है कि किसी भी सार्वजनिक आपातकाल के समय- पहले से ही समाज के हाशिये पर रहे लोग, केंद्र के करीब रह रहे लोगों की तुलना में ज्यादा प्रभावित होते हैं.
मुख्यधारा के मीडिया के साथ-साथ सोशल मीडिया भी लोगों से घर पर रहने और घर पर रहकर काम करने के आग्रहों से भरा है ताकि वे वायरस से ग्रस्त होने और उसका प्रसार करने से बच सकें. सरकारी नीति-निर्माताओं को कोविड-19 पर जवाबी नीति बनाते समय समाज के हाशिये पर रह रहे वर्ग के आर्थिक के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य का भी विशेष ध्यान रखना होगा.