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उदारवादियों के सिलेक्टिव लिब्रलिज्म से उठने लगा पर्दा

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आज हम उस समाज में जी रहे हैं, जिसका एक वर्ग अपने दोहरे चरित्र का प्रदर्शन करने में महारत हासिल है. एक वर्ग जो एकतरफ अपने उदारवादी होने का ढोंग करता है, महिला अधिकारों, मानव अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बड़े बड़े आंदोलन और बड़ी-बड़ी बातें करता है, लेकिन जब इन्हीं अधिकारों का उपयोग करते हुए कोई महिला या पुरूष अपने विचार उनके विरोध में रखते हैं तो उन्हें उदारवाद, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रास नहीं आते. इतना ही नहीं, इनके द्वारा उस महिला या पुरुष का जीना ही दूभर कर दिया जाता है. वे लोग जो असहमत होने के अधिकार को संविधान द्वारा दिया गया सबसे बड़ा अधिकार मानते हैं, वे दूसरों की असहमति को स्वीकार ही नहीं कर पाते.
हाल के कुछ घटनाक्रमों पर नज़र डालते हैं –

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