करंट टॉपिक्स

विमर्शों (Narratives) का मायाजाल और हमारी भूमिका

Spread the love

विमर्श, जिसे अंग्रेजी में नैरेटिव कहा जाता है. जो समाज को सही या गलत रास्ते पर चलने के लिए बाध्य करता है. नैरेटिव के माध्यम से समाज सही अथवा गलत ढंग से संचालित भी होता है. समाज और राष्ट्र के सुचारु ढंग से चलने की कामना रखने वाले लोग नैरेटिव को अनदेखा नहीं कर सकते हैं. हमें उनसे, उनके प्रभाव से, और जिन्हें हम ठीक करना चाहते हैं, उनके प्रति सचेत रहने की आवश्यकता है.

आज हमारे समाज में कई प्रकार के विमर्श उपस्थित हैं. हमें यह भी जानने की आवश्यकता है कि समाज को तोड़ कर छिन्न-विच्छिन्न करने वाली शक्तियों द्वारा चलाए जाने वाले विमर्श आज भी समाज में प्रभावी ढंग से संचालित किये जा रहे हैं. परन्तु, वास्तविकता यह भी है कि समाज और राष्ट्र हित को सर्वोपरि रखने के पक्षधर लोग इन विमर्शों को तोड़कर अपने विमर्श गढ़ने में पिछड़ जाते हैं. इसलिए उन्हें राष्ट्र और समाज को पोषित करने वाले विमर्श गढ़ने के साथ ही समाज को गलत राह पर ले जाने वाले विमर्शों को तोड़ने की आवश्यकता है. इस दिशा में कार्य करने वाले लोगों के लिए अध्ययन यह एक महत्वपूर्ण साधन है.

उदाहरण के लिए प्रतिवर्ष 9 अगस्त को मनाए जाने वाले  “वैश्विक मूलनिवासी दिवस” अथवा “विश्व आदिवासी दिवस” (अंग्रेजी में “International Day of the World’s Indigenous Peoples”) की चर्चा करते हैं. यूरोपीय साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा उत्तर अमेरिका और दक्षिण अमेरिका और विश्व के अनेक हिस्सों में वहां के मूलनिवासियों का नरसंहार किया गया. उनके द्वारा अपनी साम्राज्यवादी लालसा एवं उन प्रदेशों के मूलनिवासियों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए उनकी संस्कृति और सभ्यता को ध्वस्त किया गया. द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात जब इन दबे कुचले मूलनिवासियों की आवाज उभरने लगी तो उन प्रदेशों के मूलनिवासियों ने उन पर विदेशी यानि कि यूरोपीय साम्राज्यवादी लोगों द्वारा किये गए अत्याचारों को उजागर करना शुरू किया. इन दबंग और साम्राज्यवादी ताकतों ने अपने खिलाफ आक्रोश के प्रति एक सुरक्षा कवच प्रदान करने के लिए यह “विश्व आदिवासी दिवस” मनाना शुरू कर दिया ताकि उन उन प्रदेशों में उनके अस्तिव को कोई चुनौती न मिल सके.

इस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization – ILO) संयुक्त राष्ट्र (United Nations – UN) आदि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का भी भरपूर उपयोग किया. उसके पीछे मूलनिवासियों को अधिकार देने की इच्छा से ज्यादा उनको शांत करने की प्रेरणा काम कर रही थी. इसके अलावा, ये ताकतें ९ अगस्त जैसे दिनों की आड़ में स्वतंत्र देशों के संप्रभु मामलों में हस्तक्षेप करने और अपने नवसाम्राज्यवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश भी कर रही हैं. वर्तमान समय में भी वे चाहते हैं कि भारत जैसे विकसनशील राष्ट्र उनके प्रभाव में रहें, उनके लिए पोषक नीतियों को अपनाएं, स्वंतंत्र होकर भी अपने राष्ट्र के हितों को बढ़ावा देने के लिए स्वयंभू निर्णय ना लें. कोई राष्ट्र अगर अपनी स्वनिर्धारित दिशा में अग्रेसर हो तो फिर मानवाधिकार, व्यक्ति स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि मुद्दों को लेकर फ्रीडम हाउस, V-Dem जैसी स्वघोषित निष्पक्ष रेटिंग एजेंसीज के माध्यम से उन राष्ट्रों को शर्मिंदा करके उन्हें अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में अलग थलग किया जाता है.

इस सन्दर्भ में भारत में इस्लाम के आक्रमण और आगे चलकर अंग्रेजों द्वारा स्थापित साम्राज्यवाद से पहले किसी ने इस प्रकार के अत्याचार किसी समाज घटक पर नहीं किये. नगर, ग्राम और वनों में बसने वाले समुदाय एक दूजे के साथ मिलजुल कर रह रहे थे. इसके तथ्य वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में विपुल प्रमाण में मौजूद है. परन्तु वर्तमान में मूलनिवासी दिवस को भारत में ऐसे मनाया जाता है, जैसे कि यहाँ पर वनवासियों पर अन्य किसी समाज ने बहुत अधिक अत्याचार किये हों. इसके फलस्वरूप भारत के वनवासी समाज को अन्य समुदायों से अलग दिखाकर उनमें अलगाव के भाव को बहुत अधिक प्रमाण में स्थापित करने के प्रयास किये जा रहे हैं. इसकी वजह से झारखण्ड राज्य के खूंटी, गुमला और अन्य तीन चार जिलों में एक समय ऐसा विष फैला दिया कि वहां के लोगों ने भारत सरकार और राज्य सरकार के खिलाफ बिगुल फूंक दिया. उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि वे भारत के संविधान और शासन व्यवस्था को नहीं मानते. उनका गांव एवं परिसर ही सार्वभौम है और उसे वो अपने हिसाब से चलाएंगे. पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों को वहां के ग्रामीणों ने अपने गांव में बंधक बना दिया था. हद तो तब हो गई, जब वो कहने लगे कि ब्रिटिश सरकार ने उनकी जमीन १०० सालों के लिए लीज पर ली थी. चूँकि अब ब्रिटिश चले गए हैं, वे अब वहां के राजा है और किसी भी प्रकार की बहरी शक्तियों के खिलाफ, जिसमें भारत सरकार और राज्य सरकार शामिल हैं, उनसे युद्ध करेंगे. इस उदाहरण से हमें पता चलता है कि गलत विमर्श राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक सद्भाव के लिए कितने घातक हो सकते हैं.

इसी प्रकार से आर्य आक्रमण के सिद्धांत सम्बंधित विमर्श है. तोड़ो और राज्य करो, नीति के तहत ब्रिटिश सरकार ने आर्य आक्रमण का विमर्श भारत में स्थापित किया. गोब्बेल्स के उस सिद्धांत की तरह कि एक झूठ को इतनी बार दोहराओ कि वह सच में परिवर्तित हो जाए. ब्रिटिशों ने आर्य आक्रमण का झूठा सिद्धांत इतनी बार भारत में कहा कि वह भारत के प्रतिष्ठित NCERT के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाने लगा. भारतीय समाज को जितनी क्षति इस सिद्धांत ने पहुंचाई, शायद ही किसी ओर बात ने किया होगा. इस सिद्धांत का झूठ राखीगढ़ी और सोनौली जैसे जगहों पर किये उत्खननों से सब के सामने आ गया है. परन्तु भारत को तोड़ने वाली लेफ्ट लिबरल कहलाई जाने वाली शक्तियां उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है. वे आज भी आर्य आक्रमण का झूठ परोस रही है. ऐसे गलत राह पर ले जाने वाले सिद्धांतों से हमें सजग होकर समाज को भी सचेत करने की आवश्यकता है.

हमारा राष्ट्रीय “स्व” का विमर्श क्या होना चाहिए?

विजयादशमी उत्सव के एक सम्बोधन में “स्व” पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भगवत जी ने कहा था कि हमें अपने समाज में वांछित सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए “स्व” आधारित दृष्टिकोण की आवश्यकता है. तो फिर हमारे लिए ‘स्व’ क्या है? यह हिन्दुत्व है. सरसंघचालक जी ने कहा, “यह वह प्रकाश होना चाहिए जो हमारे देश की सामूहिक चेतना की दिशाओं और अपेक्षाओं को प्रकाशित करता है. भौतिक स्तर पर हमारे प्रयासों के परिणाम इसी सिद्धांत के अनुरूप होने चाहिए. तभी और केवल तभी भारत आत्मनिर्भर  राष्ट्र के रूप में स्थापित होगा”. डॉ. मोहन भगवत जी के गहन और ज्ञानवर्धक संदेश ने “स्व” के व्यापक विश्लेषण का रोडमैप इस प्रकार तैयार किया है – हम क्या थे? हम क्या हैं? और हमें क्या होना चाहिए?

राष्ट्र के ढांचे में “स्व”

पश्चिमी देश अपनी राष्ट्रीयता से जुड़े कुछ विशिष्ट चरित्र प्रदर्शित करते हैं जैसे इंग्लैण्ड-व्यापार का देश, फ्रांस-राजनीतिक चरित्र वाला देश. प्राचीन काल से ही विचारकों द्वारा परिकल्पित भारतीय राष्ट्र का ऋग्वैदिक विचार “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” में स्थित है, जिसका अर्थ है कि आइए हम इस दुनिया को रहने के लिए एक महान स्थान बनाएं. यह मूल रूप से भारतीय जीवन कार्य का विषय है. स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में भारतीय राष्ट्र का उद्देश्य मानव जाति को आध्यात्मिक बनाना है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिवंगत वरिष्ठ प्रचारक श्री रंगाहरि जी कहते हैं – राष्ट्र को पश्चिम के नेशन की परिकल्पना से जोड़ना उपनयन संस्कार को जनेऊ संस्कार से जोड़ने जैसा है. राष्ट्र की तुलना नेशन से करना पूरी तरह से गलत धारणा है. राष्ट्र इस अवधरणा की व्युत्पत्ति 8000 वर्ष पुरानी है. वह हमारी स्वदेशी अवधारणा है. महर्षि अरविन्द हमारे “स्व” को धर्म या सनातन धर्म के रूप में परिभाषित करते हैं. पंडित दीनदयाल उपाध्याय का ‘चिति’ का विचार भी हमारे “स्व” का एक पहलू है.

जवाहरलाल नेहरू के सभी लेखों के बीच हम एक हद तक कह सकते हैं कि उन्होंने एक चिंतनशील कृति की रचना की है और वह है “डिस्कवरी ऑफ इंडिया”. उन्होंने इस कृति में “स्व” का उल्लेख किया है. वह कहते हैं, ”विभिन्न राष्ट्र अपने व्यवहार और प्रतीकों के चयन को परिभाषित करते हैं. राष्ट्र के संरक्षक के रूप में चुने गए प्राणी उसके चरित्र और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. हिन्दू धर्म का शुभंकर पशु गाय एक शांतिपूर्ण प्राणी है. कुछ देशों ने बाज को, कुछ ने ड्रैगन को और कुछ ने बाघ को अपना संरक्षक पशु चुना. संरक्षक प्राणियों का उनका चयन उनके शिकारी चरित्र का सुझाव देता है. हमने हिन्दुत्व के शुभंकर पशु गाय को क्यों अपनाया? जैसा कि नेहरू जी ने अपनी पुस्तक “डिस्कवरी ऑफ इंडिया” में कहा है, इसका उत्तर यह है कि हमारा अस्तित्व पृथ्वी पर सभी प्रजातियों के कल्याण के हित में निहित है.

पूज्यनीय गुरु जी हमारे “स्व” को “अस्मिता” कहते हैं, जिसका अर्थ है हमारी पहचान. गुरुजी अक्सर “स्व” को दो शब्दों से जोड़ते थे – अस्मिता और अस्तित्व. उन्होंने अस्मिता को ‘मैं हूं’ और अस्तित्व को ‘यह है’ के रूप में समझाया. गुरुजी ने कुमारसंभव के श्लोक से अस्मिता और अस्तित्व को आगे समझाया जो कहता है –

उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयः नाम नगाधिराजः

पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य पृथिव्याः मानदण्डः इव स्थितः अस्ति ..

अर्थ – महाकवि कालिदास कुमारसम्भव के इस श्लोक का उद्धरण देते हुए कहते हैं कि (भारतवर्ष की) उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मा वाला पर्वतों का राजा हिमालय है, जो पूर्व और पश्चिम दोनों समुद्रों का अवगाहन करके पृथ्वी के मापने के दण्ड के समान स्थित है. इस श्लोक में अस्मिता और अस्तित्व को इस प्रकार से समझा जा सकता है कि हिमालय दिव्य-‘देवतात्मा’-अस्मिता है और इसका ‘नगाधिराज’-अस्तित्व है. इसलिए, गुरुजी ने हमारे जीवन के अन्य सभी कार्यों को करते समय हमारी अस्मिता और अस्तित्व के संरक्षण पर जोर दिया.

भारतीय विश्व दृष्टिकोण भी हमारी इसी “स्व” धारणा से निर्मित हुआ है. अपनी “स्व” की इस धारणा के आधार पर हम संसार को मातृ केन्द्रित स्थान के रूप में देखते हैं. हमारे प्राचीन विद्वानों ने कहा है, “माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः” ‘पृथ्वीसूक्त’ में हम धरती माता की पूजा करते हैं. इसलिए, जैसा कि रंगाहरि जी ने कहा था, हमें देशभक्ति के स्थान पर मातृभक्ति कहना चाहिए क्योंकि हम अपने जन्म स्थान को पितृ भूमि नहीं, बल्कि मातृभूमि मानते हैं.

हम प्रकृति को अपने से बाहर की चीज़ नहीं मानते. वैराग्य शतक के 100वें श्लोक में भर्तृहरि कहते हैं –

मातर्मेदिनि तात मारुत सखे तेजः सुबन्धो जल

भ्रातर्व्योम निबद्ध एष भवतामन्त्य प्रणामांजलि.

भावार्थ : हे पृथ्वी, मेरी माँ! हे पवन, मेरे पिता! हे अग्नि, मेरे मित्र! हे जल, मेरे अच्छे रिश्तेदार! हे आकाश, मेरे भाई! यहाँ आपको हाथ जोड़कर मेरा नमस्कार है. प्रसिद्ध पर्यावरणविद् स्टेफ़ानो डी सैंटिस ने अपनी पुस्तक “नेचर एंड मैन: द हिन्दू पर्सपेक्टिव” में कहा है कि “प्राचीन भारत की आध्यात्मिक प्रणालियों में प्रकृति से संबंधित अवधारणाओं की पर्याप्त समानता है. जिसे भगवान के सार के अभूतपूर्व प्रतिबिंब के रूप में देखा जाता है.” यह दर्शाता है कि हम पारिस्थितिकी या पर्यावरण को अपने से बाहर की चीज़ नहीं मानते हैं, बल्कि यह आंतरिक रूप से हमारे अस्तित्व से जुड़ा है.

इन दिनों हम कुछ लोगों को बहुसंस्कृतिवाद के साथ हिन्दुत्व की तुलना करते हुए सुन रहे हैं. जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण के आधार पर हमें विविधता के विपरीत कैसे चित्रित किया जा सकता है? हम किसी के प्रति नफरत नहीं रखते, बल्कि बहुसंस्कृतिवाद के प्रचारक संकीर्ण मानसिकता वाले हैं और हमसे नफरत करते हैं. वास्तव में एक प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक डगलस मरे का मानना ​​है कि बहुसंस्कृतिवाद यूरोप के कुछ वर्गों के प्रति अपनी आकर्षक अपील के परिणामस्वरूप यूरोप को एक अजीब मौत की ओर ले जा रहा है.

हम अपने दर्शन में महिलाओं को पुरुषों से कमतर नहीं मानते है. हमने अनिवार्य रूप से दोनों को एक-दूसरे का पूरक माना है. कई वर्षों से हम हमारे प्रभात स्मरणों में कहते आए हैं –

“काराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती.

करमूले तु गोविन्द, प्रभाते करदर्शनम्.”

अर्थ: माता लक्ष्मी का वास कराग्रे (कर की शीर्षक) में है, अर्थात्, लक्ष्मी का आशीर्वाद हाथों के प्रारंभ में है.

इसलिए हमें अपनी सामूहिक चेतना के साथ आगे बढ़ना होगा. हमारे दर्शन (सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन॥ जीवों में भेद नहीं है. ब्रह्म ज्ञान से ही सच्चे आनंद की अनुभूति होती है और सुख का सृजन होता है.) में निहित आध्यात्मिकता “स्व” के केंद्र में है. धर्म- हमारी प्रत्येक गतिविधि के मूल में रहना चाहिए.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *