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लक्ष्मण देव से महायोद्धा बंदा सिंह बहादुर तक की यात्रा

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इतिहास से बलिदानी वीर बंदा बैरागी ने मुगलों द्वारा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों का न केवल विरोध किया, बल्कि उन पर सशस्त्र आक्रमण भी किया. वीर बंदा बैरागी को इतिहासकारों ने इतिहास में उपयुक्त स्थान नहीं दिया. हालांकि, एक कुटिया से शुरू होकर महायोद्धा और राजा बनने तक का सफर अद्भुत और निराला था. विभिन्न भाषाओं के विश्व प्रसिद्ध साहित्यकारों ने अपनी कविताओं द्वारा उनको भरपूर सम्मान और श्रद्धांजलि दी है. इन साहित्यकारों में तीन प्रमुख कवियों का नाम आता है – नोबेल पुरस्कार से सम्मानित राष्ट्रगान के रचयिता और बांग्ला भाषा के श्रेष्ठ साहित्यकार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, स्वतंत्रता सेनानी और मराठी भाषा के साहित्यकार वीर सावरकर तथा राष्ट्रकवि के नाम से प्रसिद्ध हिंदी के कवि मैथिलीशरण गुप्त.

बंदा बैरागी पर गहन अध्ययन करने वाले डॉ. राजसिंह बताते हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर ने बांग्ला भाषा में लिखी कविता ‘बंदी बीर’ में बंदा बैरागी के बलिदान को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है. वीर सावरकर की मराठी में लिखी कविता ‘अमर मृत’ की विषय वस्तु भी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता जैसी ही है, जिसमें इस महायोद्धा की वीरता, देशभक्ति और धर्म के प्रति निष्ठा का चित्रण किया है. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविता ‘वीर वैरागी’ में माधव दास बैरागी (बंदा बैरागी) और गुरु गोविंद सिंह जी की वार्ता को अपनी कविता में शामिल किया है.

बंदा बैरागी लक्ष्मण देव, माधवदास, वीर बंदा बैरागी और बंदा सिंह बहादुर के नाम से प्रसिद्ध रहे हैं. इस धर्म योद्धा ने सच्चाई, देशभक्ति, वीरता और त्याग के मार्ग पर चलते हुए 9 जून, 1716 को मानव उत्थान यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी. महायोद्धा की विजय यात्रा सितंबर 1708 में गुरु गोविंद सिंह जी से भेंट के बाद महाराष्ट्र के नांदेड़ से शुरू हुई. उन्होंने 21 फरवरी, 1709 को सोनीपत (हरियाणा) के पास सेहरी खांडा नामक गांव में निंबार्क संप्रदाय और निर्मोही अखाड़े के संत महंत किशोर दास जी के निर्मोही अखाड़ा मठ को अपना प्रथम सैनिक मुख्यालय बनाया. वहीं पर मात्र आठ महीने की अवधि में अपनी सेना का गठन कर लिया. दो नवंबर, 1709 को उन्होंने इसी स्थान से सोनीपत स्थित मुगल ट्रेजरी पर हमला किया और अपनी सेना के खर्चों के लिए आर्थिक संसाधनों का प्रबंध किया. यहीं से बंदा बैरागी का प्रामाणिक एवं दस्तावेजों पर आधारित इतिहास आरंभ होता है. इससे पहले की उनकी जीवन गाथा जनश्रुति और इतिहासकारों के अनुमानों पर आधारित थी.

वीर सावरकर द्वारा बंदा बैरागी पर मराठी में लिखी कविता ‘अमर मृत’ ब्रिटिश इतिहासकार टोड द्वारा लिखी पुस्तक पर आधारित है. वीर सावरकर ने भारतीय इतिहास पर मराठी में लिखी अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहासतील सहा सोनेरी पाने’ में भी बंदा बैरागी की वीरता का वर्णन करते हुए अपनी कविता ‘अमर मृत’ का जिक्र किया है. पुस्तक में बंदा बैरागी के बारे में लिखते हैं कि हिन्दू इतिहास से उस वीर बलिदानी का नाम कभी भी नहीं मिटाया जा सकता, जिन्होंने हिदुओं पर हो रहे अत्याचारों का न केवल विरोध किया, बल्कि मुगलों पर सशस्त्र आक्रमण भी किया. वीर सावरकर लिखते हैं कि बंदा बैरागी मूलत: एक वैष्णव संत थे. उन्हें गुरु गोविंद सिंह जी से पता चला कि किस प्रकार पंजाब में हिन्दुओं और सिक्खों पर मुगल शासकों द्वारा अत्याचार किए जा रहे हैं. उन्होंने मुगलों से बदला लेने की ठान ली. इस प्रकार बहादुर योद्धा मुगलों द्वारा अमानवीय तरीकों से हिन्दुओं को प्रताड़ित किए जाने के विरुद्ध पंजाब की ओर अग्रसर हुए. अपनी पुस्तक में सावरकर लिखते हैं कि ‘तत्त खालसा’ के बैनर तले सिक्खों का एक बड़ा दल बंदा बैरागी की सेना से अलग हो गया, जिसके कारण उनकी सेना कमजोर पड़ गई. यदि ऐसा न हुआ होता तो युद्ध के परिणाम कुछ और होते.

वीर सावरकर ने अंडमान की जेल में बंदा बैरागी के बलिदान पर लिखी कविता में उस घटना का वर्णन किया है, जब 7 दिसंबर, 1715 को गुरदासपुर नंगल की गढ़ी में महीनों तक मुगल सेना का मुकाबला करते हुए खाद्य सामग्री समाप्त हो जाने के बाद बंदा बहादुर और उनकी सेना को मुगल सेना द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. बंदा बैरागी को सर्कस के शेर वाले लोहे के पिंजरे में बंद करके लाहौर ले जाया गया. उन्हें करीब दो महीने तक लाहौर में ही रखा गया और फिर फरवरी 1709 में बंदा बैरागी को उनके 740 सैनिकों सहित लाहौर से दिल्ली तक लाया गया. सावरकर के साहित्य को पढ़कर लगता है कि वे बंदा बैरागी के जीवन से अत्यंत प्रभावित थे. वीर सावरकर आगे लिखते हैं कि बंदा बैरागी के रक्तरंजित इतिहास पर मुगल सल्तनत की गर्दन हमेशा शर्म से झुकी रहेगी. ऐसी घटना दुनिया में न पहले कभी हुई और न भविष्य में होगी. सावरकर ने बंदा बैरागी के लिए अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है. उन्होंने बैरागी के लिए महावीर, दिव्यत्यागी, रणयोद्धा, प्रकांड देशभक्त, अलौकिक देशप्रेमी तथा कर्मयोगी जैसे शब्दों का प्रयोग किया है.

सिक्ख रिसर्च इंस्टीट्यूट, टेक्साज़ के सह संस्थापक हरिंदर सिंह लिखते हैं, “38 वर्ष का होते होते हम बंदा सिंह बहादुर के जीवन की दो पराकाष्ठाओं को देखते हैं. गुरु गोबिंद सिंह से भेंट से पहले वे वैष्णव और शैव परंपराओं का पालन कर रहे थे. लेकिन उसके बाद उन्होंने सैनिक प्रशिक्षण, हथियारों और सेना के बिना 2500 किलोमीटर की यात्रा की और 20 मास के अंदर सरहिंद पर क़ब्ज़ा कर खालसा राज की स्थापना की”.

बंदा सिंह बहादुर और गुरु गोबिंद सिंह से भेंट

बंदा सिंह बहादुर का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 को राजौरी में हुआ था. बहुत कम उम्र में वे घर छोड़ कर बैरागी हो गए और उन्हें माधोदास बैरागी के नाम से जाना जाने लगा. वह अपने घर से निकल गए और देश भ्रमण करते हुए महाराष्ट्र में नांदेड़ पहुंचे. जहाँ 1708 में उनकी भेंट सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी से हुई. गुरु गोबिंद सिंह ने उन्हें अपनी तपस्वी जीवन शैली त्यागने और पंजाब के लोगों को मुग़लों से छुटकारा दिलाने का काम सौंपा. जेएस गरेवाल अपनी पुस्तक ‘सिख्स ऑफ़ पंजाब’ में लिखते हैं – “गुरु ने बंदा सिंह को एक तलवार, पाँच तीर और तीन साथी दिए. साथ ही उन्होंने एक फ़रमान भी दिया, जिसमें कहा गया था कि वे पंजाब में मुग़लों के ख़िलाफ़ सिक्खों का नेतृत्व करें”. गोपाल सिंह ने अपनी पुस्तक गुरु गोबिंद सिंह में इसका और वर्णन करते हुए लिखा है, “गुरु ने बंदा बहादुर को तीन साथियों के साथ पंजाब कूच करने का निर्देश दिया. उनसे कहा गया कि वे सरहिंद नगर पर जाकर क़ब्ज़ा करें और अपने हाथों से वज़ीर ख़ाँ को मृत्यु दंड दें. बाद में गुरु भी उनके पास पहुंच जाएंगे”.

बंदा सिंह बहादुर पंजाब की तरफ़ निकल पड़े, लेकिन कुछ दिन बाद ही जमशीद ख़ाँ नाम के एक अफ़ग़ान ने गुरु गोबिंद सिंह पर खुखरी से वार किया. गुरु गोबिंद सिंह कई दिनों तक जीवन और मौत के बीच झूलते रहे.

राजमोहन गाँधी अपनी पुस्तक ‘पंजाब अ हिस्ट्री फ़्रॉम औरंगज़ेब टु माउंटबेटन’ में लिखते हैं, “घायल होने और अपनी मृत्यु के बीच गुरु गोबिंद सिंह चाहते तो अपने पूर्ववर्तियों की तरह किसी व्यक्ति को अगला गुरु नामांकित कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. उन्होंने साफ़ घोषणा कि उनके बाद गुरु ग्रंथ साहब को सिक्खों के स्थाई गुरु का दर्जा दिया जाएगा”.

वर्ष 1709 में जब मुग़ल बादशाह बहादुर शाह अभी भी दक्षिण में लड़ाई लड़ रहे थे, बंदा बहादुर पंजाब में सतलुज नदी के पूर्व में जा पहुंचे और सिक्ख किसानों को अपनी तरफ़ करने के अभियान में जुट गए. सबसे पहले तो उन्होंने सोनीपत और कैथल में मुग़लों का ख़ज़ाना लूटा. प्रसिद्ध इतिहासकार हरिराम गुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘लेटर मुग़ल हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब’ में उस समय के मुग़ल इतिहासकार ख़फ़ी ख़ाँ को कहते बताया है कि “तीन से चार महीनों के भीतर बंदा बहादुर की सेना में क़रीब पाँच हज़ार घोड़े और आठ हज़ार पैदल सैनिक शामिल हो गए. कुछ दिनों बाद इन सैनिकों की संख्या बढ़ कर उन्नीस हज़ार हो गई”.

समाना पर हमला

ज़मीदारों के अत्याचारों से त्रस्त सरहिंद के किसान बहुत कठिन जीवन बिता रहे थे. वह यह भी नहीं भूल पाए थे कि गुरु गोबिंद सिंह के बेटों के साथ क्या हुआ था. उस क्षेत्र के सिक्खों ने बंदा को घोड़े और धन उपलब्ध कराया. कई सालों से मनसबदारों ने अपने सैनिकों के वेतन नहीं दिए थे. इसलिए वे लोग भी जीवनयापन की तलाश में बंदा बहादुर के साथ आने के साथ आ गए.

औरंगज़ेब के बाद नए मुग़ल बादशाह बहादुर शाह की छवि उदारवादी ज़रूर बन गई, लेकिन वे पंजाब और दिल्ली से दूर थे, इसलिए उनके अपने अफ़सर व आम लोग उन्हें कमज़ोर समझने लगे और लोगों के मन में बादशाह का डर जाता रहा. नवंबर 1709 में बंदा बहादुर के सैनिकों ने अचानक सरहिंद के क़स्बे समाना पर हमला बोला. हरिराम गुप्ता लिखते हैं, “समाना पर हमला करने की वजह ये थी कि 34 वर्ष पहले गुरु तेगबहादुर का सिर कलम करवाने वाला और गुरु गोबिंद सिंह के लड़कों को मारने वाला व्यक्ति वज़ीर ख़ाँ उसी शहर में रह रहा था”.

“समाना के पास सिधौरा के मनसबदार उस्मान ख़ाँ ने गुरु गोबिंद सिंह से दोस्ती रखने वाले एक मुस्लिम पीर को तंग किया था. इसलिए वहाँ क़त्लेआम का आदेश दिया गया. बाद में ख़फ़ी ख़ाँ ने लिखा कि बंदा ने मुग़ल अफ़सरों को आदेश दिया कि वह अपना पद छोड़ दें.” समाना को बचाने के लिए दिल्ली से सरहिंद को कोई सहायता नहीं भेजी गई.

सरहिंद पर फ़तह

बंदा बहादुर ने मई 1710 में सरहिंद पर आक्रमण किया. हरीश ढिल्लों अपनी पुस्तक ‘फ़र्स्ट राज ऑफ़ द सिख्स द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ बंदा सिंह बहादुर’ में लिखते हैं – “बंदा की फ़ौज में 35000 लोग थे. इनमें 11000 भाड़े के सैनिक थे. वज़ीर ख़ाँ के पास अच्छी ट्रेनिंग लिए हुए 15000 सैनिक थे. कम संख्या में होते हुए भी वज़ीर की सेना के पास सिक्खों से अच्छे शस्त्र थे. उनके पास कम से कम दो दर्जन तोपें थीं और उनके आधे सैनिक घुड़सवार थे”. 22 मई 1710 को हुए युद्ध में बंदा ने ये मानते हुए कि सबसे कमज़ोर तोपख़ाने को हमेशा बीच में रखा जाता है, बीच में रखी चार तोपों पर सबसे पहले आक्रमण किया. इस आक्रमण का नेतृत्व उन्होंने भाई फ़तह सिंह को दिया. हरीश ढिल्लों लिखते हैं – “आमने सामने की लड़ाई में फ़तह सिंह ने वज़ीर ख़ाँ के सिर पर वार किया. जैसे ही सरहिंद के सैनिकों ने अपने सेनापति का सिर कट कर भूमि पर गिरते देखा, उनका मनोबल गिर गिया और वह मैदान छोड़ कर भाग खड़े हुए”.

इस युद्ध में बंदा बहादुर की जीत हुई. सरहिंद नगर को मिट्टी में मिला दिया गया. इसके बाद जब बंदा बहादुर को सूचना मिली कि यमुना नदी के पूर्व में हिन्दुओं को तंग किया जा रहा है तो उन्होंने यमुना नदी पार की और सहारनपुर नगर को बर्बाद किया.

बंदा बहादुर के हमलों से उत्साहित होकर स्थानीय सिक्ख लोगों ने जालंधर दोआब में राहोन, बटाला और पठानकोट पर आधिपत्य कर लिया.

नए सिक्के और सील जारी की

बंदा सिंह बहादुर ने अपने नए कमान केंद्र को लौहगढ़ का नाम दिया. सरहिंद की जीत को याद करते हुए उन्होंने नए सिक्के ढलवाए, जिन पर गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह के चित्र थे. वर्ष 1710 में 66 वर्षीय मुग़ल बादशाह बहादुर शाह स्वयं बंदा सिंह बहादुर के विरुद्ध युद्ध भूमि में उतरे. मुग़ल सेना बंदा की सेना से कहीं बड़ी थी. बंदा को भेष बदल कर लौहगढ़ से निकल जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. एसएम लतीफ़ अपनी पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब’ में लिखते हैं – “बंदा बहादुर को ध्यान में रख कर मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ने आदेश दिया कि अब दिल्ली की बजाए लाहौर उनकी राजधानी होगी. लाहौर से उन्होंने बंदा को पकड़ने के लिए अपने सैन्य कमांडर भेजे. तब तक बंदा ने अपने को अपनी पत्नी और कुछ अनुयायियों के साथ पहाड़ों में छिपा लिया था. जब एक कमांडर खाली हाथ लौटा तो बहादुर शाह ने उसको क़िले में ही हिरासत में रखने का आदेश दे दिया. लाहौर में सिक्खों के घुसने पर पाबंदी लगा दी गई. लेकिन बंदा के साथी रात में रावी नदी में तैरते हुए लाहौर के बाहरी क्षेत्र में आते और मुग़ल प्रशासन को तंग करने के बाद प्रातः होने से पहले तैरते हुए वापस चले जाते”.

बंदा को पकड़ने की ज़िम्मेदारी समद ख़ाँ को सौंपी

1712 में बादशाह बहादुर शाह का निधन हो गया. इसके बाद हुए युद्ध में सत्ता पहले जहंदर के हाथ में आई और फिर उनके भतीजे फ़र्रुख़सियर को मुग़ल ताज मिला. फ़र्रुख़सियर ने कश्मीर के सूबेदार अब्दुल समद ख़ाँ को बंदा सिंह बहादुर के विरुद्ध अभियान शुरू करने का आदेश दिया. समद ने 1713 आते आते बंदा बहादुर को सरहिंद छोड़ने पर विवश कर दिया. लेकिन उनके और समद के सैनिकों के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहा. अंततः समद ख़ाँ को बंदा बहादुर को आजकल के गुरदासपुर शहर से चार मील दूर गुरदास नांगल गाँव में बने एक क़िले तक ढकेलने में सफलता मिल गई. वहाँ क़िले का इतना ज़बरदस्त घेरा लगाया गया कि उसके अंदर अनाज का दाना तक नहीं पहुंच पाया.

हरिराम गुप्ता लिखते हैं – “घास, पत्तियों और माँस पर गुज़ारा करते हुए बंदा बहादुर ने ताक़तवर मुग़ल सेना का आठ महीनों तक बहुत बहादुरी से सामना किया. आख़िरकार दिसंबर, 1715 में समद ख़ाँ को बंदा बहादुर का क़िला भेदने में सफलता मिल गई”.

बंदा बहादुर के आत्मसमर्पण करने के बाद उनके बहुत से साथियों को गुरदास नाँगल में ही मार दिया गया. दूसरे लोगों को लाहौर लौटते समय रावी के तट पर मृत्यु दी गई.

एसएम लतीफ़ ने लिखा है – “सूबेदार ने विजेता की तरह लाहौर शहर में प्रवेश किया. उनके पीछे बंदा अपने सैनिकों के साथ चल रहे थे. सभी बंदियों को ज़ंजीरों से बाँध कर गधों या ऊँटों पर बैठने के लिए मजबूर किया गया था”. समद ख़ाँ ने बादशाह से बंदा बहादुर को ख़ुद दिल्ली ले जाने की अनुमति माँगी, लेकिन बादशाह ने अनुमति नहीं दी. तब अगले दिन समद ख़ाँ ने अपने बेटे ज़करिया ख़ाँ के नेतृत्व में इन कै़दियों को दिल्ली के लिए रवाना किया.

27 फ़रवरी को इस जुलूस ने दिल्ली में प्रवेश किया. जुलूस को देखने के लिए भारी संख्या में दिल्लीवासी सड़कों पर उतर आए.

जेबीएस यूबिरॉय अपनी पुस्तक ‘रिलीजन, सिविल सोसाएटी एंड द स्टेट : अ स्टडी ऑफ़ सिखिज़्म’ में लिखते हैं – “एक अंग्रेज़ ने, जो फ़रवरी 1716 में दिल्ली में था, लिखा था कि उसने दिल्ली में घुसने वाले जुलूस को देखा था. जिसमें क़रीब 744 जीवित सिक्ख क़ैदी चल रहे थे”.

“उन्हें दो-दो करके बिना काठी वाले ऊँटों पर बाँधा गया था, यानि 377 ऊँटों का क़ाफ़िला चल रहा था. प्रत्येक क़ैदी का एक हाथ गर्दन के पीछे कर लोहे की ज़जीर से बाँधा हुआ था. इसके अलावा उन्होंने लंबे बाँसों पर मारे गए 2000 सिक्खों के सिर लटका रखे थे. उनके पीछे बंदा बहादुर चल रहे थे. उन्हें एक लोहे के पिंजड़े में डाल कर हाथी पर सवार कराया गया था. उनके दोनों पैर लोहे की साँकलों से बँधे थे. उनकी बग़ल में नंगी तलवारें लिए दो मुग़ल सिपाही खड़े थे.”

इन क़ैदियों को एक सप्ताह क़ैद में रखने के बाद 5 मार्च, 1716 को उनको मृत्यु दंड देना प्रारम्भ हुआ हर प्रातः कोतवाल सरबराह ख़ाँ इन क़ैदियों से कहता – “तुम्हें अपनी ग़लती सुधारने का आख़िरी मौक़ा दिया जा रहा है. सिक्ख गुरुओं की शिक्षा में अपना विश्वास समाप्त करो और इस्लाम धर्म क़ुबूल कर लो. तुम्हारी ज़िदगी बख़्श दी जाएगी”.

हरीश ढिल्लों लिखते हैं – “हर सिक्ख ने मुस्कराते हुए न में अपना सिर हिला कर कोतवाल की पेशकश का जवाब दिया. सात दिनों तक लगातार हुए सिक्ख क़ैदियों के नरसंहार के बाद उसको कुछ दिनों के लिए रोक दिया गया. कोतवाल ने फ़र्रुख़सियर को सलाह दी कि बंदा बहादुर को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए कुछ समय और दिया जाए. जेल में एकांतवास में रह रहे बंदा बहादुर की कोठरी के सामने से जब भी कोतवाल सरबराह ख़ाँ गुज़रता, वो उन्हें अपनी माला के दाने गिनता हुआ पाता”.

कोतवाल ने क्रूरता की सभी हदें पार कीं

9 जून, 1716 को बंदा और उनके कुछ साथियों को क़ुतब मीनार के पास महरौली में बहादुर शाह की क़ब्र ले जाया गया. वहाँ उनको उनके सामने सिर झुकाने के लिए कहा गया. बंदा के चार साल के बेटे अजय सिंह को उनके सामने लाकर बैठाया गया. हरीश ढिल्लों लिखते हैं – “कोतवाल सरबराह ख़ाँ के इशारे पर अजय सिंह के तलवार से टुकड़े कर दिए गए. बंदा बिना हिले-डुले बैठे रहे. अजय सिंह के दिल को उसके शरीर से निकाल कर बंदा बहादुर के मुँह में ठूँस दिया गया. इसके बाद जल्लाद ने अपना ध्यान बंदा की तरफ़ केंद्रित किया. उनके शरीर के भी टुकड़े किए गए और उनको जितना संभव हो सका जीवित रखा गया. आख़िर में जल्लाद ने तलवार के एक वार से उनके सिर को उनके धड़ से अलग कर दिया”.

बंदा सिंह बहादुर की मौत के दो साल बाद सईद भाइयों ने मराठों की मदद से फ़र्रुख़सियर को न सिर्फ़ गद्दी से हटाया, बल्कि गिरफ़्तार कर उसकी आँखें फोड़ दीं.

इसके बाद मुग़ल साम्राज्य का भी विघटन होता चला गया और आखिर में स्थिति यहाँ तक पहुंची कि दिल्ली का बादशाह अंग्रेज़ों के हाथों की कठपुतली बन कर दिल्ली के लाल किले से क़ुतुबमीनार तक ही सिमटा रह गया. काबुल, श्रीनगर और लाहौर पर महाराजा रणजीत सिंह का आधिपत्य हो गया और दक्षिण भारत से लेकर पानीपत तक का विशाल भूभाग मराठों के हाथ चला गया.

रवींद्रनाथ टैगोर ने बंदा बहादुर के सम्मान में एक कविता लिखी ‘बंदी बीर’…..

पंच नदीर तीरे वेणी पाकाई शीरे

देखिते देखिते गुरूर मंत्रे जागिया उठीचे सिख

निर्मम निर्भीक…..

सुखदेव वशिष्ठ

(लेखक विद्या भारती पंजाब प्रांत के संपर्क प्रमुख है.)

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