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जनजाति मीणा समाज की आस्था का मुख्य केन्द्र मीन भगवान मंदिर

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जयपुर. जनजाति मीणा समाज की उत्पत्ति भगवान विष्णु के मत्स्यावतार से मानी गई है. यह भगवान विष्णु का दसवां अवतार है जो मीन भगवान के नाम से प्रसिद्ध है. मीन भगवान मीणा जाति के आराध्य देव माने जाते हैं. जिनका देश में पहला मंदिर दौसा जिले में मेहंदीपुर बालाजी के पास मीणा सीमला गांव में स्थित है. जनजाति समाज का गौरव यह मंदिर पूर्वी राजस्थान में मीणा समाज की आस्था का प्रमुख केन्द्र है.

समाज के लोगों में मान्यता है कि मीणा जाति की उत्पत्ति भगवान विष्णु के दसवें मत्स्यावतार से हुई थी. मीणा जनजाति के गुरू मगन सागर ने मीणा जाति के मीन पुराण की रचना की थी. इसमें प्रयुक्त मेनी शब्द से मीणा समाज का नामकरण हुआ. मीणा पौराणिक कथाएं भी मत्स्य अवतार या भगवान विष्णु के दसवें अवतार से उनकी उत्पत्ति की बात कहती हैं. हिन्दू पंचांग के अनुसार, मीणा समाज के लोग चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया पर भगवान विष्णु के नाम पर मीनेष जयंती मनाते हैं. उनका यह विश्वास मुख्य रूप से मत्स्य पुराण के ग्रंथ पर आधारित है.

कई जिलों के श्रद्धालु पहुंचते हैं यहां

मीणा सीमला गांव स्थित इस मंदिर में मीन भगवान की प्राण-प्रतिष्ठा दो दशक पूर्व सम्पन्न हुई थी. इसके बाद से ही यह मंदिर जनजाति अर्थात मीणा समाज की आस्था का मुख्य केन्द्र बन गया. यहां दर्शनों के लिए दौसा, करौली, सवाईमाधोपुर, जयपुर, अलवर, भरतपुर व धौलपुर जिलों के निवासी मीणा समाज के लोगों का वर्षभर तांता लगा रहता है.

मंदिर में वर्ष में एक बार तीन दिवसीय मेला व दंगल आयोजित किया जाता है. मेले में दूर-दराज के गांवों से जनजाति समाज के लोग खरीदारी के लिए पहुंचते हैं. वहीं दंगल कार्यक्रम में विभिन्न लोकगीत की मंडलियां पौराणिक कथाओं पर आधारित धार्मिक रचनाओं की प्रस्तुति देकर लोगों को श्रवण कराती हैं. इसके साथ ही मेले के अंतिम दिन कई गांवों की आने वाली पद यात्राओं का मंदिर में जनसमूह उमड़ता है. जहां मीणा समाज के लोग मत्स्यावतार भगवान विष्णु की प्रतिमा के दर्शन कर परिक्रमा करते हुए आराधना करते हैं.

इन जिलों में भी हैं मीन मंदिर

इसके साथ ही दौसा जिला मुख्यालय, महुवा के समलेटी गांव व सवाईमाधोपुर, अलवर व करौली जिलों में भी मीन भगवान कई बड़े मंदिर हैं. जहां जनजाति मीणा समाज के लोग आस्था और श्रद्धाभाव के साथ मतस्य अवतार भगवान श्रीहरि विष्णु की पूजा अर्चना करते हैं. इन मंदिरों में आसपास के गांवों से प्रतिवर्ष पदयात्राओं के रूप में समाज के लोग पहुंचकर ढोक लगाकर मनोकामना करते हैं.

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