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देश-धर्म के लिए गुरु पुत्रों का बलिदान प्रेरणादायक

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भारत में देश, धर्म और संस्कृति के लिए समर्पण एवं बलिदान की एक गौरवपूर्ण परंपरा रही है जो संपूर्ण विश्व में कहीं ओर दिखाई नहीं देती. सभी जाति, वर्ग, महिला, पुरूष, वृद्ध के साथ-साथ बच्चे भी बलिदान देने में पीछे नहीं रहे. देश का दुर्भाग्य रहा कि उनके बलिदान को उचित सम्मान नहीं मिला. आज प्रचार एवं संचार के साधनों ने प्रगति की है, उनके माध्यम से समाज में उनके जीवन को ले जाने की अवश्यकता है.

सिक्ख परंपरा में धर्म के लिए समर्पण और त्याग करने का अद्भुत इतिहास रहा है. मुस्लिम आक्रांताओं से धर्म की रक्षा के लिए गुरू तेगबहादुर सिंह, गुरू गोविंद सिंह एवं उनके नौनिहालों का बलिदान युगों-युगों तक युवाओं और समाज को प्रेरणा देता रहेगा.

मुगल शासक औरंगजेब ने हिन्दुओं पर अनेक अत्याचार किए. मंदिर तोड़कर मस्जिद खड़ी करना, हिन्दुओं का शस्त्र रखना, घोड़े पर बैठना प्रतिबंधित कर दिया था, जजिया जैसे कर लगाना एवं मार मार कर हिन्दुओं को मुस्लिम बनाना, उस समय आम बात हो गई थी. औरंगजेब हिन्दू संस्कृति एवं धर्म को जड़मूल से नष्ट कर संपूर्ण भारत का इस्लामीकरण करना चाहता था. मुगलों के इन आत्याचारों का विरोध करना जो सबके लिए प्रेरणा बने और धर्म के लिए बलिदान देने वालो में उत्साह भरने के लिए दशम गुरू गुरू गोविंद सिंह ने कार्य किया. उन्होंने 1699 में आनंदपुर में एक सभा आयोजित कर खालसा पंथ की स्थापना कर पांच ‘क’ जिसमें कंघा, कड़ा, कृपाण, केश, कच्छा रखना प्रारंभ किया. औरंगजेब ने इससे बौखलाकर सरहिंद के नवाब वजीर खान को 1704 में गुरूगोविंद सिंह जी पर दबाव बढ़ाने के लिए आनंदपुर किले पर आक्रमण कर किले को चारों ओर से घेर लिया, परंतु मुगल सेना किले पर विजय पाने में असफल रही. सिक्ख सेना ने सात मास तक मुगल सेना को आनंदपुर में घुसने नहीं दिया. निराश होकर औरंगजेब ने गुरूगोविंद सिंह जी को संदेश भेजा कि गुरूगोविंद जी आनंदपुर किला छोड़कर चले जाते हैं तो उनसे युद्ध नहीं किया जाएगा. गुरूगोविंद सिंह जी को औरंगजेब पर विश्वास नहीं था, फिर भी अपने सिक्ख साथियों से सलाह कर वह घोड़े पर सवार होकर कुछ सिक्ख सैनिकों के साथ 20 दिसंबर, 1704 की रात किला खाली कर बाहर निकल गए. जब मुगलों को इस बात का पता चला तो गुरूगोविंद सिंह पर हमला कर दिया. लड़ते-लड़ते सिक्ख सैनिक सहित गुरूजी सिरसा नदी पार कर चमकौर की गढ़ी में पहुंचे. चमकौर की गढ़ी के बाहर गुरूजी के साहिबज़ादों ने मोर्चा संभाला. सिक्ख सैनिक बहुत कम थे, पर गुरूजी ने पांच पांच का जत्था बनाकर युद्ध में भेजा जिन्होंने मुगल सेना का डटकर मुकाबला किया और मुगल सेना के हजारों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. इस युद्ध में गुरूगोविंद सिंह के साहिबज़ादे भी युद्ध के लिए गए और वीरता के साथ लड़े, 18 वर्षीय अजीत सिंह एवं 15 वर्षीय जुझारसिंह वीरगति को प्राप्त हुए.

आनंदपुर छोड़ते समय गुरूगोविंद सिंह जी का परिवार दो हिस्सो में बंट गया था. गुरूजी के दोनों छोटे पुत्र जोरावर सिंह एवं फतेह सिंह अपनी दादी के साथ आगे बढ़े थे. वे एक नगर में कम्मो नामक पानी ढोने वाले गरीब मजदूर के यहां रूके, जिसने गुरू पुत्रों एवं माता गुजरी की प्रेमपूर्वक सेवा की. इन सब के साथ गंगू नामक एक रसोईया भी था जो 22 वर्षों से गुरूगोविंद सिंह के रसोईये का कार्य कर रहा था. उसने माता जी की सोने की मोहरों वाली गठरी चुरा ली, धन के लालच में उसने गुरू माता व गुरू पुत्रों के साथ विश्वासघात कर मुगल सैनिकों को इसकी सूचना दे दी. मुगल सैनिकों ने गुरू पुत्रों एवं गुरू माता को पकड़कर उन्हें कारावास में डाल दिया. कारावास में रातभर गुरू माता बालकों को सिक्ख गुरूओं के त्याग और बलिदान की कथाएँ सुनाती रही. दोनों गुरू पुत्रों ने दादी को आश्वासन दिया कि वह किसी भी कीमत पर अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे और अपने पिता के नाम को ऊंचा करेंगे.

प्रातः सैनिक गुरू पुत्रों को लेने आये तो वह निर्भीक बालक तुरंत खड़े हो गए और दोनों ने दादी के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया. दोनों बालक मस्तक ऊंचा किए, सीना तानकर सैनिकों के साथ चल पड़े.

गुरू गोविंद के बच्चे, उमर में थे अभी कच्चे,

मगर थे सिंह के बच्चे, धरम ईमान के सच्चे,

गरज कर बोल उठे थे यूं, सिंह मुख खोल उठते थे यूं,

हमारे देश की जय हो, हमारे धर्म की जय हो,

पिता दशमेश की जय हो, श्री गुरुग्रंथ की जय हो.

बालक जब नगर से निकले तो शरीर पर केसरी वस्त्र, पगड़ी तथा कृपाण धारण किए अति सुन्दर दिखाई दे रहे थे. लोग बालकों की कोमलता एवं साहस को देखकर उनकी प्रशंसा कर रहे थे. गंगू आगे आगे चल रहा था, जिसे देखकर लोग एवं महिलाएं अपने घरों से निकलकर उलाहना दे रहे थे. बालकों के चेहरे पर विशेष प्रकार का तेज था जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था. दोनों बालक वजीरखान के दरबार में निर्भिकता से पहुँचे और एक जोरदार जयघोष किया, “जो बोले सो निहाल, सतश्री अकाल”, “वाहे गुरू जी दा खालसा, वाहे गुरूजी दी फतेह”. दरबार में इन बालकों ने सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया था, नन्हा वीर वेश, सुन्दर चमकता चेहरा देखकर वजीरखान ने चतुरता से कहा, “बच्चों तुम बहुत सुन्दर दिखाई दे रहे हो. हम तुम्हें बच्चों जैसा रखना चाहते हैं, पर हमारी एक शर्त है तुम इस्लाम धर्म कबूल कर लो, बोलो तुम हमारी शर्त मंजूर करते हो”.

दोनों बालकों ने गरज कर कहा – हमको हमारा धर्म प्राणों से भी प्यारा है. हम अपना धर्म किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे. नवाब ने कई प्रकार के लालच देकर उनको समझाने का प्रयास किया, पर बालक अपनी बात पर अड़े रहे और निर्भीकता से कहा, “हम गुरूगोविंद सिंह की संतान हैं, हमारे दादा गुरू तेगबहादुर धर्म रक्षार्थ बलिदान हुए, हम भी उन्हीं के वंशज हैं, हम अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे”.

उसी समय दीवान सुच्चानंद उठा और बालकों से कहा, “अगर हम तुम्हें मुक्त कर दें तो तुम क्या करोगे?” जोरावर सिंह ने कहा, “हम सैनिक एकत्रित कर मुगलों के आत्याचार के खिलाफ युद्ध करेंगे”. दरबार में उपस्थित व्यक्ति बालकों के साहसिक उत्तर सुनकर उनकी प्रशंसा करने लगे. दूसरी ओर बालक का साहसिक उत्तर सुनकर वजीरखान बोखला गया और कहा, “इन शैतानों को तुरंत दीवार में चिनवा दिया जाए”.

अंत 26 दिसंबर को दिल्ली के सरकारी जल्लाद दरबार में उपस्थित थे, उन वीर बालकों को उनके हवाले कर दिया गया. बच्चों को बीच में खड़ाकर कारीगर दीवार चुनने लगे, पास में काजी खड़ा था. जिसने फिर एक बार वीर बालकों को इस्लाम कबूल करने को कहा. बालकों ने फिर साहसपूर्वक कहा, “हम इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करेंगे, संसार की कोई भी शक्ति हमको हमारे धर्म से डिगा नहीं सकती”.

नगरवासी चारों ओर से एकत्रित होकर इन वीर बालकों के साहस को निहार रहे थे. दीवार धीरे-धीरे ऊंची होती जा रही थी. दीवार जब बालकों के कान तक पहुंची तो बड़े भाई जोरावर सिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेह सिंह को देखा और उनकी आंखे भर आईं. फतेह सिंह ने भाई की आंखों में आंसू देखे तो वह विचलित हो उठा और कहा, “क्यों वीरजी आपकी आंखों में आंसू, आप क्या मौत से डर रहे हैं. जोरावर सिंह के हृदय में यह वाक्य तीर की तरह चुभा, फिर उन्होंने खिलखिलाकर हंसते हुए कहा, “फतेह सिंह तू बहुत भोला है. मौत से मैं नहीं, मौत मुझसे डरती है, इसी कारण वह पहले तेरी ओर बढ़ रही है. मुझे इस बात का दुख है कि तू मेरे बाद संसार में आया और मुझसे पहले बलिदान होने का अवसर तुझे मिल रहा है. भाई मैं तो अपनी हार पर पछता रहा हूं. जोरावर सिंह के वचन सुनकर फतेह सिंह का चेहरा चमकने लगा. सूर्य को अस्त होता देख मिस्त्री जल्दी जल्दी हाथ चलाने लगा और दोनों बालक आंख मूंदकर अपने आराध्य का स्मरण करने लगे. अंत में दीवार ने उन महान बालकों को अपने भीतर समाहित कर लिया.

जहां यह गुरू के साहिबज़ादे बलिदान हुए वहां एक बड़ा गुरूद्वारा बना है. छोटे साहिबज़ादे फतेह सिंह के नाम पर उस स्थान का नाम फतेहगढ़ साहिब रखा गया. जहां प्रतिवर्ष 25 से 27 दिसंबर तक साहिबज़ादों की याद में शहीदी जोड़ मैला आयोजित होता है. जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुँचते हैं और वीर बलिदानियों को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं.

मैथिलीशरण गुप्त जी उनके बलिदान पर लिखा है –

जिस कुल, जाति, देश के बच्चे भी दे सकते हैं बलिदान,

उसका वर्तमान कुछ भी हो पर भविष्य सदा महान है.

जिनका जीवन राष्ट्रीयता के बोध के साथ इतिहास, राष्ट्र भाव और प्रेरणा देने वाला रहा है, ऐसे वीर बलिदानी बालक हमारी आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करते रहेंगे. बाल मन पर पड़े संस्कार अमिट होते हैं, ऐसे वीर बालक अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह का बलिदान एवं जीवन सभी के सामने आना चाहिए. यह उनके प्रति भारत देश की कृतज्ञता होगी और आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन.

निखिलेश महेश्वरी

(लेखक विद्या भारती मध्य भारत प्रान्त के संगठन मंत्री है.)

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