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“लोकल के लिए वोकल” का नारा साधन और संबल का पर्याय

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रवि प्रकाश

कोरोना संक्रमण की वज़ह से दुनिया बदल रही है. यह बदलाव हममें से किसे, किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देगा, हम में से किसी को नहीं पता. लॉकडाउन खत्‍म होने के कगार पर है. हम संभावनाओं और आशंकाओं के बीच नए भारत में प्रवेश करने की दिशा में अग्रसर हैं. कुछ यथास्थिति में रहेंगे तो कुछ बदली हुई परिस्थिति से परेशान होकर कुछ नया सोचने और करने के लिए बाध्‍य होंगे. लेकिन समस्त विवादों के बीच जो निर्विवाद चीज है, वह है कोविड-19 की वास्तविकता.

यह वास्तविकता हमारे सामने अनेक प्रश्न उत्पन्न करती है. प्रश्न, जो जुड़े हैं शिक्षा से, चिकित्सा से, नौकरी और रोजगार से, भोजन और जीवनाधार से. इन प्रश्नों के उत्तर की खोज में आज पूरा विश्व लगा हुआ है. उत्तर मिलेगा कोविड-19 के प्रतिरोधक टीके में. फिलहाल, इस अकल्पनीय-अप्रत्याशित-अभूतपूर्व आपातकाल में क्या बच्चे, क्या बड़े, क्या बुजुर्ग सभी लम्बे समय से घर में बंद हैं. लॉकडाउन में क्रमिक खुलेपन के बाद भी जीवन सामान्य नहीं हो रहा. जीवन की वह पहले वाली मस्ती नहीं रही. वह मंडलियों का जमना, वह बच्चों का खेलना-कूदना, वह झुण्ड में गलियों-पार्कों में टहलना, सब बंद पड़ा है.

लॉकडाउन के आरंभिक सप्ताहों में सामान्य जीवन को संभालना सरल था. फिर लॉकडाउन का दूसरा, फिर तीसरा और चौथा चरण आया. बीतते समय के साथ लोगों की जेब सिमटती गयी. संगठित क्षेत्र के सरकारी, अर्द्ध-सरकारी विभागों और संस्थानों और निजी क्षेत्र की बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करने वालों की मासिक आय सुरक्षित थी. लेकिन असंगठित क्षेत्र के लोगों के सामने धीरे-धीरे आर्थिक संकट गहराने लगा.

हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या नौकरी और रोजगार की है. क्योंकि यही वह आधार है जो समाज को शिक्षा, चिकित्सा आदि जैसी आवश्यकताओं के लिए तैयार करता है. लम्बे समय तक लॉकडाउन रहने के कारण अनेक छोटे-छोटे काम-धंधे जो बंद रहे, वे फिर खड़ा होने का प्रयास कर रहे हैं. श्रमिक अपने-अपने कार्यस्थल से प्रस्थान कर गए. खेतों से लेकर कारखानों तक, स्कूलों से लेकर सेवा संस्थानों तक एक नयी तरह का संकट खड़ा हुआ है. हम कह सकते हैं कि यह स्थिति स्थायी नहीं होगी और सामान्य परिस्थिति आते ही फिर लोग अपने-अपने स्थान पर आ जाएंगे. परन्तु इसके साथ ही, कुछ प्रतिशत वर्ग ज़रूर ऐसा होगा जो अब अपने गाँव में ही रहना चाहेगा. यह स्वाभाविक भी है. ऐसे में राज्यों को कुछ काम करने होंगे. वहां अपने गांव लौट कर आए मजदूरों का फिर एक बार पुनर्वास कैसे हो, रोजगार वहीं पर कैसे उपलब्ध हो, उसके चिंतन का विषय होना चाहिए. अनेक राज्यों में यह काम हुआ भी है. कौशल विकास की योजनाओं को हम जितना अच्छा बना सकेंगे, उतना ही अच्छे ढंग से मजदूर अपने क्षेत्र में ही इस पराक्रम से कौशल पा सकेंगे कि उन्हें बाहर जाने की आवश्यकता नहीं रहेगी.

विभिन्न सरकारों ने भारत की तासीर और ताकत को समझने की कोशिश नहीं की. कहीं-कहीं औद्योगिक और कृषिक गतिविधियों के केंद्र बन गए, कहीं-कहीं संपत्ति और संपदा का सकेन्द्रण हो गया, तो कहीं-कहीं स्थिति यथावत रह गयी या जैसे थी, उससे और भी बुरी स्थिति हो गयी. आज कोरोना के संकट के बीच हमारे सामने जो आजीविका का संकट दिख रहा है, उसका एक प्रमुख कारण यह असमान विकास भी है.

अभी के संकट काल में कोई मानक प्रकल्प की बात थोड़ी मुश्किल होगी. इसलिए अलग-अलग स्थानों का सर्वेक्षण करते हुए इसे करने की ज़रुरत है. अब जबकि लॉकडाउन समाप्‍त हो गया है, बंद पड़े उद्योगों को चलाना पड़ेगा तो वहां तत्काल श्रमिक नहीं मिलेंगे, ऐसा नहीं है. बिहार से, मध्य प्रदेश से, उत्तर प्रदेश से अनेक लोग काम पर लौटना चाहते हैं. इसमें उद्योगों को भी कुछ पहल करनी होगी. जैसे कि श्रमिकों को लाने के लिए अगर आरामदेह और किफायती साधन मुहैया करवा सकें, श्रमिकों को स्वास्थ्य संबंधी समस्या होने पर उचित उपचार का भरोसा मिल जाए, तो उनके काम पर लौटने की गति और भी तेज हो जाएगी. फिर हमें उद्योगों के विकेंद्रीकरण पर भी नए सिरे से ध्यान देने की ज़रुरत है. जहां अधिक उद्योग-धंधे हैं, वहीं ज्यादा श्रमिक आते हैं. अभी जैसी समस्या आगे नहीं हो, इसके लिए उद्योगों का विकेंद्रीकरण और आर्थिक गतिविधियों के नए-नए केंद्र पैदा करने से बड़ा लाभ मिलेगा. फिर जो स्व-रोजगार में लगे लोग हैं, रेहडी वाले, पटरी वाले, रिक्शा चलाने वाले, उनके जीवन में भारी संकट आया है. केंद्र सरकार ने और उसकी प्रेरणा से विभिन्न राज्य सरकारों ने इस दिशा में पहल की है.

आर्थिक-औद्योगिक मामले में प्रधानमंत्री का “लोकल के लिए वोकल” का नारा नवाचारी ही नहीं, बल्कि एक ऐसा साधन और संबल का पर्याय है, जिसे अगर इस देश ने आत्मसात कर लिया तो वह दिन दूर नहीं जब प्राकृतिक और मानव संसाधनों से भरपूर यह शस्य-श्यामला भारत भूमि आज के अनेक विकसित देशों से आगे निकल जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इस नारे को चरितार्थ करने का काम हम खेतों से भी शुरू कर सकते हैं. लोकल स्तर सभी अनाज, दलहन, तिलहन, सब्जियां, प्याज, आलू आदि की पैदावार होने लगे तो जिंसों का अभाव, कीमतों का असंतुलन, आदि जैसी अनेक समस्याओं का अंत हो सकता है. लोकल उत्पादकों को इसका फायदा होगा, उनकी समृद्धि बढ़ेगी.

हम देखें तो अनेक छोटे-छोटे काम है. उदाहरण के लिए बेकरी उत्पादों की कहीं जितनी ज़रुरत है, वह वहीं पर पूरी होगी. बाहर से लाने की ज़रुरत नहीं. ऐसे और भी अनेक उदाहरण मिल सकते हैं. इस विषय पर एक बृहद् सर्वेक्षण और अध्ययन करके लोगों की सामान्य चीजों की आवश्यकता वहीं से और वहीं पर पूरी करने की व्यवस्था करनी है. विभिन्न राज्यों में, विशेषकर बिहार में अनेक चीनी मिलें बंद पड़ी हैं. कृषि उत्पादों से जुड़े मंझोले आकार के उद्योगों को चालू कर दिया जाए तो रोजगार की बाढ़-सी आ जाएगी और लोगों का जो आत्मविश्वास बढ़ेगा, वह राष्ट्र का सामूहिक आत्मविश्वास का रूप ग्रहण कर लेगा. यह काम बृहद् उद्योग के स्तर पर कुछ केन्द्रों में हो और फिर उसके बाद काम-धंधों का जाल पूरे देश में बिछे. इसके साथ ही राज्य की आवश्यकता राज्य में पूरी हो, फिर जिले की, फिर गाँवों की. इस प्रकार सूक्ष्म, लघु, मंझोले और बृहद उद्योगों का स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक एक नेटवर्क तैयार करना समय की मांग है. इसमें स्वदेशी का भाव समाहित करने की प्रक्रिया तेज करनी चाहिए. यह सब हो गया तो फिर गुणवत्ता और ब्रांड के ठप्पे का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता है. देश की आत्मनिर्भरता का भाव इतनी शक्ति ज़रूर पैदा कर देगा कि गुणवत्ता स्वतः बढ़ती जाएगी.

इसी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पक्ष है चिकित्सा व्यवस्था का. कोरोना के संकट ने हमें यह अनुभव दिया है कि किसी आपदा की स्थिति में हमारी जनसंख्या को देखते हुए हमारी ज़रूरतें कैसी हो सकतीं हैं. जिस विशाल पैमाने पर तात्कालिक अस्पतालों की व्यवस्था हुई है, जिस प्रकार कोरोना से लड़ने का महासंग्राम छेड़ा गया है, वह अभूतपूर्व तो है ही, अद्भुत और आश्चर्यजनक भी है. तथापि चिकित्सा में भारी विषमता अभी भी विद्यमान है. लोकल के लिए लोग वोकल हों, और लोकल स्तर पर उत्पादन का जाल फैले, और लोग अपनी-अपनी जगह पर अपनी आवश्यकता की चीजें पा सकें, इसके लिए लोगों में हमारी चिकित्सा व्यवस्था के प्रति विश्वास और भरोसा होना अत्यंत आवश्यक है. देश के विभिन्न हिस्सों में परिचित जनों से बात होती है तो अनेक राज्यों में अनेक जगहों पर आज भी लोग इस बात से चिंतित रहते हैं कि कोई गंभीर समस्या हुयी तो उन्हें तत्काल समुचित चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाएगी. यह डर अक्सर लोगों को साधन-संपन्न स्थानों का रुख करने को प्रेरित करता है.

कोविड-19 का तूफ़ान थमने के बाद भी, जैसा कि विशेषज्ञ बता रहे हैं, इसका प्रकोप बना रहेगा, भले ही इसकी घातक क्षमता कम हो जाए और इसके शमन की सही औषधियों का निर्माण हो जाए. तथापि, कोविड-19 के अलावा भी गंभीर रोगों का खतरा हमेशा बना रहेगा. हृदयरोग, किडनी की बढ़ती समस्या, कैंसर, प्रदूषण जनित श्वसन रोग, मानसिक अवसाद की घटनाएं बढ़ रही हैं. बड़े-बड़े शहरों में चिकित्सा सुविधा के केंद्रीभूत होने के कारण वे मरीजों का बोझ नहीं संभाल पाते हैं और अनेक रोगियों को विशिष्ट उपचारों और शल्य चिकित्सा के लिए लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ती है. सो, चिकित्सा व्यवस्था का विकेंद्रीकरण भी आवश्यक है. चिकित्सा से सम्बंधित अनेक उपकरण और सुविधाए ऐसी हैं, जिन्हें प्रखंड स्तर पर अवश्य ही उपलब्ध होना चाहिए. कोरोना के संकट ने हमारे सामने यह प्रमाण प्रस्तुत किया है कि देश की विशाल बहुमत जनता आज भी सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था के सहारे है और उसी पर भरोसा भी करती है. जितने बड़े पैमाने पर सरकारी डॉक्टरों ने समस्त जोखिम उठाते हुए इस संकट में देश का साथ दिया है, वह अपने-आप में अद्भुत है. प्रधानमन्त्री द्वारा इन योद्धाओं के प्रति राष्ट्रीय सम्मान प्रदर्शन का आह्वान उचित ही था. किन्तु यह काम अकेले केंद्र के हाथ का नहीं है. चिकित्सा तंत्र राज्य की विषय वस्तु होने के कारण इसमें राज्यों की सहभागिता और व्यवस्थाओं में एकरूपता का होना भी आवश्यक होगा.

लेखक भारत विकास परिषद के पश्चिमी क्षेत्र के रीजनल सेक्रेटरी (सेवा) हैं.

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