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अराजकता फैलाने का माध्यम बना तथाकथित किसान आंदोलन

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प्रधानमंत्री ने गुरुनानक जयंती के दिन राष्ट्र के नाम संदेश में अप्रत्याशित निर्णय की घोषणा की. उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा संसद में पारित तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के निर्णय की जानकारी दी.

सरकार और किसान संगठनों के बीच वार्ता का लंबा दौर चला, किसान संगठन किसी भी हाल में इन कानूनों को वापस लिए बिना अपना आंदोलन समाप्त करने को तैयार नहीं थे. दूसरी तरफ सरकार संसद में पारित कृषि कानूनों को किसानों के हित में बताते हुए वापस नहीं लेने की बात कह रही थी.

और अब अगर सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया तो सरकार को निर्णय लेने में इतना समय क्यों लगा?

राजनीतिक विश्लेषक निर्णय के पीछे मुख्य कारण पांच राज्यों के विस चुनाव को मान रहे हैं, लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है. इस निर्णय के एक दिन पहले महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता शरद पवार ने बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने महाराष्ट्र के बड़े शहरों में पांव पसार रहे शहरी नक्सलियों के खिलाफ सरकार से बड़ी कार्रवाई करने की मांग की. उन्होंने कहा कि समय रहते अगर शहरी नक्सलियों की गतिविधियों पर कार्रवाई नहीं की गई तो यह देश के लिए घातक होगा.

याद करें कि किसान आंदोलन जब शुरु हुआ था, तो भारत के बाहर कनाडा और यूरोप में बसे खालिस्तान समर्थक संगठन और नेताओं ने कृषि कानूनों का विरोध किया था. बार-बार यह खबर आती थी कि पाकिस्तान की शह पर खालिस्तान समर्थक किसान आंदोलन से जुड़ रहे हैं.

शरद पवार के बयान के मद्देनजर देखें तो पिछले एक दशक से माओवादी अपने शहरी नेटवर्क को मजबूत करने की कोशिश में लगे हैं. किसानों की आत्महत्या को प्रमुख मुद्दा बनाकर देश और दुनिया में किसानों की बदहाल स्थिति का एक माहौल बनाया. बार-बार मुंबई तक किसानों की पैदल यात्राएं निकालीं.

यह सब केवल किसानों की समस्या को सुलझाने की ईमानदारी कोशिश के रुप में नहीं हो रहा था. दरअसल, 2004 में जब नक्सलवादी दो प्रमुख संगठनों एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप ने एक होकर माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया तो शहरी नक्सली का एक एजेंडा सामने आया.

माओवाद भारत में सशस्त्र क्रांति के जरिए अपनी सत्ता स्थापित करने की कोशिश में लगा है. इसका प्रमुख हथियार शहरों में बौद्धिक और सामाजिक संगठन के जरिए जनता में सरकार के प्रति अविश्वास और असंतोष पैदा कर अराजक स्थिति पैदा करना है.

2014 में जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी, इसके बाद से माओवादियों का शहरी नेटवर्क सक्रिय हो गया. शरद पवार का बयान चौंकाने वाला नहीं था. माओवादी दस्तावेज के अनुसार जंगलों में हथियार लेकर पुलिस और सरकारी अमले को निशाने बना रहे माओवादी संगठन ने भारत के औद्योगिक क्षेत्रों में शहरी नक्सलियों का नेटवर्क खड़ा करने की पूरी कार्ययोजना बनाई है.

शरद पवार के बयान को गंभीरता से देखें तो शहरी नक्सली नेटवर्क मुंबई, पूना में मजबूत हो रहा है. शहरी नक्सलियों का केंद्र अहमदाबाद-पुणे के बीच पांच प्रमुख औद्योगिक केंद्रों को माना गया है.

कुछ वर्ष पूर्व भीमा कोरेगांव में अनुसूचित जाति वर्ग को बरगलाकर समाज में अशांति पैदा करने और हिंसा करने की कोशिश की गई थी.

2019 में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध स्वरुप जो गतिविधियां चलीं, उसमें भी शहरी माओवादियों की भूमिका रही.

शहरी नक्सली का प्रयास हरियाणा, गाजियाबाद से लेकर पंजाब के प्रमुख शहरों तक बड़े केंद्र बनाना है. नागरिकता कानून के बहाने सक्रिय हुए अराजक तत्वों ने किसान आंदोलन के बीच घुसकर हिंसा फैलाने की भरपूर कोशिश की.

जैसे 26 जनवरी के दिन ट्रैक्टर रैली निकालने की योजना इस तरह की बनी कि स्थिति बेकाबू हो जाए और पुलिस को गोलियां चलानी पड़ें. समय-समय पर नेताओं के काफिले पर हमला करना हो, मुख्यमंत्री के हेलीकाप्टर के उतरने की जगह पर हंगामा करना हो या लखमीपुरी खिरी की घटना हो.

हर प्रकार से आंदोलन को हिंसक कर किसानों को सरकार के विरुद्ध खड़ा करने के प्रयास हो रहे थे. स्थिति को भांपते हुए केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है. आगे कार्रवाई जारी रहेगी.

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