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गढ़ा गया इतिहास अब न छुपने पाएगा

योगेश

करनाल 1857 के विद्रोह के समय पानीपत जिले का ही अंग था. देश के मुख्य मार्ग जीटी रोड या जरनैली सड़क पर स्थित होने के नाते अंग्रेजी राज के लिए इसका रणनीतिक महत्व था. जिले के दूसरे कस्बे जींद और पटियाला की रियासतों के संरक्षण में थे और जिले के नगरों पर सेनाओं का पूरा दबाव था. वहां विद्रोह उभर पाना संभव नहीं दिख पड़ता था. फिर नगरों व जरनैली सड़क को सुरक्षित बनाए रखने के लिए उन्होंने पटियाला, जींद, करनाल और कुंजपुरा के शासकों से फौजी सहायता मंगवा ली थी. पटियाला का महाराजा 1500 सैनिक और 4 तोपें लेकर अंग्रेजों की मदद की खातिर खुद हाजिर हुआ. उधर, पंजाब में भी फिल्लोर और जालंधर में सेना की बगावत हो गई थी. यह जून के दूसरे हफ्ते की बात है. पानीपत के डिप्टी कमिश्नर को 8 जून को पता चला कि जालंधर के बागियों की संख्या बहुत बड़ी है. वे अम्बाला या पटियाला की तरफ से होकर थानेसर की तरफ आ सकते हैं. पटियाला के राजा ने डर के मारे थानेसर से अपनी सेना वापिस बुला ली. वह पटियाला की हिफाजत के लिए बड़ा आतुर था, परन्तु जालंधर के विद्रोही उधर नहीं आए. वे अम्बाला, गढ़ी कोताहा होते हुए दिल्ली की तरफ कूच कर गए. चारों तरफ माहौल गर्म हो चला था. पानीपत में गांव के लोगों में देशभक्ति उमड़ रही थी. अनेक बड़े – बड़े गांव विद्रोह के केंद्र बन गए. इनमें बल्ला, जलमाणा, असंध, छात्तर, उरलाना खुर्द आदि प्रमुख थे. अनेक गांवों ने अंग्रेजों से डटकर टक्कर ली और कर देने से मना कर दिया. कप्तान मैकैन्ड्रस एक अंग्रेज अफसर ने लिखा है, ‘मैंने प्रदेश को पूर्णत: असंगठित पाया है. कर संग्रह करने वाले और पुलिस यहां  से भागने की स्थिति में है. बहुत से बड़े जमींदार और गांव प्रतिक्रिया की मुद्रा में हैं.’

इलाके में बगावत को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने 13 जुलाई को बल्ला गांव पर हमला कर दिया. अंग्रेजी फौज कप्तान ह्यूज के नेतृत्व में आगे बढ़ी. प्रथम पंजाब घुड़सवार सेना की भी एक टुकड़ी बल्ला पहुंची. यह गांव करनाल नगर के दक्षिण में 25 मील दूरी पर स्थित है. यहां सैकड़ों लोगों ने रामलाल के नेतृत्व में इकट्ठे होकर अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे कर दिए. ह्यूज को भागना पड़ा. अंग्रेज जाकर जंगल में छिप गए. उसी रात इलाके के रांघड़ों ने उन पर धावा बोल दिया. अंग्रेजी फौज के पैर उखड़ ही गए होते कि करनाल के नवाब व पटियाला तथा जीन्द के राजाओं ने मौके पर सेना और तोपों की कुमक भेज दी. अंग्रेजी सेना ने फिर बल्ला गांव पर हमला किया. जनसैनिक एक बड़े मकान में मोर्चा बनाकर लड़ते रहे. यह ऐसा मजबूत मोर्चा था, जिसे तोपों की मदद के बिना फतेह नहीं किया जा सकता था. अंग्रेजों ने तोपें लगाई. भवन के कुछ हिस्से टूट गए. बागी सैनिक खुले मैदान में आ डटे. गैर-बराबरी का घमासान युद्ध हुआ. सौ के करीब क्रान्तिकारी मारे गए. अंग्रेजी सेना का भी काफी नुकसान हुआ. उनके बहुत से घोड़े मारे गए. बड़ी सेना और गोला बारूद की ताकत के बल पर आखिर अंग्रेज बल्ला गांव को जीतने में कामयाब हो गए. गांव के लोगों पर भारी जुर्माना थोप दिया गया. उनसे जबरदस्ती कर वसूल किया गया, परन्तु क्रान्तिकारियों ने हार नहीं मानी. उन्होंने नई रणनीति अपनाई. वे जलमाणा गांव में जाकर इकट्ठे हो गए. अंग्रेजों ने लेफ्टिनेंट पियर्सन को विद्रोहियों को दबाने के लिए भेजा. वह सतलुज से उस पार के इलाके का कमिश्नर था. क्रान्तिकारियों से लड़ाई में उसे मुंह की खानी पड़ी. उसने अम्बाला और पानीपत से सैनिक सहायता मांगी, परन्तु वहां भी विद्रोह भड़क चुका था. उसे कोई मदद नहीं पहुंच सकी. जलमाणा और आसपास का इलाका स्वतंत्र बना रहा.

पानीपत जिले में असंध गांव सबसे ज्यादा अशांत था. यहां की जनता बहुत बड़ी संख्या एकत्र हो गई थी. थाने पर धावा बोल दिया गया. वहां तैनात सरकारी सिपाहियों ने जनता का विरोध नहीं किया. थाने पर कब्जा हो गया. यह खबर पाकर अंग्रेजी अफसर पियर्सन असंध की तरफ चल पड़ा. उसके पास एक मजबूत फौज थी, परंतु असंध के लोग बड़े जोश में थे. पियर्सन उन पर हमला करने का हौसला नहीं जुटा पाया. उलटे जनता ने ही अंग्रेजी फौज पर हमला कर दिया और बड़ी वीरता पूर्वक उसे असंध से खदेड़ दिया.

जुलाई के महीने में अंग्रेजों को पटियाला व जीन्द की रियासत से काफी सैनिक सहायता मिल गई. अंग्रेजी कप्तान मैक्लिन को पानीपत के इलाके में विद्रोह को दबाने के लिए भेजा गया. उसने 16 जुलाई से तेज हमला शुरू कर दिया. हालात लगभग बदल गए थे. अंग्रेजी सेना अब संगठित रूप से पानीपत के गांवों को दबाने के लिए आगे बढ़ी और असंध पर हमला कर दिया. बड़ी जोरदार लड़ाई हुई. हरियाणा के वीर योद्धाओं ने ताकतवर अंग्रेजी सेना का जी-जान से मुकाबला किया. लेकिन अंग्रेजों की बहुत बड़ी ताकत थी और गांव के इन लोगों के पास न उचित ट्रेनिंग थी और न ही इतना गोला बारूद था. अंग्रेजों ने असंध गांव को जला कर खाक कर दिया. फिर बारी जलमाणा और जीन्द जिले के छातर की आई. एक – एक करके इन गांवों को नृशंसतापूर्वक कुचल दिया गया.

उत्तरी हरियाणा में अम्बाला बहुत बड़ा जिला था. उसमें रोपड़ से लेकर जगाधरी तहसील तक का इलाका शामिल था. अम्बाला नगर जीटी रोड पर स्थित था. इसके सामाजिक महत्व के कारण वहां अंग्रेजों की छावनी थी. वैसे तो 10 मई को ही यहां स्थित पांचवीं भारतीय पैदल सेना और 60वीं बटालियन के सैनिकों ने अपनी बैरकों में हथियार उठा लिए थे, परन्तु वे सफल नहीं हो पाए. सफल बगावत का सेहरा मेरठ के सैनिकों के सिर ही बंधा. अंग्रेज बड़े चालाक थे. विद्रोह की आशंका से निपटने के लिए उन्होंने जींद, नाभा और पटियाला की रियासतों से फौजी सहायता मंगा ली, परन्तु रोपड़ में सरदार मोहर सिंह के नेतृत्व में कुछ सैनिकों ने बगावत कर दी. सरदार मोहर सिंह रोपड़ के भूतपूर्व महाराजा का कारदार था. इलाके में उसकी बड़ी साख थी. उसने खुल कर अंग्रेजों का विरोध करना और लोगों को जगाना शुरू कर दिया था. उसके इरादे अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के थे. पांचवीं भारतीय बटालियन के जो सिपाही अंग्रेजों ने निकाल दिए थे, उनका मोहर सिंह से तालमेल हो गया. उन्होंने मिलकर तहसील पर हमला कर दिया, परन्तु पुलिस और जागीरदारों ने इसे कामयाब नहीं होने दिया. मोहर सिंह को पास के जंगलों में छिपना पड़ा. सुना जाता है कि पहाड़ी क्षेत्र के रजवाड़ों से सरदार मोहर सिंह ने तालमेल बिठा लिया था. उन्हें बगावत के लिए भी तैयार कर लिया था. अंग्रेजी सेना ने इस स्थिति से निपटने के लिए कै. गार्डनर को आदेश दिया कि मोहर सिंह को गिरफ्तार कर लिया जाए और उस पर मुकद्दमा चलाए जाने के लिए अम्बाला भेज दें. यह कोई खालाजी का घर नहीं था. बागी सिपाही सरदार मोहर सिंह के लिए मर-मिटने को तैयार थे, पर चालाकी व धोखाधड़ी में अंग्रेजों का क्या मुकाबला था. वे मोहर सिंह को गिरफ्तार करने में कामयाब हो गए. अम्बाला में उन पर व उनके साथियों पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाया गया. मोहर सिंह को फांसी दे दी गई, परन्तु लोगों के दिल में अंग्रेजी राज के प्रति कोई जगह नहीं थी. जालंधर के बागी रोपड़ होते हुए दिल्ली जाने के लिए अम्बाला से गुजरे, तो लोगों ने उनकी जय-जयकार की और उन्हें यथासंभव सहयोग दिया. अम्बाला जिले के इलाके में एक छोटी रियासत गढ़ी कोताहा भी थी. यहां के नवाब ने लोगों से मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर डाली. जालंधर से दिल्ली जा रही बागी सेना का भी स्वागत किया. भारी अंग्रेजी सेना और गोला बारूद के सामने उसका टिक पाना संभव नहीं था. अंग्रेजों ने नवाब पर भारी जुर्माना कर दिया और तोपें लगाकर गढ़ी को नेस्तनाबूद कर दिया. उधर, जगाधरी में भी देशभक्ति जाग पड़ी और लोगों ने बगावत कर दी. एक अंग्रेज अफसर ने बड़े दुखी होकर लिखा, ‘व्यापारियों को अंग्रेजी राज ने समृद्ध बनाने में बड़ी मदद की थी, पर जगाधरी के व्यापारी भी अंग्रेजी राज के विरुद्ध हो गए.’ बगावत ज्यादा दिन नहीं चल पाई. आखिरकार अंग्रेजी सेना ने देसी रियासतों की सहायता से देश की पहली स्वतंत्रता की लड़ाई को असफल बना ही दिया. साम्राज्यवादी विदेशियों का राज पुन: स्थापित हो गया. हरियाणा की बहादुर जनता खून का घूंट पी कर रह गई.

1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास में बड़ा गौरवमय स्थान रखता है. यह लड़ाई कुछ राजाओं, नवाबों के साथ-साथ पराधीन, शोषित, दबी-कुचली, किसान, दस्तकार व मजदूर जनता की लड़ाई थी. बड़े क्षेत्र में पराधीनता, शोषण और लूट की परिस्थितियों को उखाड़ फेंकने की तीव्र आकांक्षा लिए थी. लोग यह जानते थे कि उनकी इस दुर्दशा के लिए अंग्रेजी साम्राज्य और उसकी नीतियां जिम्मेदार हैं. इसीलिए उनका गुस्सा अंग्रेज प्रशासकों, जिन्हें वे नफरत से गोरे या फिरंगी नाम से पुकारते थे, के खिलाफ फूट पड़ा था. लोगों में देशभक्ति की भावना उमड़ पड़ी थी. जीवन की समान कठिनाइयों, अपमान और उत्पीड़न के सामान्य अहसास ने सब को एक साथ ला दिया था. अंग्रेजी सेना की बड़ी ताकत के सामने सिर झुकाने की बजाय मौत को गले लगाना उन देशभक्तों ने बेहतर समझा, परन्तु खेद है कि स्वाधीन भारत के नीति नियंताओं ने इन असंख्य देशभक्तों को इतिहास के पन्नों पर कोई स्थान नहीं दिया. बल्कि भारत को दास बनाने वाले विदेशियों को ही महिमामंडित करने का काम करते रहे. जिससे भारतवासी अपने इन हुतात्मा वीरों को आज भूल से गए लगते हैं. हम सब को चाहिए कि इन भूले-बिसरे वीरों की याद को अपने हृदय में संजो कर रखें और आने वाली पीढ़ियों की इन वीरों की गाथाएं सुनाएं ताकि भारत का गौरवशाली इतिहास सभी भारतवासियों के दिलों में अपने पूर्वजों के प्रति प्रेरणा बनकर जीवित रहे.

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