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स्वाधीनता संग्राम में जनजातीय नायकों के संघर्ष की गाथा

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भारत के जनजातीय समाज का देश की कला, संस्कृति के संरक्षण और देश के स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है. आजादी की लड़ाई में कई जनजाति नायक-नायिकाओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया, परन्तु उन्हें इतिहास में अपेक्षित स्थान नहीं मिला.

“इन जनजातीय क्रांतिकारियों में प्रमुख हैं – बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, टंटया भील, भीमा नायक, शंकर शाह, रघुनाथ शाह, सीताराम कंवर, मंशु ओझा, वीरांगना रानी दुर्गावती, टूरिया शहीद मुड्डे बाई, सुरेंद्र साय, रघुनाथ सिंह मण्डलोई.”

हमारे देश में जनजाति समाज के योगदान के बारे में लोगों को जानकारी ही नहीं है. समाज को बताया ही नहीं गया या पता है तो बहुत ही सीमित रूप में. स्वतंत्रता संग्राम के महायज्ञ में जनजातीय नायकों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया और देश की अस्मिता पर आंच नहीं आने दी. देश के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया, लेकिन अंग्रेजी सत्ता के आगे समर्पण नहीं किया. स्वतंत्रता के पश्चात लंबे समय तक देश में जिन दलों की सरकारें थी, उन्होंने हमेशा परिवारवाद को पोषित किया और स्वार्थ की राजनीति की और जनजाति समाज को सदैव उपेक्षित रखा.

जनजाति गौरव दिवस (15 नवंबर, भगवान बिरसा मुंडा जयंती) मनाने का मूल उद्देश्य ही इन नायकों की वीर गाथाओं को देश, समाज के सामने लाना है और युवा पीढ़ी को इनके कार्यों से, इनके बलिदान से परिचित कराना है. इसी उद्देश्य के साथ इस वर्ष भी जनजाति गौरव दिवस मनाया जा रहा है और हम इन नायकों का स्मरण करते हुए उनके संघर्ष को, बलिदान को सम्मान और पहचान देने का कार्य कर रहे हैं.

स्वाधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही वनवासी-जनजातीय नायकों ने अंग्रेजी हुकूमत का प्रतिकार करना प्रारंभ कर दिया था. जनजातीय लोगों ने ब्रिटिश सत्ता और अन्य शोषकों का पुरजोर विरोध किया. अनेक शताब्दियों तक वनों से अलग कर नियंत्रित करने के प्रयास किए गए, लेकिन अपनी संस्कृति, सभ्यता व विरासत को सदैव कायम रखा.

जनजाति लोगों ने अपने-अपने क्षेत्रों में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आंदोलन चलाए. अपनी भूमि पर अतिक्रमण, जमीन से बेदखली, पारंपरिक सामाजिक व कानूनी अधिकार व रीति-रिवाजों के संरक्षण के लिए बगावत की. देश के विभिन्न भागों में जनजातियों का रोष, प्रतिरोध भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग था.

इतिहास गवाह है कि जनजातियों ने कभी भी लालच या स्वार्थ से वशीभूत होकर अपने देश की अस्मिता के साथ विश्वासघात नहीं किया. अपनी भूमि, अपनी प्रकृति, अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए हथियार उठाए और भारत की संस्कृति और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया.

बिरसा मुंडा, जिनके जन्मदिवस पर जनजाति गौरव दिवस मनाने की घोषणा की गई थी, जनजातीय समाज में भगवान मानते हैं, बिरसा मुंडा ने 25 वर्ष से भी कम उम्र में देश के लिए अपना बलिदान दे दिया.

ईसाइयों द्वारा संचालित एक स्कूल में पढ़ने के दौरान उन्हें जनजाति समूह के धर्मांतरण की साजिश का पता चला और इसके पश्चात उन्होंने अपने समुदाय को एकजुट किया. समुदाय को एकजुट कर अंग्रेजों के अत्याचारों, उनकी नीतियों के खिलाफ संघर्ष में कूद पड़े. जनजाति समाज ने उन्हें धरती बाबा की उपाधि दी. आज भी जनजाति समाज उन्हें भगवान बिरसा के रूप में जनता है, मानता है.

जनजातीय नायक जिन्होंने स्वाधीनता के यज्ञ में अपने प्राणों की बाजी लगा दी –

भीमा नायक – निमाड़ के बड़वानी के पंच मोहली गांव में रहने वाले भीमा नायक ने अंग्रेजों के खिलाफ भीलों की क्रांति का नेतृत्व सन् 1840 से 1864 तक किया. उन्होंने 1857 के आंदोलन में अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया. उनकी मां सुरसी ने भी अंग्रेजों के खिलाफ मुक्ति मोर्चा में एक क्रांतिकारी टोली का नेतृत्व किया. अंत में अंग्रेजों की यातनाओं के कारण सूरसी ने जेल में ही प्राणों का बलिदान दे दिया. अंग्रेज सरकार द्वारा भीमा नायक के खिलाफ दोष सिद्ध हो जाने पर उन्हें पोर्ट ब्लेयर व निकोबार में रखा और वही पोर्ट ब्लेयर में उनकी मृत्यु हुई.

टंट्या भील – टंट्या भील का जन्म मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में 1842 में हुआ. उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता संग्राम में भील जनजाति का नेतृत्व किया. उनकी गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें इंडियन रॉबिनहुड का नाम दिया. टंट्या भील अत्यंत वीर और साहसी थे. उनके साहस से प्रभावित होकर तात्या टोपे ने उन्हें गोरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया.

केवल सोलह साल की उम्र में ही क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए थे. जहां भी लोग उन्हें याद करते थे, वे वहां पहुंच जाते थे. उन्होंने लोगों को ना केवल अंग्रेजों के अत्याचारों से मुक्त कराया, बल्कि कमजोर व शोषित लोगों को सेठ साहूकारों के चंगुल से भी मुक्ति दिलाई.

उन्होंने अंग्रेजों की शोषण नीति के विरुद्ध आवाज उठाई और जनजातियों के लिए भगवान बनकर उभरे. अंत में अपने ही लोगों के विश्वासघात के कारण अंग्रेजों की पकड़ में आ गए और उन्हें फांसी की सजा दे दी गई.

शंकर शाह, रघुनाथ शाह – जबलपुर के राजा शंकर शाह व उनके पुत्र रघुनाथ शाह का स्वतंत्रता संघर्ष में बड़ा योगदान है. यह गोंड राजवंश के प्रतापी राजा थे. शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह ने स्वाधीनता संग्राम में जबलपुर क्षेत्र का नेतृत्व किया. इनकी राष्ट्रभक्ति पर लिखी भावपूर्ण कविता से आक्रोशित होकर अंग्रेजों ने राजा शंकर शाह, रघुनाथ शाह को तोप से उड़ा दिया था.

सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह मंडलोई (भिलाला) – सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह मंडलोई जनजातीय नायक थे. उन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम में निमाड़ क्षेत्र से अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा लिया और अंग्रेजों से युद्ध करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया. सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह ने भील-भिलाला के 3000 क्रांतिकारियों का एक संगठन बनाकर अन्य लोगों को भी क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया.

ख्वाजा नायक – निमाड़ क्षेत्र के बड़वानी के निवासी ख्वाजा नायक ने अंग्रेजी राज की सत्ता को नकारते हुए अंग्रेजों की नौकरी का परित्याग किया और बड़वानी क्षेत्र में आकर स्वतंत्रता संग्राम की कमान संभाली. उन्होंने भीलों का नेतृत्व किया और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के तत्कालीन विराम के बाद भी अपनी लड़ाई जारी रखी.

अंग्रेजों से स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते हुए फांसी के फंदे को हंसते-हंसते गले लगा लिया. देश के स्वाधीनता संग्राम में अपने देश की अस्मिता हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले हमारे जनजातीय क्रांतिकारियों के बलिदान को शत शत नमन.

प्रो. मनीषा शर्मा

संकायाध्यक्ष एवं विभागाध्यक्ष, पत्रकारिता एवं जनसंचार

इंदिरा गांधी जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक

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