भारत के स्वाधीनता संग्राम में देश के सभी वर्गों के लोगों ने अपनी भूमिका निभाई थी, और इसमें जनजाति समाज भी पीछे नहीं रहा. स्वाधीनता के लिए पहली संगठित क्रांति 1857 में देखने को मिली थी, लेकिन उससे पहले और बाद में भी देशभर में क्रांति की मशालें जलाई गईं.
झारखंड, छत्तीसगढ़, बंगाल, ओडिशा के जंगल हों या उत्तर पूर्वी राज्यों के पहाड़, सभी स्थानों पर जनजाति समाज ने ब्रिटिश ईसाई सत्ता से संघर्ष किया. जनजाति समाज द्वारा ब्रिटिश ईसाई सत्ता के विरुद्ध किए संघर्ष के दौरान समाज की महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.
1783 में तिलका मांझी के नेतृत्व में क्रांति हो या 1795 का चेरी आंदोलन, 1798 का चुआड़ आंदोलन हो या 1831 का कोल विद्रोह और 1855 की संथाल क्रांति हो या 1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर, सभी में जनजाति महिला क्रांतिकारियों की भी प्रमुख भूमिका रही.
स्वाधीनता के लिए जनजाति समाज की वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की परवाह ना करते हुए ईसाई और इस्लामिक आक्रमणकारी शक्तियों का सामना किया और विभिन्न क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया, उसकी कहानी अप्रतिम है.
सिनगी देई और कइली देई : रोहतासगढ़ की राजकुमारी
रोहतासगढ़ की राजकुमारी वीरांगना सिनगी देई और राज्य के सेनापति की पुत्री कइली देई ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के किए इस्लामिक आक्रमणकारियों का सामना किया. 14वीं शताब्दी के दौरान जब रोहतासगढ़ में जनजाति समाज अपने ‘सरहुल पर्व’ के उत्सव में डूबा हुआ था, तब इस्लामिक आक्रमणकारियों ने हमला कर दिया.
आक्रमणकारियों को यह जानकारी थी कि पुरुष सरहुल पर्व के दौरान युद्ध की स्थिति में नहीं होंगे, इसीलिए उन्होंने हमले के लिए इस दिन को चुना था. लेकिन ऐसी परिस्थिति में राज्य की दोनों वीरांगनाओं ने क्षेत्र की सभी उरांव जनजाति महिलाओं को एकत्रित किया और पुरुषों का वेश धारण कर हथियारों के साथ आक्रमणकारियों पर टूट पड़ीं.
इस्लामिक आक्रमणकारी दोनों जनजाति वीरांगनाओं के साथ शामिल जनजाति महिलाओं के प्रतिकार से घबराकर लौट गए. इसके एक वर्ष पश्चात पुनः मुगल सेना ने सरहुल पर्व के दिन आक्रमण किया. एक बार फिर सिनगी और कइली देई के नेतृत्व में मुगल परास्त हुए. मुगल सेना ने एक बार फिर तीसरी बार हमला किया और इस बार भी उरांव जनजाति वीरांगनाओं के हाथों उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा. लगातार तीन बार हार का सामना कर चुकी मुगल सेना अब मनोबल से टूट चुकी थी, यही कारण है कि मुगल सेना ने अपने गुप्तचर को रोहतासगढ़ भेजा, जिसके बाद उन्हें जानकारी मिली कि पुरुषों के भेष में लड़ रहे योद्धा असल में क्षेत्र की जनजाति महिलाएं हैं.
रानी दुर्गावती : मुगलों को धूल चटाई
रानी दुर्गावती का जन्म दुर्गाष्टमी के दिन होने कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया. वह गढ़-मंडला की रानी थी और उन्होंने बचपन से ही घुड़सवारी, युद्धकला, तलवारबाजी, तीरंदाजी जैसी कलाओं में निपुणता हासिल कर ली थी.
पति की मृत्यु के बाद उन्होंने राज्य का सिंहासन संभाला और मुगलों एवं इस्लामिक आक्रमणकारियों को बार-बार धूल चटाई. उन्होंने 3 बार मुगल सेना का सामना किया और अंततः जब उन्हें आभास हुआ कि उनका जीतना असंभव है तो उन्होंने युद्धभूमि पर ही अपने सीने में कटार चला दी और मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान हो गईं.
पहाड़िया क्रांति: 1772 – 1782
पहाड़िया जनजाति के लोगों का संघर्ष इस्लामिक आक्रमणकारियों के दौर में भी रहा था जो आगे चलकर ब्रिटिश ईसाई सत्ता के विरुद्ध भी जारी रहा. पहाड़िया क्रांति मुख्यतः चार चरणों में हुई थी जो 1772 से शुरू होकर 1782 तक चली. इस क्रांति के दौरान बलिदानी जिउरी पहाड़िन ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया और अंततः मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान हो गई. 1782 में पहाड़िया क्रांति की बागडोर रानी सर्वेश्वरी ने थामी और अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल फूंका. इस दौरान भारी संख्या में पहाड़िया महिलाओं ने क्रांति में हिस्सा लिया और अंग्रेजों के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया.
जनजाति महिलाओं की वीरता से घबराकर ब्रिटिश ईसाई सेना क्षेत्र से पीछे हटने को मजबूर हुई. इस संघर्ष के दौरान भारी संख्या में क्रांतिकारियों ने बलिदान दिए, जिसमें जनजाति महिला क्रांतिकारियों की संख्या सर्वाधिक थी.
लरका आंदोलन: 1828 – 1832
उरांव जनजाति से आने वाले वीर बुधू भगत ने ब्रिटिश ईसाई सत्ता के विरुद्ध लरका आंदोलन का नेतृत्व किया. इस दौरान उनकी दोनों बेटियां रुनिया और झुनिया भी शामिल थी. बुधू भगत द्वारा सिखाई युद्ध कला और कौशल के माध्यम से रुनिया और झुनिया ने अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध के माध्यम से संघर्ष किया.
रुनिया और झुनिया ने अपने पिता के साथ मिलकर स्थानीय जनजाति समाज को एकजुट करने का प्रयास किया, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाओं की भी भागीदारी थी. 14 फरवरी, 1832 को अंग्रेज सैनिकों ने रुनिया-झुनिया और उनके पिता सहित 150 से अधिक क्रांतिकारियों को चारों ओर से घेर लिया और इसके बाद दोनों वीरांगनाओं ने अंग्रेजों से लड़ते हुए भारत भूमि की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहुति दे दी.
हूल क्रांति : 1855
1855 में झारखंड में जनजाति क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश ईसाई सत्ता के विरुद्ध हूल क्रांति को अंजाम दिया, जिसे संथाल क्रांति के नाम से भी जाना जाता है. इस क्रांति का नेतृत्व सिद्धो, कान्हो, चांद, भैरव नामक चार भाइयों एवं उनकी दो बहनों फूलो-झानो ने किया था. एक छोटे से क्षेत्र से शुरू हुई यह क्रांति देखते ही देखते पूरे संथाल क्षेत्र में फैल चुकी थी.
क्रांति के दौरान फूलो-झानो ने अंग्रेजों के विरुद्ध छापामार युद्ध नीति अपनाई थी, जिसके तहत ब्रिटिश ईसाई सैनिकों के शिविरों को निशाना बनाया जाता था. जब रात्रि में ब्रिटिश सैनिक नींद में होते थे, तब तड़के सुबह फूलो और झानो उन पर हमला कर देते थे.
बरहेट स्थित सैनिक कैंप में धावा बोलते हुए दोनों वीरांगनाओं ने 21 अंग्रेज सिपाहियों को मार डाला था. दोनों बहनों ने अंग्रेजों के विरुद्ध हुंकार भरी – ब्रिटिश सरकार वापस जाओ, संथालों के देश में उनका राज नहीं चलेगा.
संथाल क्रांति के दौरान फूलो-झानो ने विभिन्न क्षेत्रों में क्रांतिकारी गतिविधियों का नेतृत्व किया, जिसके कारण बीरभूम क्षेत्र भी संथालों के प्रभाव में आ चुका था. लेकिन इसी दौरान अंग्रेजों ने क्रांति का बेरहमी से दमन करना शुरू किया और अंततः फूलो-झानो को भी पकड़ लिया. ब्रिटिश ईसाइयों ने फूलो-झानो को आम के पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी. उनकी स्मृति में अभी भी संथाल क्षेत्र में गाया जाता है कि ‘दू ठो मांझी बिटिया/आम गाछे उपोरे भेल’.
मुंडा क्रांति : भगवान बिरसा के आंदोलन में जनजाति महिलाओं की भूमिका
भगवान बिरसा मुंडा द्वारा ब्रिटिश ईसाई सत्ता और ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध चलाए जा रहे मुंडा क्रांति में जनजाति महिलाओं की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण रही है. बिरसा मुंडा के अनुयायी सरदार गया मुंडा की पत्नी माकी और परिवार की अन्य महिलाओं ने जिस वीरता का परिचय दिया था, वह अद्भुत था.
जब गया मुंडा को पकड़ने उसके घर ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पहुंचे तो उनका सामना गया मुंडा के परिवार की बहादुर महिलाओं से हुआ, जिसका अंदाजा उन्हें ज़रा भी नहीं था. एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी ने जैसे ही गया मुंडा के घर में घुसने का प्रयास किया, वैसे ही उस पर गया की पत्नी ने हमला किया. इसके बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने गया के घर को आग लगा दी, जिसके बाद गया के घर से रणचंडियों ने अपना स्वरूप दिखाया. गया की पत्नी के हाथ में लाठी थी, उसकी दोनों पुत्रवधुओं के हाथ में दौली और टांगी एवं बेटी के हाथ में लाठी और तलवार थी. सभी महिलाओं ने अपने हथियार छीने जाने से पूर्व तक जमकर संघर्ष किया.
खड़िया क्रांति : 1880
छोटा नागपुर क्षेत्र में ब्रिटिश ईसाइयों के विरुद्ध तेलंगा खड़िया ने क्रांति की मशाल जलाई. इस दौरान उनका साथ दिया उनकी पत्नी रत्नी खड़िया ने. तेलंगा और उनकी पत्नी रत्नी खड़िया दोनों युद्ध कला की विभिन्न कलाओं का अभ्यास करते थे और उन्होंने स्थानीय समाज को जागरूक करने का भी प्रयास किया. ग्रामीणों के बीच उन्होंने बैठकें की और लोगों को अंग्रेजी हुकूमत की तानाशाही नीतियों के बारे में बताया. ब्रिटिश ईसाइयों से मुकाबला करने के लिए दोनों ने पंचायत का गठन किया और तेलंगा की मृत्यु के पश्चात भी रत्नी ने खड़िया क्रांति की अलख जगाए रखी.
मुंगरी उरांव : असम क्षेत्र की जासूस
वर्ष 1930 में मुंगरी उरांव असम क्षेत्र से ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अपने प्राणों की आहुति देने वाली पहली महिला क्रांतिकारी मानी जाती हैं. मुंगरी एक ब्रिटिश अधिकारी के घर में कार्य करती थी और वहां से गुप्त सूचनाएं एकत्रित कर वह कांग्रेस को जानकारी देती थी. जब अंग्रेज अधिकारियों को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने मुंगरी उरांव की हत्या कर दी.
रानी गाइदिन्ल्यू : पहाड़ों की रानी
26 जनवरी, 1915 को नागालैंड में जन्मी रानी गाइदिन्ल्यू को उनकी वीरता, अदम्य साहस और ब्रिटिश ईसाई सत्ता से संघर्ष करने के कारण ‘नागलैंड की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है’. नागा जनजाति से आने वाली रानी गाइदिन्ल्यू 13 वर्ष की आयु में ही स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी. वे अपने भाई कोसिन और हायपोउ के साथ हेराका आंदोलन में शामिल हुईं. ब्रिटिश ईसाई सत्ता और ईसाई मतांतरण के विरुद्ध उन्होंने जनजाति को एकत्रित किया और मात्र 17 वर्ष की आयु में ही अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया.
रानी गाइदिन्ल्यू की समाज में बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेज तिलिमिलाए हुए थे, जिसके बाद उन्होंने गाइदिन्ल्यू को पकड़ने के लिए अभियान चलाया और अंततः 1933 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया. भारत की स्वाधीनता तक रानी गाइदिन्ल्यू देश की विभिन्न जेलों में कैद रहीं.