डॉ. वरुण कुमार
भारत के वनवासी क्षेत्रों में रहने वाले सनातनी वनवासी समाज का कन्वर्ज़न एक जटिल और गंभीर मुद्दा है, जो देश की सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के लिए चुनौती बन चुका है। यह समस्या केवल धार्मिक परिवर्तन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे ऐतिहासिक, आर्थिक, सामाजिक और विदेशी प्रभावों का एक बड़ा मकड़ जाल है।
भारत के वनवासी समाज, जिन्हें आमतौर पर आदिवासी या जनजातीय समुदाय कहा जाता है, देश की सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न हिस्सा हैं। ये समुदाय अपनी प्राचीन परंपराओं, प्रकृति पूजा और स्थानीय रीति-रिवाजों के साथ जीवन जीते हैं। उनकी धार्मिक मान्यताएँ सनातन धर्म से गहरे जुड़ी हैं, भले ही उनकी पूजा के तरीके और देवी-देवता स्थानीय हों। उदाहरण के लिए, झारखंड के मुंडा समुदाय में सिंगबोंगा की पूजा होती है, जो सूर्य देवता का प्रतीक है। ओडिशा का कोंध समुदाय धरणी पेन्नू (पृथ्वी माता) को पूजते हैं, जो सनातन धर्म की भूदेवी से समानता रखती है। छत्तीसगढ़ के गोंड समुदाय में बुड्ढा देव की पूजा प्रचलित है, जो प्रकृति और आत्माओं से संबंधित है। ये परंपराएँ दर्शाती हैं कि वनवासी समाज का धर्म सनातन धर्म का एक हिस्सा रहा है, जो प्रकृति और मानवता के साथ उनके गहरे रिश्ते को दर्शाता है। लेकिन, पिछले कुछ दशकों में, विशेष रूप से औपनिवेशिक काल से, इन समुदायों को उनके मूल धर्म से विमुख करने की कोशिशें तेज हुई हैं। यह प्रक्रिया मुख्य रूप से ईसाई मिशनरियों और कुछ इस्लामी संगठनों द्वारा संचालित है, जो प्रलोभन, दबाव और झूठे वादों के जरिए आदिवासियों को धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित करते हैं।
कन्वर्ज़न का यह सिलसिला 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान शुरू हुआ। ब्रिटिश शासन ने मिशनरियों को भारत में काम करने की खुली छूट दी, क्योंकि यह उनकी “सभ्यता मिशन” का हिस्सा था। मिशनरियों ने वनवासी क्षेत्रों को अपना मुख्य लक्ष्य बनाया, क्योंकि ये समुदाय आर्थिक रूप से कमजोर, अशिक्षित और सामाजिक रूप से हाशिए पर था। उन्होंने स्कूल, अस्पताल और चर्च खोले, जिनके माध्यम से आदिवासियों तक पहुँच बनाई। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर लोगों को आकर्षित किया गया, और धीरे-धीरे उन्हें ईसाई धर्म की ओर ले जाया गया। उदाहरण के लिए, झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में 19वीं शताब्दी के अंत तक मिशनरी गतिविधियों के कारण ईसाई आबादी में तेजी से वृद्धि हुई। स्वतंत्रता के बाद भी यह प्रक्रिया रुकी नहीं। 20वीं शताब्दी के मध्य से, विशेष रूप से पूर्वोत्तर भारत, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों में, मिशनरी गतिविधियाँ और तेज हुईं। सेंट्रल इंडिया ट्राइबल बेल्ट, जहाँ आदिवासी आबादी का बड़ा हिस्सा रहता है, मिशनरियों के लिए सबसे उपजाऊ क्षेत्र बन गया। यहाँ मुफ्त शिक्षा, चिकित्सा सुविधाएँ और आर्थिक सहायता जैसे प्रलोभनों का इस्तेमाल किया गया। परिणामस्वरूप, कई आदिवासी परिवारों ने अपने पारंपरिक विश्वास को छोड़कर ईसाई धर्म अपनाया। कुछ क्षेत्रों में इस्लाम की ओर भी कन्वर्ज़न हुआ, हालाँकि यह ईसाई मिशनरियों की तुलना में कम व्यापक रहा।
आंकड़े समस्या की गंभीरता को और स्पष्ट करते हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में ईसाई आबादी 4.1% थी, जो 2011 में बढ़कर 4.3% हो गई। लेकिन स्थानीय स्तर पर, जैसे सिमडेगा जिले में, यह आंकड़ा 51% से अधिक है। ओडिशा के कंधमाल जिले में 2001 में 18.2% लोग ईसाई थे, जो 2011 में 20.5% हो गए। छत्तीसगढ़ में, बस्तर जैसे क्षेत्रों में ईसाई आबादी में वृद्धि देखी गई, जो 2011 में पूरे राज्य में 1.9% थी, लेकिन स्थानीय स्तर पर यह अधिक हो सकती है। पूर्वोत्तर भारत में यह समस्या और भी गंभीर है। नागालैंड में 90%, मिजोरम में 87%, और मेघालय में 75% लोग ईसाई हैं। ये आंकड़े सतही तौर पर जनगणना पर आधारित हैं, लेकिन स्थानीय लोग और संगठन दावा करते हैं कि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है, क्योंकि कई लोग कन्वर्ज़न के बाद भी जनगणना में अपना पुराना धर्म ही दर्ज कराते हैं। यह एक छिपा हुआ संकट है, जो आंकड़ों से पूरी तरह सामने नहीं आता।
कन्वर्ज़न कराने वाले संगठन इस काम को बहुत सुनियोजित तरीके से करते हैं। उनकी कार्यप्रणाली में कई स्तर शामिल हैं, जो प्रलोभन, दबाव और प्रचार पर आधारित हैं। सबसे आम तरीका है आर्थिक और सामाजिक प्रलोभन देना। गरीब आदिवासी परिवारों को पैसा, खाना, कपड़े या नौकरी का लालच दिया जाता है।
मुफ्त स्कूल और अस्पताल खोलकर बच्चों और बीमार लोगों को निशाना बनाया जाता है। ओडिशा के कंधमाल में मिशनरी स्कूलों में बच्चों को ईसाई प्रार्थनाएँ और बाइबिल पढ़ाई जाती है। कई बार, इन स्कूलों में दाखिला लेने की शर्त ही कन्वर्ज़न होती है। इसके अलावा, सामाजिक दबाव भी एक बड़ा हथियार है। कुछ गाँवों में, जो लोग धर्म नहीं बदलते, उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। कथित रूप से छत्तीसगढ़ के कुछ गाँवों में केवल धर्मांतरित लोग ही गाँव के कुएँ से पानी ले सकते हैं या सामुदायिक संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं। शादी-ब्याह के जरिए भी दबाव बनाया जाता है, जहाँ धर्मांतरित परिवार आपस में ही रिश्ते बनाते हैं, जिससे गैर-धर्मांतरित लोग अलग-थलग पड़ जाते हैं। धार्मिक प्रचार भी इस कुचक्र का हिस्सा है। चर्चों में प्रार्थना सभाएँ आयोजित की जाती हैं, जहाँ चमत्कार और बीमारी ठीक करने की बातें बताई जाती हैं। आदिवासी भाषाओं में बाइबिल छापकर बाँटी जाती है, ताकि लोग इसे आसानी से समझ सकें।
इस प्रक्रिया में दुष्टता भी शामिल है, जो इस कुचक्र को और खतरनाक बनाती है। मिशनरी संगठन अक्सर आदिवासी देवी-देवताओं को “शैतान” या “पापी” कहकर उनकी आस्था का अपमान करते हैं। उनकी परंपराओं को पिछड़ा और जंगली बताया जाता है, जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान कमजोर होती है। झूठे वादे भी आम हैं। आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में लोगों को जमीन या नौकरी का लालच दिया गया, लेकिन बाद में उन्हें कुछ नहीं मिला। कुछ मामलों में, मिशनरियों ने आदिवासियों को उनके ही गाँव में अल्पसंख्यक बना दिया, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ा। कंधमाल में 2008 में कन्वर्ज़न का विरोध करने के कारण स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी की हत्या कर दी गई और इस कारण हिन्दू और ईसाई समुदायों के बीच हिंसक टकराव हुआ। लक्ष्मणानंद सरस्वती जी ने आजीवन आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए काम किया और कन्वर्ज़न के विरूद्ध लगातार संघर्ष किया। जिस कारण उनकी जघन्य हत्या कर दी गई। इस तरह की दुष्टता ने न केवल आदिवासियों की धार्मिक आस्था, बल्कि उनके सामाजिक ताने-बाने को भी तोड़ने का कार्य किया है।
कन्वर्ज़न के इस कुचक्र के पीछे सबसे बड़ा समर्थन है विदेशी फंडिंग का! मिशनरी संगठनों को अमेरिका, यूरोप और कुछ खाड़ी देशों से भारी मात्रा में पैसा मिलता है। एक आंकड़े के अनुसार, 2019-20 में भारत में मिशनरी संगठनों को 2,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की विदेशी सहायता मिली। “वर्ल्ड विजन” और “कैरिटास इंडिया” जैसे संगठन इसके बड़े उदाहरण हैं। यह पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यों के नाम पर लिया जाता है, लेकिन इसका बड़ा हिस्सा कन्वर्ज़न के लिए इस्तेमाल होता है। उदाहरण के लिए, मेघालय में एक मिशनरी संगठन ने स्कूल खोलने के नाम पर विदेशी फंड लिया, लेकिन बाद में वह स्कूल ईसाई प्रचार का केंद्र बन गया। विदेशी फंडिंग न केवल मिशनरियों को आर्थिक ताकत देती है, बल्कि उनके नेटवर्क को भी मजबूत करती है। यह पैसा स्थानीय कार्यकर्ताओं को भर्ती करने, प्रचार सामग्री छापने और बड़े पैमाने पर सभाएँ आयोजित करने में भी खर्च होता है। सरकारों ने इस पर नजर रखने की कोशिश ज़रूर की है, लेकिन पूरी तरह रोकना मुश्किल ही रहा है।
कन्वर्ज़न के भारत पर दूरगामी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं। सबसे बड़ा नुकसान है सांस्कृतिक विनाश। आदिवासी समाज की परंपराएँ, त्योहार और कला खत्म हो रही हैं। नागालैंड में अंगामी नगाओं के “सेक्रेनी” जैसे त्योहार अब कम ही मनाए जाते हैं, क्योंकि वहाँ की अधिकांश आबादी ईसाई बन चुकी है। उनकी भाषाएँ, नृत्य और शिल्प भी गायब हो रहे हैं। सामाजिक स्तर पर, कन्वर्ज़न ने समुदायों में टकराव पैदा किया है। परिवार भी टूट रहे हैं, क्योंकि कुछ सदस्य धर्म बदल लेते हैं और बाकी नहीं।
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी यह खतरा है। पूर्वोत्तर भारत में कन्वर्ज़न के साथ-साथ अलगाववादी आंदोलन बढ़े हैं। नागालैंड में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (NSCN) जैसे संगठन इसका उदाहरण हैं, जो विदेशी समर्थन से मजबूत हुए। विदेशी प्रभाव से देश की एकता और अखंडता को खतरा है। आर्थिक रूप से भी नुकसान हो रहा है। धर्मांतरित लोग अक्सर मिशनरियों पर निर्भर हो जाते हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता छिनती है। यह एक तरह का नया गुलामी का रूप है, जहाँ आदिवासी अपनी जड़ों से कटकर विदेशी संगठनों के अधीन हो जाते हैं।
समस्या को रोकने के लिए भारत सरकार और सामाजिक संगठनों ने कई कदम उठाए हैं। सरकार ने सबसे पहले कन्वर्ज़न विरोधी कानून बनाए। ओडिशा में 1967 में पहला ऐसा कानून बना, जो बल, धोखे या प्रलोभन से होने वाले कन्वर्ज़न को रोकता है। मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने भी ऐसे कानून लागू किए। उत्तर प्रदेश का 2021 का “उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम” इसका ताजा उदाहरण है, जो विवाह के लिए कन्वर्ज़न को भी प्रतिबंधित करता है। लेकिन इन कानूनों का प्रभावी लागू होना एक चुनौती है, क्योंकि ग्रामीण और दुर्गम क्षेत्रों में निगरानी मुश्किल है।
सरकार ने आदिवासी कल्याण के लिए कई योजनाएँ भी शुरू की हैं। सरकार ने विदेशी फंडिंग पर भी नकेल कसी है। कई NGOs का लाइसेंस रद्द किया गया, जो अवैध रूप से पैसा इस्तेमाल कर रहे थे।
सामाजिक स्तर पर, धार्मिक संगठनों ने कुचक्र को तोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है। वनवासी कल्याण आश्रम, जो 1952 में शुरू हुआ, आदिवासी क्षेत्रों में स्कूल, छात्रावास और स्वास्थ्य केंद्र चला रहा है। 2014 में, झारखंड में 200 से अधिक परिवारों की घर वापसी कराई गई। विहिप ने “धर्म जागरण” कार्यक्रम चलाए, जिनमें आदिवासियों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ा जाता है। 2015 में, कंधमाल में विहिप ने बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आदिवासियों को हिन्दू समाज का अभिन्न हिस्सा बताते हुए उनके बीच शाखाएँ और प्रशिक्षण शिविर शुरू किए। पूर्वोत्तर भारत में कई सेवा प्रकल्प हैं, जो शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ दे रहे हैं। इन संगठनों ने न केवल कन्वर्ज़न की गति को धीमा किया, बल्कि आदिवासियों में अपनी संस्कृति के प्रति गर्व भी जगाया। लेकिन इनके काम को कुछ लोग साम्प्रदायिक कहते हैं।
वर्तमान में, सरकार और समाज मिलकर कई नए प्रयास कर रहे हैं। शिक्षा और जागरूकता पर जोर दिया जा रहा है। स्कूलों में आदिवासी संस्कृति को पढ़ाया जा रहा है, ताकि नई पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ी रहे। कानूनी सुधारों के तहत, कुछ राज्य अपने कन्वर्ज़न विरोधी कानूनों को और सख्त कर रहे हैं। केंद्र सरकार राष्ट्रीय स्तर पर एक समान कानून लाने पर विचार कर रही है। सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए आदिवासी त्योहारों जैसे “सारहुल” और “करमा” को बढ़ावा दिया जा रहा है। राँची और भुवनेश्वर में आदिवासी संग्रहालय बनाए गए हैं, जो उनकी कला और परंपराओं को संरक्षित कर रहे हैं। आदिवासी समुदाय का आर्थिक सशक्तिकरण भी एक बड़ा कदम है।
कुचक्र को पूरी तरह रोकने के लिए भविष्य में और समन्वित प्रयासों की जरूरत है। कानूनों का सख्ती से पालन जरूरी है, और इसके लिए स्थानीय प्रशासन को और सक्रिय करना होगा। विदेशी फंडिंग पर पूरी तरह रोक लगानी होगी, और इसके लिए एक मजबूत निगरानी तंत्र बनाना होगा। समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सामाजिक एकीकरण जरूरी है, ताकि वे हाशिए पर न रहें। उनकी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए और मेलों, प्रदर्शनियों और सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना होनी चाहिए। त्रिपुरा और छत्तीसगढ़ के कुछ क्षेत्रों में इन प्रयासों से सफलता मिली है। त्रिपुरा में हिन्दू संगठनों ने कन्वर्ज़न को काफी हद तक कम किया है। बस्तर में वनवासी कल्याण आश्रम के काम से आदिवासियों में जागरूकता बढ़ी है।
समस्या का समाधान तभी संभव है, जब सरकार, समाज और स्वयं आदिवासी समुदाय मिलकर काम करें। यह कुचक्र केवल धार्मिक परिवर्तन तक सीमित नहीं है; यह एक सांस्कृतिक और राष्ट्रीय संकट है। आदिवासियों की पहचान, उनकी परंपराएँ और उनकी स्वतंत्रता बचाना जरूरी है। यह तभी हो सकता है, जब हम उनकी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जरूरतों को समझें और उन्हें मजबूत करें। सनातनी वनवासी समाज भारत की आत्मा का हिस्सा है, और उनकी रक्षा करना हम सबकी जिम्मेदारी है। इस दिशा में सकारात्मक और समावेशी कदम उठाकर हम इस कुचक्र को तोड़ सकते हैं और एक मजबूत, एकजुट भारत का निर्माण कर सकते हैं।
(पूर्व संकायाध्यक्ष, सूक्ष्म जीव विज्ञानी, निसर्गोपचारक एवं वर्तमान में एडटेक कंपनी में कार्यरत। भारतीय मनीषा एवं समसामयिक विश्लेषण में विशेष रुचि।)