भोपाल. जनजातीय संग्रहालय में दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान व आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, संस्कृति विभाग के संयुक्त तत्वाधान में ‘जनजातीय धार्मिक परंपरा और देवलोक’ विषय पर आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में कई शोध पत्र प्रस्तुत हुए. विद्वानों ने भारतीय आख्यान परंपरा, पौराणिक लोक और जनजाति आख्यान परंपरा और जनजातीय समुदाय में धार्मिक अंतर्संबंधों पर प्रकाश डाला.
‘भारतीय आख्यान परंपरा-पौराणिक, लोक और जनजातीय आख्यान’ विषय पर चर्चा करते हुए डॉ. महेन्द्र मिश्र ने कहा कि पुराने समय में जिन लोगों ने अग्नि को स्वीकर नहीं किया, उन्हें असुर कहा गया. भारतीय सभ्यता के चार स्तंभ – मूलाचार, लोकाचार, देशाचार, शिष्टाचार हैं. शिष्टाचार सभी में है, चारों तत्व आपस में जुड़े हुए हैं. भारत के बाहर शोध करने जाएंगे तो भारतीय विखंडन को पाएंगे.
भारतीय जीवन धार्मिक परंपरा है, आध्यात्मिक परंपरा है. प्रकृति पूजा के मानवीकरण को विदेशी लोगों ने विखंडन के रूप में प्रचलित किया है. वास्तव में जनजातीय स्वरूप वैदिक स्वरूप है.
सांसद दुर्गादास उइके ने कहा कि जनजाति समाज का गौरवशाली इतिहास है. जनजाति समाज में देवी-देवताओं की सार्थकता है, जनजाति समाज प्रकृति पूजक है. हमारे पूर्वजों ने नदियों को मां माना है. जनजाति समाज शिव-पार्वती के ही वंशज हैं. इस कारण से पूजन करने की मान्यता है.
इतिहासकारों ने जो इतिहास लिखा है, उसमें विषयों की संवेदनशीलता में जाकर अन्तरमन को स्पर्श नहीं कर सके. इतिहास में गलतियां हुई हैं. रामायण में भी जनजाति समाज का गौरव है.
धनेश परस्ते ने कहा कि आदिम जनजाति प्रकृति पूजक है, सभी क्षेत्रों के अलग-अलग देवी-देवता हैं. इन क्षेत्रों के लोग अपनी-अपनी तरह से पूजा करते हैं. जनजातियों के आख्यान उनके दार्शनिक चिंतन होते हैं. जल, जंगल, जमीन जनजातियों के जीवन दर्शन कला का मूल है. आधुनिकता के प्रभाव से धीरे-धीरे जनजातियों की संस्कृतियां खत्म हो रही हैं.
‘भारत में जनजातीय धार्मिक अंतर्संबंध’ विषय पर लेखिका संध्या जैन ने कहा कि जनजाति और हिन्दुओं में कोई फर्क नहीं है, जनजाति को हिन्दू कहो या हिन्दू को जनजाति. जाति व गोत्र के प्रति हीन भावना नहीं होनी चाहिए. ऐसा होने पर जनजाति समाज को खतरा है.
जनजातीय, वैदिक तथा पौराणिक देवलोक विषय पर डॉ. धर्मेंद्र पारे ने कहा कि वैदिक, पौराणिक और अरण्य जगत सब एक ही है. जिस प्रकार ऋचाएं जो वेद की किसी ऋचा में अभिमंत्रित हैं, वही लोकगीतों के मनुहार में है. देव वही है, अनुष्ठान वही है, भावभूति, विचार और आकांक्षाएं समान हैं.
डॉ. श्रीराम परिहार जी ने कहा कि लोक और वेद में कोई विभेद नहीं है जो लोक में है, वही शास्त्र में है. दोनों के मूल में प्रकृति के पंचतत्व ही हैं, वही विभिन्न रूपों में पूजनीय है.
इस क्रम में जनजातीय नृत्य गीतों में अभिव्यक्त देवलोक पर डॉ. बसंत निर्गुणे और डॉ. मन्नालाल रावत के व्याख्यान हुए.