जब कोई सरकार अपने लोगों की जान की दुश्मन बन जाए तो फिर कोई कुछ नहीं कर सकता
राजीव सचान
आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद हिंसा का शिकार हुए लोगों की पीड़ा सुनने का समय निकाल लिया, लेकिन इसमें उसे 20 दिन से अधिक का समय लग गया और अभी उसने इस मसले पर दायर याचिका पर केवल बंगाल और केंद्र सरकार को नोटिस भर दिया है. मामले की अगली सुनवाई पर ही पता चलेगा कि उन लुटे-पिटे-अभागे लोगों को कोई राहत मिल पाती है या नहीं, जिन्हें तृणमूल कांग्रेस के गुंडों ने इस कारण मारा-पीटा, लूटा-खदेड़ा, क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर भाजपा को वोट दिया. भाजपा समर्थकों को मारने-पीटने, उनके घर जलाने और उनकी महिलाओं से छेड़छाड़ करने का सिलसिला चुनाव परिणाम आने वाले दिन तभी शुरू हो गया था, जब यह साफ हो गया था कि तृणमूल कांग्रेस फिर सत्ता में आने जा रही है.
प्रायोजित हिंसा के दौरान बंगाल पुलिस मूक दर्शक बनी रही
तृणमूल कांग्रेस प्रायोजित इस हिंसा के दौरान बंगाल पुलिस ने ऐसे व्यवहार किया, जैसे वह अस्तित्व में ही नहीं है. वह तृणमूल कार्यकर्ताओं की खुली-नग्न गुंडागर्दी के समक्ष मूक दर्शक बनी रही. इसी कारण उसकी मौजूदगी में हिंसा और लूट का नंगा नाच हुआ. कोई भी यह समझ सकता है कि ऐसा ऊपर से मिले निर्देशों के तहत ही हुआ होगा. यह भी समझा जा सकता है कि कम से कम ऐसे निर्देश चुनाव आयोग ने तो नहीं ही दिए होंगे. फिर किसने दिए होंगे? इसे जानने-समझने के लिए दिमाग लगाने की जरूरत नहीं. इसलिए और नहीं, क्योंकि जब तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ता जिन्ना वाले डायरेक्ट एक्शन डे की याद दिला रहे थे, तब ममता बनर्जी कह रही थीं कि बंगाल में कहीं कोई हिंसा नहीं हो रही है. बाद में ममता ने इसकी भी कोशिश की राज्यपाल जगदीप धनखड़ हिंसा पीड़ित लोगों से मिलने न जा सकें. मजबूरी में उन्हें बीएसएफ के हेलीकॉप्टर से जाना पड़ा.
राज्यपाल जब हिंसा पीड़ित लोगों के बीच गए तो उन्हें अत्याचार और आतंक की भयावह कहानियों से दो-चार होना पड़ा, लेकिन ममता बनर्जी अपने ही राज्य के लोगों की दारूण दशा देखकर भी नहीं पसीजीं. उन्होंने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को इस आशय की चिट्ठी अवश्य लिखी कि राज्यपाल को वापस बुलाया जाए. राज्यपाल तो वापस होने से रहे, लेकिन ममता शायद उन लोगों की भी वापसी नहीं चाह रही हैं, जो तृणमूल कांग्रेस के आतंक से भयभीत होकर असम में शरण लेने को बाध्य हुए हैं – ठीक वैसे ही जैसे एक समय कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन करने को बाध्य हुए थे.
बंगाल के लोग पलायन करने के बाद असम में शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं
चूंकि ममता बनर्जी यह दिखा रही हैं कि बंगाल में चहुंओर अमन-चैन है, इसलिए हकीकत जानने के लिए असम के उन शिविरों का रुख करना होगा, जहां बंगाल के लोग पलायन करने के बाद शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं. इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि कोई अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह रहने को विवश हो, लेकिन देश की मीडिया का एक बड़ा हिस्सा ऐसी प्रतीति बिल्कुल नहीं कराता कि बंगाल में चुनाव बाद बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है और उसके चलते हजारों लोग जान बचाने के लिए बंगाल छोड़कर असम जा पहुंचे हैं. इस पर हैरानी नहीं, क्योंकि एक तो ममता कथित तौर पर सेक्युलर नेता हैं और दूसरे, असम पलायन करने को विवश हुए लोग किसी भाजपा शासित राज्य के नागरिक नहीं हैं.
अगर कहीं बंगाल जैसी हिंसा किसी भाजपा शासित राज्य में होती तो आज नहीं, बहुत पहले ही उसकी खबर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी आ गई होती और अब ऐसे लेख लिखे जा रहे होते कि भारत में फासिस्ट ताकतें किस तरह बेलगाम हो गई हैं? ऐसा नहीं है कि किसी ने बंगाल की चुनाव बाद हिंसा का संज्ञान नहीं लिया. यह काम कई संस्थाओं ने किया, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा, क्योंकि जब कोई राज्य सरकार ही अपने लोगों की जान की दुश्मन बन जाए तो फिर कोई कुछ नहीं कर सकता. शायद अदालतें भी नहीं, क्योंकि कलकत्ता हाई न्यायालय की पांच सदस्यीय बेंच ने यह पाया कि ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद सब कुछ सही कर दिया है. उसने चुनाव बाद हिंसा पर लगाम लगाने के लिए ममता सरकार की तारीफ भी की और इस हिंसा की जांच के लिए विशेष जांच दल का गठन करने की मांग खारिज कर दी. अब यही मांग उस याचिका में की गई है, जिसकी सुनवाई सात जून को होनी है. कायदे से यह याचिका बहुत पहले सुनी जानी चाहिए थी, लेकिन कोई नहीं जानता कि देर क्यों हो गई? यह देरी इसलिए क्षोभ का विषय है, क्योंकि हमारी अदालतें शाम-देर शाम और यहां तक कि रात को भी कुछ मामले सुन लेती हैं. चंद दिन पहले ही दिल्ली हाई न्यायालय में कालाबाजारी-जमाखोरी के आरोपित नवनीत कालरा के जमानत के मामले की सुनवाई शाम को हुई.
सर्वोच्च न्यायालय में बंगाल की राजनीतिक हिंसा पर होगी सुनवाई
कोई नहीं जानता कि सर्वोच्च न्यायालय बंगाल की भीषण राजनीतिक हिंसा पर सुनवाई करते समय किस नतीजे पर पहुंचेगा, लेकिन यह सभी को जानना चाहिए कि इस हिंसा में 23 लोग मारे गए हैं. चार महिलाओं से दुष्कर्म हुआ है. 39 महिलाओं को दुष्कर्म की धमकियां दी गई हैं. 2157 लोगों पर हमला किया गया. 692 लोगों को हत्या की धमकी दी गई. 3886 लोगों की संपत्ति नष्ट की गई. 6778 लोग अपने गांव-घर से पलायन करने के बाद असम के 191 शिविरों में शरणार्थी के रूप में रहने को विविश हैं. यह आंकड़ा उस ज्ञापन में दर्ज है, जिसे सचेतन नागरिक मंच नामक संगठन ने राष्ट्रपति को दिया है. अगर यह विवरण सत्य है तो यह राष्ट्र के माथे पर कलंक है और इसके लिए बंगाल से लेकर दिल्ली में उच्च पदों पर बैठ सभी लोग जिम्मेदार हैं, क्योंकि कोई कुछ नहीं कर पा रहा है.
साभार – दैनिक जागरण