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किसकी है खता, किसे दें हम सजा

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जयराम शुक्ल

मूल्य, कीमत और दाम में फर्क है. बाजार ने इस फर्क को धो दिया. अब मूल्यों के भी दाम होते हैं. हम ऊँची कीमतों में मूल्यों को नीलाम होते देख रहे हैं. समय के साथ समाज के पैमाने बदलते हैं और बदली रहती है मूल्यों, दामों, कीमतों की परिभाषा.

इस लेख में न तो कोई विचार है और न ही दर्शन, तथ्यों का विश्लेषण, आंकलन और सूचनाओं का संप्रेषण भी नहीं है इस लेख में. कोई उपदेश, प्रवचन नहीं और न ही किसी सीख का आग्रह. इसमें हैं कुछ सीधी सच्ची कथाएं जो हमारे गांव से शुरू होती हैं.  इनकी अनुगूंज आपके भी गांव-कस्बे या शहर में सुनाई पड़ सकती हैं. पूरा बाँचने के बाद अपने इर्द- गर्द झांकिए, सभी किरदार मिल जाएंगे. तो पहले इसे बांचिए…

एक

कोई पैतालीस साल पहले की बात है. हमारे गांव के एक महानुभाव शहर की अदालत में बाबू हुआ करते थे. पढ़े-लिखे, सौम्य-सुशील, सुदर्शनीय और सज्जन. आस-पड़ोस के गांवों में बड़ी इज्जत थी उनकी. सभी को उचित राय देते, झगड़े निपटाते. कुल मिलाकर वे हमारे गाँव की श्री शोभा थे.

वे समय के पाबंद थे, गाँव से 25 किलोमीटर साइकिल चलाकर शहर ड्यूटी पर जाते थे. दफ्तर में उन्हें जो काम मिला था, उसमें बिना माँगे ही दस-बीस रुपए बदस्तूर मिल जाया करते थे. उनकी ऊपर की आमदनी वाली कुर्सी पर नजर गड़ाए एक दूसरे बाबू ने कुछ ऐसा तिकड़म रचा कि वे किसी मुवक्किल से बीस रुपए की रिश्वत लेते हुए ट्रेप हो गए. यह आपातकाल का दौर था.

गांव में यह खबर जंगल में आग की  तरह फैली कि बाबूजी रिश्वत लेते पकड़े गए हैं. वे नौकरी से मुअत्तिल होकर वे मुंह छिपाते हुए अंधेरी रात घर लौटे. दूसरे दिन से लोग जब उनके घर के सामने से गुजरते तो ठिठक जाते और तजबीजते की बाबू जी क्या कर रहे हैं. उनका चेहरा अब कैसा होगा. बाबूजी महीनों किसी को नजर नहीं आए. उन्होंने घर से निकलना ही बंद कर दिया.

स्कूल में उनके बच्चों को भी ऐसे ही घूरती नजर से देखा जाता. बच्चे उत्सुकता वश पूछते कि ये घूस-रिश्वत क्या होती है. मैंने भी पहली बार इन शब्दों को सुना था. गांव में शादी-ब्याह, कथा-वार्ता के मौकों पर सलाह-मशविरा होता कि उन्हें न्योता जाए या नहीं. नाते-रिश्तेदारों का भी आना-जाना कम हो गया.

बहरहाल वक्त गुजरा, वे अदालत से बाइज्जत बरी हो गए. अदालत ने पाया कि उन्हें अदावत के चलते फंसाया गया था. उन्होंने कोई रिश्वत नहीं ली थी. उस मुवक्किल ने साफ-साफ बयान किया था कि पड़ोस के बाबू ने उनकी दराज में रुपये रखने को कहा था. साजिश रचने वाले बाबू को भी अपराध बोध हुआ, उसने अपने किए को स्वीकार कर लिया.

सालों बाद अपमान और लांछन की अंधेरी कोठरी से जब बाबूजी बाहर निकले तो ..वो.. वो नहीं रह गए, जो पहले थे. अर्धविक्षिप्त से, पूरे समाज के प्रति कड़वाहट लिए हुए.

गांव के लोग उनके रिश्वत लेते हुए पकड़े जाने के वाकये को भुला चुके थे. उन्हें पुन: ससम्मान बुलाए जाने लगा, पर वे जाते कहीं नहीं थे. बाइज्जत बरी हो जाने के बाद भी रिश्वत लेने के आरोप का अपमान और लांछन सीने में जज्ब किए हुए, वे तरक्की के साथ रिटायर्ड हुए और एक दिन इस दुनिया से चल बसे.

अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी किया, पर वे खुद की नजरों से मरते दम तक बरी नहीं हो पाए.

दो

हमारे गांव में एक मास्टर साहब हुआ करते थे. आदर्श अध्यापक के जितने गुणों का बखान किया जाता है वे तमाम उनमें थे. स्कूल में प्रार्थना, सुभाषित श्लोक आदि सब वही बच्चों को सिखाते थे. उनकी कक्षा से पढ़कर निकले बच्चे की हैंड रायटिंग बता देती थी कि वह फला मास्साब की क्लास में पढ़ा होगा. मास्साब की छोटी सी काश्तकारी और मामूली से वेतन में सात संतानों का पालन-पोषण करते व उन्हें भी पढ़ाते -लिखाते.

उनकी ईमानदारी, सद्चरित्रता और अनुशासन की मिसाल गांव ही नहीं आस-पड़ोस में दी जाती थी. वक्त का पहिया अपनी गति से घूमता रहा. वे स्कूल से ससम्मान रिटायर्ड हुए.

उनके चार बेटों में से तीन नौकरी पर लग गए. बड़े बेटे को कॉपरेटिव में छोटी सी नौकरी मिली. इस छोटी सी नौकरी में भी काम बड़ा था. पीडीएस के राशन को गरीबों तक पहुंचाने का काम.

ऐसी संगत मिली कि गरीबों का राशन कालेबाजार में बिकने लगा. छोटी सी नौकरी में भी बड़ी रकम आने लगी. पहले हजारों में फिर लाखों में.

गांव में खबर उड़ी कि मास्टर साहब के बेटे को कॉपरेटिव में कुबेर का खजाना मिल गया. कालेबाजार में राशन बेचने से अर्जित बेटे की काली कमाई का धन मास्टर साहब जमीन खरीदने में लगाने लगे.

स्थितियां कुछ ऐसे बन गईं कि गांव में हर मुसीबत का मारा रुपये के लिए अपनी जमीन की पुल्ली, खसरा लेकर गिरवी रखने मास्टर साहब की शरण में जाने लगा.

कभी पांच एकड़ के काश्तकार रहे मास्टर साहब कब पचास एकड़ के व्योहर (जमींदार) बन गए, किसी को पता ही नहीं चला.

एक दिन गांव से खबर मिली व्योहर बाबा नहीं रहे. मैंने पूछा कौन व्योहर बाबा तो बताया गया वही अपने ईमानदार, मूल्यों पर जीने वाले मास्टर साहब.

तीन

यह कहानी गांव के एक ऐसे स्वाभिमानी युवक की है, जिसे एक दिन पुलिस पड़ोस में हुई एक चोरी के संदेह में पकड़ ले जाती है. तफ्तीश के बाद असली चोर माल सहित पकड़े जाते हैं और इसे छोड़ दिया जाता है.

युवक खुद की नजरों में इतना जलील होता है कि थाने से छूटकर गांव लौटने की बजाय दूर किसी शहर चला जाता है. वहीं मेहनत मजदूरी करता है और गांव में रह रहे वृद्ध माता-पिता और नवव्याहता पत्नी के लिए मनीआर्डर भेजता था.

सालों-साल बाद हिम्मत जुटाकर वह गांव लौटता है. लेकिन उसे लगता है कि लोग बीस साल बाद भी उसे चोर नजर से ही देखते हैं. वह फिर गांव के लोगों के बीच घुलमिल नहीं पाता.

जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए, उनका डिप्रेशन और चिड़चिड़ापन बढ़ता जाता है. हर वक्त डर सताता है कि कहीं उसके बच्चे भी तो उसे चोर नहीं मानते. एक दिन घर में पत्नी से हुई जरा सी बात में यह कहते हुए सल्फॉस की गोली गटक कर जान दे दी कि ….वह चोर नहीं है.

चार

इस तरोताजा कथा का समूचा घटनाक्रम पिछले एक डेढ़ दशक में घटित होता है.

गांव का एक आवारा लड़का शहर आता है पढ़ने के लिए. बदमाशों की संगति से छोटी मोटी राहजनी करने लगता है. गाँव से आए लड़कों की गैंग बनाकर चोरियां करवाता है. पुलिस पकड़ती फिर नाबालिग समझकर छोड़ देती.

धीरे-धीरे मोहल्ले के गुंडे के रूप में उसकी ख्याति फैलती है तो शहर के एक नेताजी उसे अपनी छत्रछाया में ले लेते हैं. वह नेताजी के प्रभाव से छोटे-मोटे ठेके भी लेने लगता है.

सीखने और बड़ा आदमी बनने की ललक के चलते वह कब बड़ा ठेकेदार बन जाता है, यह पता तब चलता है जब लोगों की नजर उसके पैलेसनुमा घर और मंहगी गाड़ियों के बेडे़ पर पड़ती है.

लोग जब तक उसकी कमाई का पता लगा पाते कि वह तहसील स्तर का नेता बन चुका होता है. गांव की पंचायत से लेकर जनपद, जिला पंचायत तक उसके प्रतिनिधि. वह क्रमशः जनपद और जिलापंचायत के अध्यक्ष पद को भी जीत लेता है.

अब राजनीति का राजपथ उसके लिए खुल चुका है. उसे मालूम है कि हाईकमान से टिकटें कैसे झटकी जाती हैं. रुपये के रुआब से कैसे चुनाव जीते जाते हैं. सभी तीन-तिकड़मों में अब वह उस्ताद बन चुका है.

अब वह मंचों में बड़े नेताओं के साथ प्रदेश के भविष्य की चिंता करते हुए देखा जा सकता है. जो पुलिस कभी डंडा लेकर दौड़ाती थी, वह अब कॉर्निश बजाती है, उसकी कार का दरवाजा खोलती है. वर्षों पहले गांव से भागा और शहर में आकर चोर बना वह लफंगा अब हमारे देश की धरोहर है. अपनी पार्टी की अमूल्य निधि और सरकार नीति नियंता और समाज का अनुकरणीय आदर्श.

उपसंहार

उपरोक्त चारों कथाओं पर गंभीरता से चिंतन मनन करिए और बताइए कि इस समाज में भ्रष्टाचार की प्राण प्रतिष्ठा करने वाले कौन हैं?

पहले उनकी गर्दन तलाशिए ताकि उस हिसाब से कानून का फंदा बनाया जा सके. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि वह गर्दन हमारी है, आपकी है.

आपको यह भी तय करना होगा कि भ्रष्टाचार आचरण का विषय है या कि कानून का? इस किस्सागोईनुमा लेख के तथ्यों का विश्लेषण और आंकलन इस बार मैं आप पर छोड़ता हूं.

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