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चरमपंथ, धार्मिक असहिष्णुता एवं साम्प्रदायिकता को बढ़ावा क्यों?

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डॉ. खुशबू गुप्ता

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में “लोकतंत्रात्मक गणराज्य” जैसे महत्वपूर्ण शब्द निहित हैं. यह एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करता है जो न केवल यह बताता है कि शासन लोकतंत्रात्मक होगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि हमारा समाज भी लोकतान्त्रिक होगा. जहाँ स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुता और धार्मिक सहिष्णुता की भावना व्याप्त होगी. इससे न केवल व्यक्तियों में परस्पर सद्भावना और सम्मान का विस्तार होता है, बल्कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में व्यक्ति एक दूसरे के विचारों एवं भावनाओं का सम्मान करना भी सीखता है. परिणामस्वरूप ऐसे परिवेश में व्यक्तियों का नैतिक स्तर भी उत्कृष्ट होता है. यदि हम प्राचीन भारतीय शासन पद्धति को देखें तो समावेशी संस्कृति एवं सामाजिक समरसता शासन व्यवस्था के मुख्य आधार के रूप में परिलक्षित भी होते हैं.

इसी सन्दर्भ में, विगत ९ नवंबर, २०१९ को माननीय सर्वोच्च न्यायलय द्वारा सदियों से विवादित स्थल रामजन्मभूमि पर राममंदिर के निर्माण के पक्ष में फैसला सुनाया गया और इस फैसले का सभी भारतीयों के द्वारा सम्मान भी किया गया. आखिरकार वह दिन आ ही गया, जब देश की १३० करोड़ जनता ने ५ अगस्त को धर्म, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग को भूल कर परस्पर सहयोग, सद्भाव एवं समरसता की भावना से राम मंदिर के शिल्यान्यास को एक उत्सव के रूप में मनाया.

राममंदिर के शिलान्यास तक की यात्रा सहज न होकर बहुत कठिन एवं संघर्षों से भरी यात्रा रही. रामजन्मभूमि स्थल दो समुदायों के मध्य हमेशा एक विवादित मुद्दा रहा, जिसे लेकर आज जब मंदिर निर्माण कार्य का शुभारम्भ किया गया ऐसे में राम मंदिर शिलान्यास पर समुदाय विशेष के कुछ लोगों के द्वारा विवादित बयान दिया जाना निंदनीय हैं. बता दें कि बीते दिनों ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लीमीन के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) के आधिकारिक ट्वीटर अकाउंट से ट्वीट कर यह कहा गया कि “बाबरी मस्जिद थी और हमेशा मस्जिद रहेगी. हागिया सोफिया हमारे लिए एक उदाहरण है. स्थितियाँ हमेशा के लिए एक जैसी नहीं रहती हैं.” वहीं दूसरी तरफ शिलान्यास के अगले दिन ही आल इंडिया इमाम एसोसिएशन (AIIA) के अध्यक्ष साजिद रशीदी ने कहा कि “इस्लाम कहता है कि एक मस्जिद हमेशा एक मस्जिद होगी…मंदिर को ध्वस्त करने के बाद मस्जिद का निर्माण नहीं किया गया था, लेकिन अब मस्जिद बनाने के लिए मंदिर को ध्वस्त किया जाएगा.”  एक तरफ जहां सम्पूर्ण देश राष्ट्रीय एकता और अखंडता, आपसी सौहार्द, समरसता, बंधुता को बनाये रखने के लिए तत्पर रहता है, वहीं कुछ ऐसे मुस्लिम चरमपंथियों द्वारा इसे खंडित करने का प्रयास किया जा रहा है. एक तरफ धर्मनिरपेक्षता का हवाला दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ बहुसंख्यक समुदाय विशेष की भावनाओं को आहत कर मंदिर तोड़ने की धमकी दी जा रही है. क्या यही धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करता है? स्पष्ट तौर से नहीं. धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की उद्देशिका में ४२वें संवैधानिक संशोधन, १९७६ द्वारा अन्तःस्थापित किया गया था. बता दें कि धर्मनिरपेक्षता मूल संविधान की प्रस्तावना में कभी था ही नहीं. बल्कि राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान मौजूदा सरकार ने तत्कालीन परिस्थितियों की वजह से अपने राजनीतिक फायदे के लिए लोकतान्त्रिक मूल्यों की हत्या करके प्रस्तावना में शामिल किया था.

‘धर्मनिरपेक्षता’ यह बताता है कि “राज्य के लिए सभी धर्म समान है और सभी धर्मो के प्रति निष्पक्ष भाव रखता है” . आगे यह भी बताता है कि “धर्मनिरपेक्षता या अल्पसंख्यक वर्ग के अधिकार के नाम पर राष्ट्रीय एकता एवं बल को कम नहीं किया जा सकता क्योंकि बहुसंख्यक वर्ग का विश्वास भी राष्ट्र के लिए समान रूप से आवश्यक है.” जिस छद्म धर्मनिरपेक्षता की बात बीते दिनों जोरों से की जा रही है, वह वास्तव में बहुसंख्यकों की भावनाओं को आहत करने के उद्देश्य से बोला जा रहा है. यह चरमपंथियों की धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धर्मान्धता की पराकाष्ठा को परिलक्षित करता है.

धार्मिक सहिष्णुता तो भारतीय संस्कृति की उत्कृष्ट विशेषताओं में से एक है, जहां धर्मान्धता व धार्मिक मामलों में संकुचित मनोवृत्ति का अभाव पाया जाता है. कट्टरता एवं असहिष्णुता के लिए यहां कोई स्थान नहीं है, बल्कि यह हमें एक दूसरे के धर्म का आदर करना सिखाता है. लेकिन बीते दिनों मुस्लिम चरमपंथियों की भड़काऊ प्रतिक्रिया से स्पष्ट है कि यह न केवल ‘धार्मिक सहिष्णुता’ के विरुद्ध है, बल्कि राष्ट्रीय एकता को खंडित कर परस्पर वैमनस्य बढ़ाने का प्रयास है. समय समय पर समाज में ऐसे ही विवादित बयान और कार्यों से साम्प्रदायिकता को भड़काकर, सुनियोजित तरीके से दंगे कराकर देश को तोड़ने का कार्य किया जा रहा है. ऐसे बयान से यह स्पष्ट होता है कि यह भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवमानना है, साथ ही साथ संविधान एवं न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्न चिन्ह भी लगाया जा रहा है. दो समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ भड़काने का कार्य किया जा रहा है. निश्चित तौर पर एक एजेंडे के तहत जनमानस में संविधान के प्रति, न्यायिक प्रक्रियाओं के प्रति, सरकार एवं शासन व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा किया जा रहा है. लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना की जा रही है.

विदित हो कि भारतीय संविधान की उद्देशिका, राष्ट्रीय एकता और अखंडता बनी रहे, इस उद्देश्य को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है. सभी के हितों को केंद्र में रखकर विचार अभिव्यक्ति, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुत्व को स्थापित करने का प्रयास किया जाता है. परन्तु यदि अल्पसंख्यक वर्ग, बहुसंख्यकों के विश्वास और भावनाओं को दरकिनार कर अधिक वरीयता या लाभ प्राप्त करने की चेष्टा रखता है, तब वह सिर्फ अलगाववाद को बढ़ावा देता है. ऐसी लालसा न केवल हमारे राष्ट्र के आदर्शों एवं राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता और अखंडता के विरुद्ध है, बल्कि स्वतंत्रता का आधार ही संकट में पड़ जाएगा. क्योंकि इससे साम्प्रदायिकता, अलगाववाद को बल मिलता है जो किसी भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के हित में नहीं होगा. इतना ही नहीं यदि शासन अल्पसंख्यक वर्ग की अनुचित मांगों की तुष्टि हेतु बहुसंख्यक वर्ग की धार्मिक भावनाओं एवं अन्य हितों की अवहेलना करता है तो धर्मनिरपेक्षता के मूल अर्थ का उल्लंघन भी करता है. जो हमें यह बताता है कि राज्य के लिए सभी धर्म सामान है. समरसता, सद्भाव, बंधुता, भ्रातृत्व भारतीय शासन की आधारशिला है और यही तो हमारी भारतीय संस्कृति की उत्कृष्ट विशेषताएं हैं. जहां विविधता में एकता, समन्वयवादिता, धार्मिक सहिष्णुता के तत्व समाहित है. यही कारण है कि ५ अगस्त, २०२० का दिन राममंदिर शिलान्यास को न केवल भारतवर्ष में, बल्कि विश्व में ऐतिहासिक दिवस के रूप में देखा जा रहा है.

(असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय)

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