रवि प्रकाश
आगे बढ़ने के लिए भविष्यदृष्टा होना जरूरी है. वर्तमान समय में यदि हम भविष्य की आवश्यकताओं का आकलन कर पाएंगे, तभी हम समय के साथ कदम-ताल कर पाएंगे. जो नहीं बदलेगा, वह पीछे छूट जाएगा. यह व्यक्ति, समाज और देश सब पर लागू होता है. बदलाव के सन्दर्भ में व्यक्ति, समाज और देश के सम्बन्ध अन्योन्याश्रय होते हैं. जाहिर है, समय के साथ व्यक्ति यदि बदलेगा तो उसका लाभ समाज को और देश को होगा. आने वाला समय यानि चौथी औद्योगिक क्रांति के बाद का समय, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (कृत्रिम बौद्धिकता) और मशीन लर्निंग का होगा.
परिवर्तनकारी यानि ट्रांसफॉर्मेटिव टेक्नॉलोजी हमारे जीवन को काफी हद तक प्रभावित करती है. इसे समझने के लिए जानना जरूरी है कि लगभग 200 वर्ष पहले दुनिया के सबसे धनी देश और सबसे गरीब देश के बीच प्रति व्यक्ति आय का अंतर 1:3 था. इन 200 वर्षों में विश्व में 3 औद्योगिक क्रांतियाँ हो चुकी हैं. पहली क्रांति उस समय हुई जब वाष्प इंजन का आविष्कार हुआ. दूसरी औद्योगिक क्रांति का जन्म बिजली के आविष्कार से हुआ और तीसरी औद्योगिक क्रांति ने हमारे हाथों में कंप्यूटर पकड़ा दिया. इन तकनीकों के आने से जो बदलाव हुए हैं, उनका असर यह पड़ा कि सबसे धनवान देश और सबसे गरीब देश के बीच प्रति व्यक्ति आय का अंतर 1:400 हो गया. इस अंतर का मुख्य कारण तकनीकी विकास रहा.
वैश्विक जनसंख्या में हमारी जनसंख्या का हिस्सा 17.6 प्रतिशत है. आबादी की तुलना में वैश्विक उत्पादन में हमारा योगदान लगभग 3 प्रतिशत है. जबकि चीन की आबादी वैश्विक आबादी का 18.4 प्रतिशत है और वैश्विक उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी 28 प्रतिशत है. वर्ष 1986 में हमारी तुलना में चीन की प्रति व्यक्ति आय 15 प्रतिशत कम थी. हमारी तुलना में उनकी क्रय शक्ति 20 प्रतिशत कम थी. मगर आज स्थिति बिल्कुल भिन्न है. हमारी तुलना में आज चीन की प्रति व्यक्ति आय 5 गुणा ज्यादा है. चीन के आगे बढ़ने का सबसे बड़ा कारण तकनीकी विकास है. चीन द्वारा किया जाने वाला निर्यात भी हमारी तुलना में लगभग 30 गुणा ज्यादा है. इन आंकड़ों से हम यह बात बहुत अच्छी तरह समझ जाते हैं कि तकनीक किसी भी देश के विकास में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.
जब हम चौथी औद्योगिक क्रांति के मुहाने पर खड़े हैं, तब हमें यह बात अच्छी तरह समझ में आनी चाहिए कि आने वाले दिनों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बिजली या पेट्रोलियम पदार्थों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगी. जिन क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियाँ संचालित होती हैं, जैसे कि औद्योगिक उत्पादन, प्रबंधकीय कार्य, चिकित्सकीय जाँच और कृषि जैसे क्षेत्रों में कृत्रिम बुद्धिमता का प्रभुत्व बढ़ जाएगा. आने वाले समय में इंटरकनेक्टेड और इंटेलीजेंट मैन्युफैक्चरिंग की भूमिका काफी बढ़ जाएगी और हमें इस दिशा में तैयारी शुरू कर देनी चाहिए.
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का दुष्प्रभाव भी बहुत बड़ा होगा. रोजगार पर इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा. इतना बुरा कि हम अभी से उसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते. गुजरात के साणंद में कार बनाने वाली एक कंपनी ने अपने 80 प्रतिशत कर्मचारियों को रोबोट से बदल दिया है. इसका मतलब हुआ कि जो काम पहले इंसान किया करते थे, अब उनकी जगह रोबोट काम करने लगे हैं. जिस प्रकार से ऑटोमेशन रोबोटिक्स मैकेनाइजेशन की तरफ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माध्यम से लोग आगे बढ़ रहे हैं, इससे न सिर्फ अपने देश में बल्कि संपूर्ण विश्व में बेरोजगारी की चुनौतियाँ उत्पन्न होंगी. अमरीका जैसे देश ने इसकी तैयारी काफी पहले से शुरू कर दी है और जोर-शोर से यह कहना शुरू कर दिया है कि कृत्रिम बुद्धिमता की वजह से बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ेगी. अमेरिका इस वजह से हुए बेरोजगार लोगों को एक निश्चित इनकम उपलब्ध कराने की दिशा में सोच रहा है. अमेरिका के उद्योगपति अब यह कहना शुरू कर चुके हैं कि देश को अपने देश के निवासियों को एक बेसिक इनकम उपलब्ध कराना चाहिए. भारत जैसे देश के लिए, जिसकी आबादी 135 करोड़ से ज्यादा है, यह संभव नहीं है. जिस प्रकार से साणंद में उक्त कार कंपनी ने रोबोट का इस्तेमाल शुरू किया है, आने वाले दिनों में दूसरे शहरों में दूसरी कंपनियाँ भी ऐसा ही करेंगी.
बैंकिंग के क्षेत्र में भी रोबोटिक्स का प्रयोग धीरे-धीरे काफी तेजी से बढ़ रहा है. देश के 4 बड़े बैंकों ने चैटिंग रोबोट्स बैठा रखें हैं. ये रोबोट्स ग्राहकों से पूछे जाने वाले प्रश्नों का उत्तर बैंक के कंप्यूटर से प्राप्त कर दे देते हैं. इसी तरह की व्यवस्था साधारण बीमा कंपनियों में भी कतिपय ग्राहकीय मामलों के लिए की गयी है. जो काम चैटिंग रोबोट्स कुछ पलों में कर लेते हैं, उस काम को करने में मानव को कम से कम 6 से 8 मिनट का समय लग जाता है. उसकी आवाज भी ऐसी होती है, जिससे फोन करने वाले ग्राहक को यह पता नहीं चल पाता है कि वह किसी चैटिंग रोबोट से बात कर रहा है. बदलते हुए इस दौर में जिस तरह मानव श्रम बल का विकल्प ढूंढ़ा जा रहा है, उससे हमारे देश में भी एक गंभीर चुनौती उत्पन्न हो सकती है. कोरोना के संक्रमण के कारण पूरे विश्व में 25 से 30 करोड़ लोग बेरोजगार हो चुके हैं. अपने देश में जो श्रमबल महानगरों को छोड़कर गांव में गए हैं और यदि वह नहीं लौटते हैं तो ऐसी स्थिति में भी मैन्युफैक्चरिंग कंपनियाँ रोबोट का सहारा लेने के विषय में गंभीरता से सोचना शुरु कर देंगी.
भारत जैसे देश को मानव श्रम बल की जगह रोबोट के प्रयोग के मुद्दे को इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन और युनाइटेड नेशंस ट्रेड एंड डेवलपमेंट कॉन्फ्रेंसेज में उठाना चाहिए. यह एक ऐसी समस्या है, जिसके लिए भारत को आवाज उठाना बहुत जरूरी है. इस बात पर चर्चा करनी चाहिए कि मानव श्रम बल का कितना प्रतिशत ऑटोमेशन रोबोटिक्स होना चाहिए. ऑटोमेशन पर हम रोक नहीं लगा सकते हैं, मगर इसकी सीमा निर्धारित करने दिशा में प्रयास कर सकते हैं. इसके साथ ही हमें यह प्रयास भी शुरू कर देना चाहिए कि मशीनीकरण की वजह से बेरोजगार हुए लोगों के लिए कहीं रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए.
यदि हम ऐसा सोचते हैं कि मशीनीकरण का प्रभाव सिर्फ मजदूरों पर पड़ेगा तो हम गलत सोचते हैं. हर वर्ग के लोग इससे प्रभावित होने वाले हैं. श्रम बल मशीनीकरण से प्रभावित होगा, अन्य वर्गों को कृत्रिम बौद्धिकता प्रभावित करेगी. स्वास्थ्य सेवा, जिसमें डायग्नोस्टिक्स भी शामिल है, के क्षेत्र में कृत्रिम बौद्धिकता का असर बहुत अधिक पड़ने वाला है. कुछ ऐसे एल्गोरिद्म तैयार कर लिए गए हैं, जो किसी भी व्यक्ति की वर्तमान रिपोर्ट को देखकर भविष्य में होने वाली बीमारियों के विषय में बता सकते हैं. यह सिर्फ होने वाली बीमारियों के विषय में ही नहीं बताता है, बल्कि समाधान भी सुझाता है.
अब समस्या यह है कि ऐसे सॉफ्टवेयर हम अपने देश में बनाते नहीं हैं. यदि हम इन सॉफ्टवेयर को खरीदेंगे तो देश का बहुत सारा पैसा विदेश चला जाएगा. ऐसी स्थिति में हमें इस प्रकार के सॉफ्टवेयर अपने देश में विकसित करने के प्रयास शुरू कर देने चाहिए. यदि हम अभी से प्रयास शुरू करेंगे तो आने वाले कुछ वर्षों में हम इसे न सिर्फ बना लेंगे, बल्कि इसे विश्व के दूसरे देशों में बेचना भी शुरू कर देंगे. खरीदने में जो पैसा खर्च होने वाला था, वह तो बचेगा ही बल्कि इसकी बिक्री कर हम पैसा भी कमाने लगेंगे और हमें आर्थिक महासत्ता बनने से कोई रोक नहीं पाएगा. वर्तमान समय में सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट के वैश्विक बाजार में हमारी हिस्सेदारी 0.7 प्रतिशत है. वैसे इसका एक और दिलचस्प पहलू भी है और वह यह है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में इस समय दुनिया में लगभग 700 कंपनियाँ काम कर रही हैं. इनमें से एक भी कंपनी भारतीय नहीं है, मगर इन कंपनियों में काम करने वाले 45 से 50 प्रतिशत लोग भारतीय हैं. ये कंपनियाँ उन्नत अनुसंधान करके आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में अच्छा काम कर रही हैं. आश्चर्य की बात है कि हम भारतीय दूसरे देश की कंपनियों के लिए काम करना पसंद करते हैं, मगर अपने देश में अपनी कंपनी खड़ी नहीं करते हैं. हमें इस कार्य के लिए स्टार्टअप्स के विषय में गंभीरता से सोचना चाहिए.
जब हम गाड़ियों की बात कर रहे हैं तो हमें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि भारत सरकार ने यह घोषणा कर दी है कि 2030 के बाद इस देश में पेट्रोल और डीजल से चलने वाली गाड़ियां नहीं होंगी. इन गाड़ियों का स्थान लिथियम बैटरी से चलने वाली गाड़ियाँ ले लेंगीं. अब समस्या यह है कि पेट्रोल और डीजल से चलने वाली गाड़ियों में जितने पार्ट-पुर्जे लगते हैं, उसकी तुलना में लिथियम बैटरी से चलने वाली गाड़ियों में बहुत कम पार्ट-पुर्जे होते हैं. वर्तमान समय में लगभग 2000 कंपनियाँ ऐसी हैं जो पूरे देश में पेट्रोल और डीजल गाड़ियों के लिए पार्ट-पुर्जे बनाती हैं. जब लिथियम बैटरी से गाड़ी चलने लगेगी, तब इन कंपनियों के उत्पादों की बाजार में जरूरत नहीं रह जाएगी. बैटरी से चलने वाली गाड़ियों का मेंटेनेंस कम होगा क्योंकि उसमें पार्ट पुर्जे कम होंगे. ऐसी स्थिति में इन दिनों जो मैकेनिक काम कर रहे हैं, उनकी माँग भी घटेगी.
यहां एक समस्या और आएगी कि हम अभी से लिथियम बैटरी के विषय में नहीं सोच रहे हैं. भारत में लिथियम बैटरी का उत्पादन नहीं होगा तो हमें बाहर से लाना होगा. जिस चीज की जरूरत हमें 10 साल के बाद पड़ने वाली है, हमें उसकी तैयारी आज से करनी पड़ेगी. वर्ष 2030 तक लिथियम बैटरी के बाजार का आकार 21 लाख करोड़ रुपये से अधिक बड़ा हो जाएगा, जो भारत के जीडीपी एक बड़ा हिस्सा होगा. आवश्यकता इस बात की है कि जो नई तकनीकी आ रही है, उनके लिए अपनी तैयारी कैसे करें. हमारे सामने चीन जैसे विशाल देश से लेकर जापान और सिंगापुर जैसे छोटे देशों तक के उदाहरण उपलब्ध हैं. भारत में मेधा और प्रतिभा की कोई कमी नहीं है. संकट यह है कि अवसरों के अभाव में इन प्रतिभाओं का देश से पलायन हो रहा है. इससे भी बड़ी दुःख की बात यह है कि हमारी प्रतिभाओं द्वारा संकल्पित और निर्मित सामग्रियों को हम विदेशों से खरीद रहे हैं. ऐसे में भारत के ‘मेक इन इंडिया’ से बड़ी आशा है. यद्यपि मेक इन इंडिया के मूल्यांकन के लिए चार-पाँच वर्षों का समय बहुत अधिक नहीं है. तथापि, इतने समय में जो अपेक्षित प्रगति होनी चाहिए थी, उसकी स्थिति बहुत उत्साहवर्धक नहीं है. इस बीच ‘आत्मनिर्भर भारत’ की परिकल्पना सही सोच के सही दिशा में सही कदम है. सच तो यह है कि ‘मेक इन इंडिया’ को ‘मेड बाई इंडिया’ के साथ सम्बद्ध करके ‘आत्मनिर्भर भारत’ की कल्पना को कम समय में साकार किया जा सकता है. तभी हम तकनीक की धुआँधार प्रगति से ताल-मेल बिठा कर चौथी औद्योगिक क्रान्ति में एक सशक्त और लाभकारी सहभागी बन पाएंगे.