निवेदिता सक्सेना
विज्ञान में सजीव व निर्जीव में एक ही मुख्य अंतर है, वो है कोशिका. सभी सजीवों में कोशिका पाई जाती है औऱ कोशिका की ईकाई है जीव द्रव्य. कुछ यही विचार मुझे परिवार में भी नजर आता है. जिसकी मुख्य धारा होती है, एक नारी.
जरूरी नहीं कि हर महिला नौकरी पेशा हो. एक नारी पति के साथ-साथ सास-ससुर, बच्चे सभी से मुख्य रूप से जुड़ी होती है. परिवार में सामंजस्य बनाए रखना किसी नौकरी से भी ज्यादा पेचीदा होता है. परिवार के सभी सदस्यों की भावनाओं को समझना, उनके कदम से कदम मिला कर चलना, मानो नारी के व्यक्तित्व का हिस्सा हो. एक नारी – कभी मां बनकर स्नेह लुटाती है, तो कभी बेटी बनकर सास ससुर की सेवा करती है, तो कभी पत्नी बनकर पति का सहारा बनती है और कदम से कदम मिला कर चलती है; कभी काली बनकर शत्रु संहार करती है, कभी बेजुबानों की आवाज बन जाती है, तो कभी चांद पर पहुंचकर बुलंदियों का परचम फ़हराती है. आसान नहीं होता स्नेह से बंधे घर (मायके) को छोड़ एक ऐसे घर (ससुराल) में जाना, जहां गृहस्थ जीवन की जिम्मदारियां इंतज़ार कर रही हों.
मैं ध्यान कर रही थी, जब शादी के बाद विदाई होती है तो विदा के समय रोते हुए भी मायके की दहलीज पर सुपडे पर रखे चावल वह पीछे की ओर बिना देखे फैंकती है. इस रस्म के पीछे एक बहुत सुंदर सन्देश छिपा होता है, और भगवान से अपने मायके के लिए मंगल कामनाएं छिपी होती हैं. जिसे विदाई का सुखद शगुन माना जाता है. हे ईश्वर, मेरे जाने के बाद ये घर हमेशा हंसता, मुस्कुराता, सुखी व सम्पन्न रहे.
हमारी भारतीय परम्पराओं को जीवन का एक सुखद सन्देश देती हैं और नवजीवन की ओर अग्रसर होने के रास्तों को भी सरल बनाती है – एक नारी. निश्चित ही विदाई के समय देहरी छोड़ते समय ये परम्परा भी नए परिवार से जुड़ने और अपने नए परिवार की आत्मा बन जाने को कहती है, बिल्कुल वैसे ही जैसे हम मायके में बेटी और ससुराल में बहु, ये नया रिश्ता ससुराल व बहु के मध्य अरमानों, अपेक्षाओं के स्वप्न संजोए होता है. और यहीं से शुरुआत होती है, अपने कर्तव्यों को भलीभांति समझने की.
वर्तमान में पीढ़ी दर पीढ़ी बदलाव तेजी से आये हैं. लिंग भेदभाव अब नहीं रहा. नारी अब उच्च शिक्षित हो चुकी है तो अब कोई परिवार नहीं टूटेगा क्योंकि शिक्षा व्यक्तित्व का निर्माण करती है – यह तथ्य कभी कभी झुठला जाता है क्योंकि वास्तविकता में ऐसा नहीं हो रहा. बिखरते संयुक्त परिवार और एकल परिवार में भी बढ़ते पति-पत्नी के अलगाव इस बात को झुठला देते हैं. जहां उच्च शिक्षित महिला के आगे पुरुष निरीह होता जा रहा है, एक बेबसी उसे झकझोर रही है.
अगर इनके कारणों पर विचार किया जाए तो ये बहुत बड़े नहीं होते. विचार किया जाए तो इन रिश्तों को बनाए रखने के लिए थोड़ा संयम, धैर्य, सहनशीलता, कुछ त्याग और उसके बाद जागती है रिश्तों में अपनत्व की भावना की किरण, जो पूरे परिवार को धीरे-धीरे रोशन करती है. लेकिन, ये सब तुरन्त नहीं होता है, अनुकूल समय की प्रतीक्षा होनी चाहिए. बिल्कुल वैसे ही जैसे बीज से पौधा बनने में समय लगता है और उसकी परिपक्वता के बाद फल आता है. वैसे ही नए रिश्तों को भी समय लगता है. जैसे किसान जानता है एक बीज को कैसे रोपना है. बिल्कुल वैसे ही एक बेटी के माता पिता उसका पालन पोषण बहुत अच्छे से करते हैं जो जीवन के कई कठिन अनुभवों से सरलता से बाहर निकलने में मदद करते हैं. फिर एक दिन उसे जीवन भर के अटूट विश्वास के साथ उसका हमसफर चुनकर उसका विवाह करते हैं, क्योंकि उनके लगाए बीज से अब विशाल वृक्ष बनने वाला है. जिसकी शीतल छाया में पूरा परिवार तृप्त आत्मा के साथ निश्चिंतता से रहेगा.
लेकिन शिक्षित बिटिया की शादी करना, ये कहना की वह पढ़ी लिखी है इसीलिए वह घर का काम करने में असमर्थ है, अगर घर का काम करवाना है तो कामवाली रखना उचित होगा – ये सभी बातें शादी के बाद सब करते हैं. आश्चर्य तब होता है, जब शादी के पहले ये सब बातें कोई नहीं करता, ना ससुराल पक्ष, ना ही मायके से. उसी बीच लड़का-लड़की प्रिवेडिंग शूट में व्यस्त रहते हैं, जिसे एक गोल्डन टाइम कहा जाता है.
वैसे भी रिश्ते के जुड़ने के साथ मोबाइल की अपनी एक अहम भूमिका हो गयी है क्योंकि अब यही मोबाइल वास्तविक जीवन का बैटरी चार्जर है और रिश्तों के टूटने की मुख्य वजह भी. विचारणीय है कि शायद माँ ने अपनी बेटी की परवाह इतनी तब नहीं की, जब वह मायके में थी. लेकिन जैसे ही वह ससुराल में जाती है वैसे ही बेटी के लिए माँ मस्तिष्क में दिन रात डायल मम्मी चलता रहता है. सम्भव है कि जरूरत से ज्यादा डायल मम्मी, पति-पत्नी के नाजुक रिश्तों को 100-डायल तक पहुँचा देती है क्योंकि बेटी को नए रिश्तों की अपेक्षा माँ से अधिक कंफर्ट जोन लगता है. इस कारण नए रिश्तों (पति, सास ससुर आदि) के प्रति भावुक सम्बन्ध को समझ नहीं पाई और उसे ससुराल के सभी रिश्तों में बन्धन नजर आने लगा. बन्धन, ये शब्द भी मैंने पुलिस व न्यायिक क्षेत्र के सभी लोगों से विमर्श में जाना कि जितनी शिक्षा में प्रगति होती जा रही है तो वहीं भारतीय परिवार व समाज का विकास होने के बजाए बिखर रहा है, क्यों?
आखिर कमी कहां आ रही, तब जबकि महिला व पुरुष को समान दर्जा प्राप्त है. इसका तात्पर्य काम से लेकर जिम्मेदारी सब बराबरी से है. हाल ही में एक शॉर्ट फ़िल्म देखी, जिसमें कोरोना काल के चलते पति की नौकरी चली गयी. वहीं पत्नी ने जिम्मेदारी को अपने कंधों पर लिया, साथ ही पति की हिम्मत बढ़ाई. जिससे फिर एक नई शुरुआत होने लगी और रिश्तो में बन्धन मजबूत व प्रगाड़ होने के साथ साथ परिवार में उमंग, उत्साह व उल्लासपूर्ण वातावरण बन गया. सुखी व सक्षम परिवार बनने में समय जरूर लगा, लेकिन यहां ये समझना भी जरूरी है कि समय के अनुसार परिवर्तन रिश्ते व परिस्थितियों दोनों में होता है.
वास्तविकता है कि भारत में महिला को देवी स्वरूप माना जाता है. नारी कभी लक्ष्मी बनकर घर को सवार देती है तो कभी सरस्वती बन कर कला में निपुणता, बोली में मिठास घोल लेती है तो कभी दुर्गा बनकर दुर्गम परिस्थितियों को भी सुगम बना देती है. इसलिए उसकी जिम्मेदारी भी पुरुषों से ज्यादा होती है. इतिहास गवाह है कि नारी ने कभी हार नहीं स्वीकारी चाहे अपने सतित्व को बचाने के लिए अग्निकुंड में स्वयं की आहुति ही ना क्यों ना डल जाए या देश की रक्षा के लिए तलवार उठाकर युद्ध करना पड़े.
हमारी परंपरा में हर कार्य की शुरुआत भी कुलदेवी पूजन, माता पूजन से होती है.
वर्तमान कोरोना संकटकाल में भी चुनौतियाँ अपार हैं, ऐसे में महिलाओं पर जिम्मेदारी निश्चित बढ़ेगी. ये उसे स्वयं समझना होगा. एक शिक्षित महिला से सक्षम परिवार बनेगा.
जिम्मेदारी हमारी
नारी राष्ट्रस्य, अक्शि अस्ति
महिलाएं देश की आंख होती हैं.
यदि पुरुष व नारी में समानता का भाव है तो ही देश का विकास सही मायनों में संभव है.