नई दिल्ली. अधीश कुमार जी का जन्म आगरा के एक संघ सहयोगी परिवार में 17 अगस्त, 1955 को हुआ था. अधीश जी के पिताजी जगदीश नारायण भटनागर एक विद्यालय में प्रधानाचार्य रहे. परिवार में पिताजी, माताजी श्रीमती उषादेवी, भाई सर्वश्री अवनीश, आशुतोष, आशीष, बहन श्रीमती पूनम हैं. अधीश जी सभी भाई-बहनों में सबसे बड़े थे.
आगरा कालेज से बीएससी करने के पश्चात् उन्होंने एलएलबी की डिग्री हासिल की. 1968 में विद्या भारती के पूर्व संगठन मंत्री लज्जाराम तोमर जी के सम्पर्क में आकर अधीश जी का संघ में प्रवेश हुआ. तभी से वे आगरा की विजय नगर कॉलोनी की संघ शाखा से जुड़े. 1973 में प्रचारक के रूप में कार्य करने का निर्णय लिया. तत्पश्चात् अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के आगरा विभाग संगठन मंत्री, फिर उत्तर प्रदेश के प्रदेश मंत्री रहे. आपातकाल के दौरान उन्होंने लोकतंत्र की रक्षार्थ सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश के विद्यार्थी आंदोलन का नेतृत्व किया. उसी समय जेल भी गए और भीषण अत्याचार झेले.
आपातकाल के पश्चात् सन् 1981 में अधीश जी पर प्रत्यक्ष संघ कार्य का दायित्व आया. उन्होंने मेरठ नगर प्रचारक, सहारनपुर जिला प्रचारक, सहारनपुर विभाग प्रचारक, प्रांत बौद्धिक प्रमुख जैसे विभिन्न दायित्व निभाए. बचपन से ही सामान्य ज्ञान, इतिहास, पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन के प्रेमी अधीश कुमार उत्तर प्रदेश के क्षेत्र प्रचारक प्रमुख, अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख तथा अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख के नाते लंबे समय तक लखनऊ रहे. बाद में उनका केन्द्र दिल्ली निश्चित हुआ था. विश्व संवाद केन्द्रों की योजना, रचना तथा विकास की दिशा अधीश जी की कल्पना का परिणाम है.
1975 में इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल का सबसे पहला शिकार मीडिया ही हुआ था. सभी स्वाभिमानी पत्रकार जेल में थे, जो पत्रकार-संपादक जेल से बाहर थे उनके विषय में लालकृष्ण आडवाणी की उक्ति प्रसिद्ध है – उन्हें झुकने के लिए कहा गया था, लेकिन उन्होंने रेंगना शुरू कर दिया. ऐसे रीढ़विहीन रेंगते हुए कलम चलाने वाले मजदूरों को देख उपजी वितृष्णा ने विश्वविद्यालय के छात्र अधीश को पत्रकार बना दिया.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवनव्रती प्रचारक के रूप में कार्य करते हुए भी निर्भीक पत्रकारिता की वह प्रवृत्ति चूकी नहीं, केवल रूपांतरित हुई. इसका प्रकटीकरण हुआ विश्व संवाद केन्द्रों की स्थापना के रूप में जहां से मीडिया जगत में पत्रकारिता की राष्ट्रवादी धारा के पत्रकारों की एक पूरी शृंखला विकसित हुई.
अधीश जी के लेखन में भाषा के संस्कार, तथ्यों की शुद्धता, सूक्ष्म विश्लेषण, प्रवाहपूर्ण प्रस्तुतीकरण और विषयों का वैविध्य पाठक पर अपनी अलग छाप छोड़ता था. दर्जनों पुस्तकों का लेखन, संपादन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हजारों लेखों के प्रकाशन के बावजूद मीडिया के लिए वे गुमनाम ही बने रहे.
छोटे नगरों और कस्बों से निकलने वाले समाचार पत्रों को स्तरीय सामग्री के अभाव से जूझते हुए उन्होंने देखा. अच्छी सामग्री छापने का उपदेश देने के बजाय उन्होंने स्वयं के प्रयासों से ऐसे समाचार पत्र-पत्रिकाओं को साप्ताहिक रूप से देश-विदेश के महत्त्वपूर्ण समाचार एवं जाने-माने स्तंभकारों के लेख उपलब्ध कराने प्रारंभ कर दिए। पत्र-पत्रिकाओं को यह सामग्री साप्ताहिक आधार पर नि:शुल्क उपलब्ध कराई जाती थी। इस योजना से नियमित लाभान्वित होने वाले समाचार पत्र-पत्रिकाओं की संख्या छह सौ से भी अधिक है. देशभर में हजारों युवा और नवोदित पत्रकारों को अधीश जी का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ.
प्रचार विभाग का कार्य करते हुए राजनीतिक दृष्टि से विपरीत विचारधारा वाले विभिन्न आलोचकों के साथ भी वे अच्छी घनिष्ठता बनाए रखने में सफल रहे.
भोजन और वस्त्र के विषय में भी उनकी बड़ी संकोची प्रवृत्ति थी. कई-कई दिन मात्र चाय पर निकल जाते, पर कभी भी किसी को स्वयं भोजन के लिए नहीं कहते थे. उनके ही साथ के कार्यकर्ता डॉ. कृष्ण गोपाल (वर्तमान सह सरकार्यवाह) अपने छात्र जीवन की घटना बताते हैं – “एक बार विद्यार्थी परिषद् के कार्य के सिलसिले में अधीश जी हमारे छात्रावास में आए. उनका चेहरा देखकर मैंने पूछा – क्या सवेरे भोजन नहीं हुआ.” सहज हास्य से उत्तर मिला, “कई सुबह निकल गईं.”
कार्य में सतत व्यस्तता, सभी की चिंता परन्तु अपने शरीर के प्रति उपेक्षा के परिणामस्वरूप स्वास्थ्य में गिरावट आनी प्रारंभ हुई. जुलाई, 2006 में नई दिल्ली में हुई जांच में कैंसर होने की पुष्टि हुई. शरीर पर भले ही कितना भी कष्ट रहा, किन्तु सदैव प्रसन्न रहकर सबसे वार्ता करना अंत तक चलता रहा. अपनी भीषण बीमारी के बारे में वे सब कुछ जानते थे, किन्तु कभी भी मृत्यु से भयभीत नहीं दिखे. एक स्थितप्रज्ञ के समान निश्चिन्त भाव से उन्होंने इहलोक से प्रयाण किया. इस बीच दिल्ली में संघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं के समक्ष 12 अप्रैल 2007 को उन्होंने 1857 के स्वातंत्र्य समर की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर अपनी चिर परिचित शैली में विस्तार से तथ्यपूर्ण विश्लेषणात्मक संबोधन किया. वही उनका अंतिम सामूहिक संबोधन सिद्ध हुआ। जिसे पहले से पता नहीं था, वह उस दिन कल्पना भी नहीं कर सकता था कि वे कितने भीषण रोग से पीड़ित हैं.
इसी वर्ष मार्च में लखनऊ में सम्पन्न प्रतिनिधि सभा की बैठक में पूरे मनोयोग से भाग लिया। उस समय कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि काल इतना शीघ्र हमें उनसे विलग कर देगा। प्रतिनिधि सभा के पश्चात् नागपुर में पुन: हुए चिकित्सकीय परीक्षणों में रोग के फैलने की पुष्टि हुई. मृत्यु से पहले (3 जुलाई) को ही सवेरे सभी परिजनों एवं क्षेत्र प्रचारक दिनेश चंद्र के सम्मुख अपनी मन:स्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने यह बात कही, “मुझे किसी प्रकार की इच्छा नहीं, किसी के प्रति कोई राग-द्वेष नहीं, ईश्वर से बस इतना ही चाहता हूं कि मेरे मन-बुद्धि का अंत तक संतुलन बनाए रखे.”
अखिल भारतीय बैठक में जा रहे सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी जी से विस्तृत बात की और कहा कि बैठक का वृत्त जानने की इच्छा केवल इस कारण है कि संघ की सद्य:स्थिति और भविष्य की दिशा से अवगत बना रहूं.
दिल्ली में शल्यक्रिया की योजना हुई परंतु तब तक चिकित्सकों ने इसे जोखिमपूर्ण मानकर मूलरोग की शल्यक्रिया के विकल्प को नकार दिया और वैकल्पिक तौर पर मई, 2007 में अपोलो अस्पताल में शल्यक्रिया की गई। बार-बार श्वसन तंत्र में पानी भरने के कारण स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता गया और 4 जुलाई को कोमा में चले गए और अंतत: गुरुवार (5 जुलाई, 2007) अपराह्न 4 बजकर 18 मिनट पर उनका भौतिक जीवन पूर्ण हुआ.
(अधीश कुमार जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नयी पीढ़ी के उन गिने चुने ऊर्जावान प्रचारकों की टोली में से एक थे, जिन्होंने अल्प समय में ही संघ कार्य को नई दिशा दी तथा कार्य का विस्तार सर्वसाधारण लोगों तक करने में अहम भूमिका निभायी. स्वयंसेवकों में अधीश जी के नाम से चर्चित स्व0 अधीश कुमार सामान्य स्वयंसेवकों में ऐसी ऊर्जा का संचार करने में सक्षम थे कि साधारण सा दिखने वाला कार्यकर्ता भी उनके स्पर्श से कंचन बन कर संघ जिम्मेदारी को असाधारण रूप से सम्पन्न करने में सक्षम हो जाता था. अधीश मात्र 51-52 वर्ष की अल्पायु में ही संसार छोड़ कर चले गये, लेकिन उनका तपस्वी व्यक्तित्व आज भी हमारे सामने मूर्तिमान खड़ा है तथा संघ कार्य में उन्हीं की तरह तिल-तिल कर होम हो जाने की सतत्-प्रेरणा दे रहा है. स्व0 अधीश जी को शत शत प्रणाम. – सम्पादक)