विश्व हिन्दू परिषद – धर्म संसद, 24, 25, 26 नवम्बर, 2017
उडुपी. धर्म संसद के दूसरे दिन (25 नवंबर) के अधिवेशन की अध्यक्षता मुम्बई के पूज्य स्वामी विश्वेश्वरानंद जी महाराज ने की. इस सत्र में विश्व हिन्दू परिषद के कार्याध्यक्ष डॉ. प्रवीण भाई तोगड़िया जी ने विश्व हिन्दू परिषद का निवेदन प्रस्तुत करते हुए कहा कि अस्पृश्यता शास्त्रसम्मत नहीं है. वेदों सहित किसी भी धर्मशास्त्र में अस्पृश्यता की मान्यता नहीं है. विश्व हिन्दू परिषद भारत से अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए कटिबद्ध है. उडुपी में 1969 से प्रारंभ हुआ यह अभियान अपना प्रभाव दिखा रहा है. राम जन्मभूमि का शिलान्यास एक दलित कार्यकर्ता कामेश्वर चौपाल द्वारा करवाकर व डोम राजा के घर पर संतों का भोजन कराकर विश्व हिन्दू परिषद ने अपने संकल्प को आगे बढ़ाया है. अब ‘हिन्दू मित्र परिवार योजना’ द्वारा लाखों हिन्दू दलित बन्धुओं के साथ पारिवारिक सौहार्द निर्माण कर रहे हैं. ‘एक मंदिर, एक कुंआ, एक श्मशान-तभी बनेगा भारत महान्’ का मंत्र सारे भारत में घूम रहा है.
अमरावती महाराष्ट्र से पधारे पूज्य जितेन्द्रनाथ जी महाराज ने अस्पृश्यता उन्मूलन का प्रस्ताव रखते हुए कहा कि समरसता के लिए यह समय सबसे अधिक उपयुक्त है. समरसता का मंत्र साकार होते हुए दिखाई दे रहा है. महामहिम राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री समरसता के जीवंत उदाहरण हैं. वेदों व शास्त्रों के अध्ययन का अधिकार सबको मिलना चाहिए. भारत के सभी संत मिलकर अस्पृश्यता का कलंक मिटाने का संकल्प लेते हैं. यह समाप्त होगी ही और समरस भारत एक महाशक्ति के रूप में प्रकट होगा. जब हमारे इष्ट देवों की कोई जाति नहीं तो भक्तों की कैसे हो सकती है ?
रेवासा पीठाधीश्वर पूज्य राघवाचार्य जी महाराज ने प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए कहा कि मुस्लिम और अंग्रेजों के शासन ने ही इस भेदभाव का निर्माण किया और इसको मजबूती दी. गुलामी की देन इस कुप्रथा का उन्मूलन करके ही भारत को मजबूती दी जा सकती है. बौद्ध संत भन्ते राहुलबोधि जी ने भी इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए कहा कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए जीवनभर प्रयास किया. सफल न होने पर ही उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया. भारत की सभी आध्यात्मिक परंपराओं के संतों के इस संकल्प के कारण डॉ. अम्बेडकर का सपना अवश्य साकार होगा.
पूज्य हरिशंकर दास जी, राजस्थान ने कहा कि छुआछूत हमारे समाज की विकृति है जो अवश्य दूर होगी. पूज्य रमेशदास जी महाराज पंजाब, फूलडोलबिहारी दास जी महाराज वृन्दावन, सुखवेन्द्र तीर्थ जी महाराज उडुपी ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन किया. श्रीमहंत लिंगाशिवाचार्य जी महाराज बैंगलोर ने उद्घोष करते हुए कहा कि वीर, शैव सम्प्रदाय अलग नहीं है. यह हिन्दू समाज का ही अंगभूत है. इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता. गोविन्द देव गिरि जी महाराज ने प्रस्ताव पारित करवाते समय कहा कि जब एक भगवान ने ही चराचर जगत का निर्माण किया है तो उनमें भेदभाव कैसे हो सकता है? भक्ति भाव ही सबको एक साथ बांध सकता है. संतों के संकल्प से समरसता का सपना अवश्य साकार होगा.
पूज्य गंगाधरेन्द्र सरस्वती जी महाराज कर्नाटक ने मंदिरों का अधिग्रहण व मंदिरों के ध्वंस के विरोध में प्रस्ताव रखा. उन्होंने कहा कि मंदिरों की व्यवस्था सरकार के नहीं, समाज के हाथों में होनी चाहिए. कर्नाटक में भी कानून बनाकर मंदिरों के स्वामित्व को हड़पने का षड़यंत्र किया गया था. इसका प्रबल विरोध हिन्दू समाज के संतों ने किया. संतों के आग्रह पर मंदिरों की देखभाल के लिए एक स्वायत्त बोर्ड बनाया गया, परन्तु बाद में इस बोर्ड को भंग करके एक नया कानून बनाया गया. जिसे न्यायपालिका ने निरस्त कर दिया. इसके बावजूद कर्नाटक सरकार मंदिरों पर कब्जे का हर तरीके से प्रयास कर रही है. चुनाव नजदीक होने के कारण इसे अभी रोका गया है. परन्तु राज्य सरकार के इरादे अब भी अपवित्र हैं. पूज्य संग्राम जी महाराज, तेलंगाना ने प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा कि सरकारों का काम मंदिर चलाना नहीं है. हरियाणा से पधारे योगीराज दिव्यानंद जी महाराज ने हरियाणा में अधिग्रहण किए गए मंदिरों पर राज्य सरकारों को चेतावनी देते हुए कहा कि यह आदेश अविलम्ब वापिस लेना चाहिए. इन मंदिरों का सामाजिकरण चाहिए, सरकारीकरण नहीं. केरल से पूज्य अयप्पादास जी महाराज ने प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा कि पार्थसारथी मंदिर पर जिस तरह सरकार ने कब्जा किया है, वह घोर निंदनीय है. कर्नाटक से भी कालहस्तेन्द्रनाथ जी महाराज ने इस प्रस्ताव के समर्थन में बोलते हुए सभी राज्य सरकारों को चेतावनी दी कि वे हिन्दू समाज को ही मंदिर चलाने दें, यह सरकारों का काम नहीं है. न्यायपालिका के आदेश की आड़ में तोड़े गए हिन्दू मंदिर इन सरकारों की दूषित मानसिकता को दर्शाते हैं. पूज्य रामशरणदास जी महाराज हिमाचल, पूज्य साध्वी प्रज्ञा भारती भोपाल, श्रीमहंत प्रेमदास जी महाराज राजस्थान, पूज्य गुरुपदानन्द जी महाराज बंगाल ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए. धर्मसंसद में उपस्थित सभी संतों ने ध्वनि से सर्वसम्मति के साथ इस प्रस्ताव को पारित किया.