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कोई हिन्दुत्व से नाता तोड़ता है तो उसका नाता भारत से भी टूट जाता है – डॉ. मोहन भागवत जी

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गुवाहाटी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि अगर कोई हिन्दुत्व से अपना नाता तोड़ता है तो उसका नाता भारत से भी टूट जाता है. देश में काफी विविधताओं व मतभेदों के बावजूद हिन्दुत्व भारत के लोगों को एकता के सूत्र में जोड़ता है. हिन्दुत्व की यही महानता है कि यह सभी विविधताओं को स्वीकार करता है और उनका आदर करता है. हिन्दुत्व सभी दर्शनों को स्वीकार करता है और जो कोई इसमें शामिल होता है, सबको अपनाता है. सरसंघचालक जी रविवार को गुवाहाटी में ‘लूइट पोरिया हिन्दू समावेश’ को संबोधित कर रहे थे. सम्मेलन में लगभग 35,000 स्वयंसेवक उपस्थित थे. उन्होंने कहा कि 92 वर्षों की साधना का यह फल है कि आज हम इस तरह से गुवाहाटी खानापाड़ा के इस खेल मैदान में एकत्रित हुए हैं. यह विहंगम दृश्य जितना ही आनंददायक आपके लिए है, उतना ही मेरे लिए भी है. 92 वर्ष पूर्व देश के मध्य भाग में यह साधना शुरू हुई थी, जो आज पूरे देश में फैली हुई है.

उन्होंने कहा कि लोगों को जगाने की जरूरत है और यह सिर्फ एक व्यक्ति के अकेले की जिम्मेदारी नहीं है. इस देश में निवास करने वाले हर व्यक्ति को बेहतर भारत के लिए अपने साथी देशवासी को जगाने की जिम्मेदारी अवश्य लेनी चाहिए. जब तक हिन्दुत्व फले-फूलेगा, तब तक ही भारत का अस्तित्व बना रहेगा. हमारे यहां हिन्दुत्व पर आधारित आंतरिक एकता है और इसीलिए भारत एक हिन्दू राष्ट्र है. भारत इस विश्व को मानवता का संदेश देता है. भारत अपने आचारण से दूसरों को शिक्षा देता है. भारतवर्ष के इस स्वभाव को विश्व हिन्दुत्व का नाम देता है. अगर भारत के लोग हिन्दुत्व की भावना को भूल जाते हैं तो देश के साथ उनका संबंध भी खत्म हो जाएगा. पाकिस्तान के विघटन के बाद बांग्लाभाषी बांग्लादेश भारत में शामिल क्यों नहीं हुआ? क्योंकि वहां हिन्दुत्व की भावना नहीं है. सरसंघचालक जी ने कहा कि गौरक्षा और गौ-निर्भरता वाली कृषि भारतीय किसानों के संकट का एकमात्र समाधान है. अपील की कि लोग इस दिशा में काम करें. उन्होंने सुजलां सुफलां मलयज शीतलां का नारा दोहराते हुए कहा कि हमारे देश की धरती प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण है. इससे हमारी सोच का दायरा बढ़ा है और हम बांहें फैलाकर अपने यहां बाहरी लोगों का स्वागत करते हैं. हमारी दृष्टि संपूर्ण सृष्टि को जोड़ने वाली है.

पाकिस्तान का जिक्र करते हुए कहा कि संघर्ष हुआ, पाकिस्तान का जन्म हुआ. विभाजन के बाद ‘भारत पाकिस्तान के साथ अपनी दुश्मनी 15 अगस्त, 1947 को ही भूल गया, लेकिन पाकिस्तान अभी तब भारत से अपनी दुश्मनी नहीं भूल पाया है. हिन्दू स्वभाव और दूसरे के स्वभाव में यही अंतर है. मोहन जोदड़ो, हड़प्पा जैसी प्राचीन सभ्यता और हमारी संस्कृति जिन स्थानों पर विकसित हुई, अब वे पाकिस्तान में हैं.

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने (भारत से) क्यों नहीं कहा कि भारत का सब कुछ यहीं पैदा हुआ, ऐसे में हम भारत हैं और आप दूसरा नाम अपनाइए. उन्होंने (पाक ने) ऐसा नहीं कहा और इसकी बजाय वे भारत के नाम से अलग होना चाहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि भारत के नाम से ही हिन्दुत्व आ जाता है. हिन्दुत्व यहां है, इसलिए यह भारत है.

उन्होंने कहा कि संघ की ताकत किसी को अपनी ताकत दिखाने के लिए या धमकाने के लिए नहीं है, बल्कि यह हर किसी की बेहतरी के लिए समाज को मजबूत करने के लिए है. महज तमाशबीन और हमदर्द बने मत रहिए, फैसला लेने के लिए सीखिए और संघ की संस्कृति जानिए. माताओं और बहनों को अपने बेटों को आरएसएस की शाखाओं में भेजना चाहिए और उनको हमारे दर्शन से परिचित करवाना चाहिए. संघ अपनी ऊर्जा और शक्ति समाजसेवा के कामों में लगाता है.

मोहन भागवत जी ने कहा कि विश्व शांति के लिए दुनिया आज भारत की ओर देख रही है. संघ का मकसद भारत को उसके पैरों पर खड़ा करने की है. इसमें कोई स्वार्थ नहीं छिपा है, बल्कि आज इसकी जरूरत है. हिन्दुत्व का अर्थ स्वार्थ साधना का उद्यम नहीं है. स्वहित, स्वदेशहित और विश्वहित की त्रिवेणी साधना इसका उद्देश्य है. पिछले 2 हजार साल से मानवता और विश्व शांति के लिए कोशिशें की जाती रही हैं, लेकिन कामयाबी नहीं मिली. भारत दुनिया का प्राचीनतम राष्ट्र है और अपने प्राचीनतम राष्ट्र होने का दायित्व भारत को निभाना है. भारत को दुनिया को नया रास्ता देना है, दिखाना है. उन्होंने कहा कि यह कार्य कठिन अवश्य है. परिस्थितियां प्रतिकूल अवश्य हैं, लेकिन असंभव नहीं. सूर्य सतत संपूर्ण विश्व को प्रकाश देता रहता है. लेकिन, कभी भी छुट्टी पर नहीं जाता. सिर्फ एक पहिया पर यह चलता है. कहीं कोई रास्ता नहीं है. सारथी के पैर भी नहीं हैं. फिर भी प्रतिदिन नियमपूर्वक सूर्य निकलता है. हमारा कहने का तात्पर्य है कि साधन, उपकरण महत्वपूर्ण नहीं है. सत्व महत्वपूर्ण है. सत्व के आधार पर ही कार्य सिद्धि होती है और उसी सत्व को संपूर्ण भारतीयों के बीच जगाना है. यही काम संघ कर रहा है.

सरसंघचालक जी ने कहा कि हमारा वेद दुनिया का सबसे प्राचीन साहित्य है. अथर्ववेद कहता है कि पृथु सम्राट ने इस भूमि को कृषि योग्य बनाया था. इसीलिए इसका नाम पृथ्वी पड़ा. विविधता में एकता हमारी परंपरा है. होमोसेपियंस नामक पुस्तक को उद्धृत करते हुए कहा कि मनुष्य की सफलता का कारण यह है कि इसके अंदर तकनीकी क्षमता है. यह सभी चीजों को समझता है और चिंतन करके उसका उपयोग कर लेता है. विश्वास रखकर और दूसरों से विश्वास रखवाकर चल सकता है. हम जितने अधिक लोगों को साथ लेकर चलेंगे, उतने ही सुखी होंगे.

उन्होंने कहा कि पाश्चात्य नजरिया युग को व्यापार से जोड़ने का है. लेकिन, यह प्रयोग भी सफल नहीं हुआ. सब के अलग-अलग स्वार्थ हैं. इसीलिए व्यापार से इसे जोड़ा नहीं जा सकता है. सुख के अन्वेषण को लेकर दुनिया भर में 2000 वर्षों में अनेक प्रयोग हुए हैं. लेकिन, सुख से ज्यादा हिंसा और घृणा का प्रसार हुआ है और स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि संपूर्ण मानव जाति पर संकट आ गया है. जो एक व्यक्ति, समूह, सृष्टि और संपूर्ण विश्व को साथ लेकर चलता है, उसके अंदर सत्य, करुणा, शुचिता, तपस्या – धर्म के ये चारों तत्व विद्यमान होते हैं. उन्होंने श्रीमंत शंकरदेव की वाणी को उद्धृत करते हुए कहा कि कोटि-कोटि जन्म के पुण्य धर्म संचित होने के कारण ही हमारा भारत में जन्म हुआ है. भारत में अल्पकाल का जीवन अन्य स्थानों पर युगों-युगों के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है. क्योंकि, भारत में समरसता है और सबके प्रति करुणा, दया, क्षमा है. उन्होंने उपस्थित जनसमूह से अपील की कि संघ में शामिल होकर, इसके करीब आकर, इसके काम को महसूस करें. और यदि इससे आपको स्वतः प्रेरणा मिलती है, तब आप इसमें शामिल हों.

उन्होंने कहा कि आज के इस कार्यक्रम को कुछ लोग कह रहे हैं कि संघ अपनी शक्ति दिखा रहा है. लेकिन ऐसा नहीं है. शक्ति का प्रदर्शन करने की आवश्यकता नहीं होती. शक्ति तो स्वयं दिख जाती है और, हमारी शक्ति डराने के लिए नहीं. हम सबका मंगल चाहते हैं. उत्तम समाज बनाना हमारा उद्देश्य है. प्रत्येक व्यक्ति का परिवर्तन करके राष्ट्र का परिवर्तन करने का हमने बीड़ा उठाया है और, जिस समाज को अपना भला करना है, उसे खुद ही अपने लिए काम करना होगा.

मंच पर सरसंघचालक के साथ सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल जी, सह सरकार्यवाह वी. भगैया जी सहित अन्य उपस्थित थे. असम में सन् 1947 से संघ का कार्य आरंभ हुआ था, उस समय से लेकर अब तक जितने भी प्रचारकों ने राज्य में कार्य किया था, वे सभी इस कार्यक्रम में उपस्थित थे. साथ ही नागालैंड, मेघालय, असम के 12 जनजातियों के राजा, असम के सभी सत्रों के सत्राधिकार (मठ), विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं के साथ ही आम नागरिकों ने हिस्सा लिया.

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