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गौरवशाली अतीत को पहचान, वर्तमान को सनातन मूल्यों व ज्ञान के अनुरुप ढालना होगा – जवाहर लाल कौल जी

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अभिनवगुप्त का हिन्दी साहित्य’ पर प्रभाव विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

agra_seminarआगरा. जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के अध्यक्ष जवाहर लाल कौल जी ने कहा कि जगद्गुरु शंकराचार्य और आचार्य अभिनवगुप्त दोनों ने ही भारतीय संस्कृति और सभ्यता को संवाद के माध्यम से आगे बढ़ाने का काम किया है. और इन दोनों मनीषियों ने भारत के मुकुटमणि कश्मीर को अपना केन्द्र चुना. इसलिए हमें दुनिया को शंकराचार्य और आचार्य अभिनवगुप्त की ज्ञान परंपराओं वाले कश्मीर से अवगत कराने की आवश्यकता है न कि आज के कश्मीर से. वह केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा में “आचार्य अभिनव गुप्त का हिंदी साहित्य पर प्रभाव” विषय पर आयोजित संगोष्ठी में बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे.

उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति का बयान किताबों में तो बहुत मिलता है, पर लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है. जिससे आज पूरे समाज में एक तरह की अनिश्चितता बनी हुई है. शायद इसीलिए आज हमें एक हजार साल बाद अभिनवगुप्त को याद करना पड़ रहा है. आज हमें अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञा दर्शन को समझने की आवश्यकता है. प्रत्यभिज्ञा का अर्थ होता है पहचान और इसीलिए हमें अपने गौरवशाली अतीत को पहचानकर अपने वर्तमान को उन्हीं सनातन मूल्यों और ज्ञान-परंपराओं के अनुरुप ढालना होगा, जिसके दम पर भारत विश्वगुरू रहा है.

संगोष्ठी के पहले सत्र में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र से जुड़ी डॉ. अद्वैतवादिनी कौल ने कहा कि आचार्य अभिनवगुप्त भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण व्याख्याताओं में से एक रहे हैं. उन्होंने हिन्दी साहित्य, धर्म-दर्शन सहित विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किये हैं. उनके कार्यों को विद्यालयों और विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाया जाना चाहिए, जिससे कि भारतीय काव्य शास्त्र के आचार्यों के बारे में हमारी नई पीढ़ी परिचय प्राप्त कर सके.

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय ने कहा कि आचार्य अभिनवगुप्त भारतीय ज्ञान परंपरा के अप्रतिम नायक रहे हैं. हमें उनके अन्दर अपना आदर्श ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए. अभिनवगुप्त ने लगभग 40 से अधिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें से 20 ग्रंथ ही प्राप्त हुए हैं. इतना ही नहीं अभिनवगुप्त के कुछ ग्रंथों की पाण्डुलिपियां केरल में भी पायी गयीं. इससे यह सिद्ध होता है कि संपूर्ण भारत में अभिनवगुप्त के ज्ञान का विस्तार था. उन्होंने कहा कि अभिनवगुप्त की महानता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लल्लेश्वरी जैसी महान साहित्यकार का भी उदय इन्हीं के सान्निध्य में हुआ. प्रो. पाण्डेय ने कहा कि अभिनवगुप्त को विद्यार्थी रससूत्र के व्याख्याता के रूप में जानते हैं, लेकिन आचार्य के बारे में एक मान्यता यह भी रही है कि जिस विषय में वो टीका करते थे उस पर शास्त्रार्थ वहीं समाप्त हो जाता था. अभिनवगुप्त की प्रत्यभिज्ञा की छाप आधुनिक साहित्य में भी मिलती है. जयशंकर प्रसाद की कामायनी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. इसके अलावा कि अभिनवगुप्त की  प्रत्यभिज्ञा की छाप रामानंद और तुलसी के काव्य में भी दिखाई देती है. सौंदर्य शास्त्र एवं संगीत शास्त्र में भी अभिनवगुप्त का योगदान उल्लेखनीय है. शायद यही कारण है कि भारत का समस्त बौद्धिक जगत अभिनव की छाया में रहा है.

पहले सत्र के वक्ता डॉ. राजनारायण शुक्ल ने “अभिनवगुप्त, कामायनी और प्रत्यभिज्ञा दर्शन” विषय पर अपने विचार व्यक्त किए. अभिनव के माध्यम से भारतीय संस्कृति और सभ्यता को समझने का प्रयास होना चाहिए. अभिनवगुप्त ने भले ही अनेक मतों, परंपराओं और गुरुओं से शिक्षा ग्रहण की, लेकिन उन्होंने प्रत्यभिज्ञा दर्शन को आगे बढ़ाया. इसी क्रम में जयशंकर प्रसाद की कालजयी रचना कामायनी भी आती है. जयशंकर प्रसाद के समय अनेक दर्शन प्रचलित थे, लेकिन उन्होंने कामायनी में प्रत्यभिज्ञा दर्शन को अपनाया. जबकि उस समय प्रत्यभिज्ञा दर्शन उतना प्रसिद्ध नहीं था. यह अभेदवाद पर आधारित है. इसमें ईश्वर-मनुष्य में अभेद, मनुष्य-मनुष्य में अभेद देखने को मिलता है और समरसता का परिचायक है.

जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक एवं वरिष्ठ पत्रकार डॉ. आशुतोष भटनागर ने संगोष्ठी के समापन सत्र में कहा कि अभिनवगुप्त का चिंतन कश्मीर का चिंतन न होकर भारत का चिंतन है. आज भले ही अभिनवगुप्त की चर्चा कम है, किंतु उन्हें जानने वाले लोग बहुत हैं. अपने ग्रंथों के माध्यम से जो नवनीत उन्होंने हमें दिया है, उसे आम जन तक पहुँचाना ही इस आयोजन का उद्देश्य है. हजारों वर्षों की इस यात्रा में कुछ वर्ष क्षण के समान हैं, अतः हमें इस क्षणिक विस्मृति से निकलना होगा. संगोष्ठी के मुख्य अतिथि संपूर्णानंद विश्वविद्यालय के प्रो. रजनीश शुक्ल ने कहा कि सहस्त्रों शास्त्रों के ज्ञान के कारण अभिनवगुप्त को गुप्तपाद के नाम से भी जाना जाता है. हिन्दी साहित्य के आठ रसों से भी आगे बढ़कर नवें रस के रूप में शांत रस को प्रतिपादित किया. संपूर्ण भारतीय परंपरा में सभी साहित्य और सभी प्रकार के शास्त्रों का उद्देश्य मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाना है और आचार्य अभिनवगुप्त ने इस परंपरा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

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