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प्रवृति से निवृत्ति की ओर चलना हमारी संस्कृति है – डॉ. कृष्ण गोपाल जी

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टिमरनी, मध्यभारत. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने कहा कि सभ्यता मस्तिष्क में उत्पन्न होती है और संस्कृति हृदय से उत्पन्न होती है. संस्कृति के प्रति हमारा दृष्टिकोण नहीं बदलना चाहिए. सभ्यता सुविधाएं जुटाएगी, संस्कृति उनमें सुगन्ध भरेगी. सह सरकार्यवाह जी टिमरनी में आयोजित श्रध्देय भाऊ साहब भुस्कुटे स्मृति व्याख्यानमाला के 26वें वार्षिक आयोजन के तीसरे और अंतिम दिन ‘वर्तमान सभ्यता का संकट’ विषय पर अपना विद्वतापूर्ण व्याख्यान दे रहे थे.

उन्होंने कहा कि संस्कृति आत्मा है और सभ्यता शरीर है. सभ्यताएं आएंगी – जाएंगी, लेकिन उनमें संस्कृति विद्यमान रहनी चाहिए. आज सभ्यता हमसे हमारा बहुत कुछ मूल्यवान छीन रही है. पारिवारिक मूल्य समाप्त हो रहे हैं. सुविधाएं आई हैं, पर सांस्कृतिक मूल्य खो रहे हैं. सनशीलता समाप्त हो रही है. एक ओर सम्पन्नता बढ़ रही है, दूसरी ओर अवसाद बढ़ रहा है. सभ्यता के परिवर्तन ने संकट खड़ा किया है. वस्तुओं के उपभोग से सुख मिलता है, इस धारणा ने यह संकट खड़ा किया है. उपभोक्ता संस्कृति के कारण जलवायु परिवर्तन होता है. गांव के लोग शहर की और दौड़ रहे हैं, विश्व में 100 करोड़ लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं. सुविधाएं तो आईं पर शांति छीन ली. नींद के लिए गोलियां खानी पड़ती हैं. अधिकतम उपभोग से अधिकतम सुख मिलेगा, यह सत्य नहीं है. हमने धरती को मां माना है, सम्पत्ति नहीं. इसलिए प्रकृति से अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही लिया.

उन्होंने कहा कि पश्चिम की धारणा में जीवन एक बार मिलता है, इसलिए वे भोग का जीवन जीते हैं. भारत में जीवन एक नहीं है, प्रवृति से निवृत्ति की ओर चलना हमारी संस्कृति है. संपन्नता एकाकी बनाती जा रही है. मनुष्य बिलियर्ड की गेंदों की तरह हो रहा है. प्रतिस्पर्धा अच्छी नहीं होती, इससे मित्र भाव, भ्रातृ प्रेम समाप्त होता है. पश्चिम का विचार गलत है, प्रकृति के विरुद्ध है. सृष्टि सामन्जस्य से चलती है.

कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. गोरख परूलकर जी ने की तथा संचालन विनोद विश्वकर्मा जी ने किया. अतिथियों का स्वागत अनिल जैन जी ने किया.

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