21 फरवरी – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस
अतुल कोठारी
“मां, मातृभूमि और मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं हो सकता है”, यह बात पूर्णरूप से सत्य है. कोई महिला कितनी भी श्रेष्ठ सुन्दर हो, वह हमारी मां नहीं हो सकती, कोई देश कितना भी सम्पन्न, समृद्ध हो परन्तु वह हमारी मातृभूमि नहीं हो सकता. इसी प्रकार विश्व की अन्य कोई भी भाषा हमारी मातृभाषा नहीं हो सकती. इस बात को बंग्लादेश के लोगों ने सिद्ध कर दिया.
दिनांक 14 अगस्त 1947 को भारत से अलग होकर पाकिस्तान स्वतंत्र देश बना, तब पाकिस्तान के दो भाग थे – एक पाकिस्तान एवं दूसरा पूर्वी पाकिस्तान (आज का बंग्लादेश). पाकिस्तान से बंग्लादेश अलग देश बनने का महत्वपूर्ण कारण भाषा बनी. पूर्वी पाकिस्तान में तब की भाषा बंग्ला होने के उपरान्त पाकिस्तान के तत्कालीन शासकों ने उस पर ऊर्दू भाषा थोपी, जिसका तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में जबरदस्त विरोध हुआ. 21 फरवरी 1952 को ढाका विश्वविद्यालय, जगन्नाथ विश्वविद्यालय और चिकित्सा महाविद्यालय के छात्रों ने बांग्ला को वहां की राष्ट्रभाषा घोषित करने हेतु आन्दोलन प्रारंभ किया. इस आन्दोलन के समय पुलिस की गोलियों के शिकार होकर अनेकों छात्रों ने अपनी मातृभाषा के लिए बलिदान दिया. इसकी स्मृति में वर्ष 1999 से यूनेस्को ने 21 फरवरी को अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाना प्रारंभ किया. वर्ष 2008 में यूनेस्को ने भी इसको मान्यता दी. इस प्रकार मज़हब, जाति आदि से भी मातृभाषा का महत्व अधिक है, यह बात इस आन्दोलन ने सिद्ध की. बंग्लादेश अलग देश बना इसके प्रमुख कारणों में एक भाषा था.
कुछ लोगों का मानना है कि भाषा मात्र संप्रेषण का माध्यम है. यूनेस्कों के अनुसार भाषा मात्र सम्पर्क, शिक्षा या विकास का माध्यम न होकर व्यक्ति की विशिष्ट पहचान है तथा उसकी संस्कृति, परम्परा एवं इतिहास का कोश है, साथ ही सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत को संजोने का कार्य मातृभाषा ही करती है.
एक भाषा समाप्त होने से एक परम्परा, संस्कृति पर पूर्ण विराम लग जाता है. इस प्रकार मातृभाषा के अनन्य महत्व के उपरांत इसके संरक्षण एवं संवर्धन में हम लगातार पिछड़ते जा रहे हैं. 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं थी. 1971 आते-आते यह संख्या 808 तक रह गई. भारत सरकार द्वारा 2011 की जनगणना के अनुसार भाषा के मानक पर सही उतरने वाली बोलियां /भाषाएं 1369 थीं, जिसमें 121 भाषाएं 10 हजार से अधिक बोलने वालों की भाषाएं हैं, इसी में आठवीं नुसूची की 22 भाषाएं सम्मिलित हैं.
पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के वर्ष 2013 के अनुसार देश में 780 भाषाएं हैं. पिछले 50 वर्ष में 220 से अधिक भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं तथा 197 लुप्तप्राय होने के कगार पर हैं.
मातृभाषा के संदर्भ में कुछ विद्वानों का मानना है कि “माँ की भाषा ही मातृभाषा है. यह पूर्ण सत्य नहीं है, माँ की भाषा के साथ-साथ बच्चे का शैशव/बचपन/बाल्यावस्था जहाँ बीतता है, उस माहौल में ही जननी भाव है. जिस परिवेश परिवार एवं उसके सांस्कृति मूल्यों में बच्चे पलते हैं, वहां जो भाषा वो सीखता है वह भाषा उस बच्चे की मातृभाषा कहलाती है.
मातृभाषा मात्र भावनात्मक विषय नहीं है, परन्तु पूर्णरूप से वैज्ञानिक दृष्टिकोण है. इस दृष्टि से शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में हो, यह आवश्यक है. यूनेस्को सहित वैश्विक स्तर पर भाषा सम्बंधित हुए अनेक अध्ययनों, शिक्षा सम्बन्धित विभिन्न आयोगों की अनुशंसाएं एवं राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय महापुरूषों के विचार इसी बात की पुष्टि करते हैं. महात्मा गांधी ने कहा था कि “विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर भार डाला है, उन्हें रट्टू बना दिया है और वह सृजन के लायक नहीं रहे हैं. विदेशी भाषा ने देशी भाषाओं के विकास को बाधित किया है.
सभी प्रकार के वैज्ञानिक तथ्य एवं प्रमाण मातृभाषा के पक्ष में होने के उपरान्त् हम अंग्रेजी के मोहजाल से मुक्त होने के बदले उस दल-दल में फसते ही जा रहे हैं. आज शोध-अनुसंधान में हम पिछड़ रहे हैं, इसका एक महत्वपूर्ण कारण शोध-अनुसंधान का माध्यम मात्र अंग्रेजी भाषा होना है. भारतीय वैज्ञानिक सी.वी. श्रीनाथ शास्त्री के अनुसार अंग्रेजी माध्यम से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने वालों की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़े छात्र अधिक उत्तम अनुसंधान करते हैं.
उपर्युक्त कथन की सत्यता को प्रमाणित करने की दृष्टि से भारतीयों को प्राप्त नोबल पुरस्कार और अपनी भाषा में शिक्षा देने वाले देश इज़राइल, जापान, जर्मनी आदि के विद्वानों द्वारा प्राप्त नोबेल पुरस्कारों की तुलना करने से स्थिति अधिक स्पष्ट हो जाती है. इस दृष्टि से देश के विश्वविद्यालयों एवं अन्य संस्थानों में अनुसंधान अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं में हो अथवा जो भी अनुसंधान अंग्रेजी में होता है, उनका किसी एक भारतीय भाषा में अनुवाद अनिवार्य हो. उपनिर्दिष्ट बातों का आधार शिक्षा है, इस हेतु शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो. शुरू में विद्यालयीन शिक्षा का माध्यम अनिवार्य रूप से मातृभाषा हो एवं उच्च शिक्षा के सभी स्तर पर भारतीय भाषाओं का विकल्प दिया जाना चाहिए.
हमारे छात्र समझदार होने के बाद उनकी क्षमता के अनुसार भाषाएं सीख सकते हैं. इस हेतु व्यवस्था एवं अवसर दोनों होने चाहिए परन्तु शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए. इसी से छात्रों का एवं देश का सही दिशा में विकास संभव हो सकेगा.
(लेखक शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के सचिव हैं)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अ. भा. प्रतिनिधि सभा (2018) में मातृभाषा पर पारित प्रस्ताव
अ.भा. प्रतिनिधि सभा, प्रस्ताव – भारतीय भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्द्धन की आवश्यकता
भाषाओं व बोलियों के संरक्षण-संवर्धन के लिये समाज तथा सरकार से आह्वान