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शिक्षा व्यक्ति और समाज के विकास से जुड़ी है – अवनीश जी भटनागर

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जोधपुर (विसंकें). विद्या भारती शिक्षा संस्थान, जोधपुर द्वारा सुभाषचन्द्र बोस जयन्ती के अवसर पर ‘‘नई  शिक्षा नीति’’ के विषय पर गोष्ठी आयोजित की गई. गोष्ठी में दीप प्रज्ज्वलन के साथ वन्दना एवं अतिथियों का परिचय कराया गया. गोष्ठी में मुख्य अतिथि डॉ. रामपाल सिंह जी (कुलपति, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर), अध्यक्ष डॉ. दामोदर जी शर्मा (पूर्व कुलपति तकनीकी विश्वविद्यालय) एवं विषय प्रतिपादन अवनीश  जी भटनागर (राष्ट्रीय मंत्री, विद्या भारती) ने किया.

गोष्ठी में नई  शिक्षा नीति पर विषय डालते हुए अवनीश जी भटनागर ने बताया कि शिक्षा व्यक्ति और समाज के विकास से जुड़ी है. वह भविष्य की सम्भावित चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करने के लिये व्यक्ति की क्षमताओं का विस्तार करने की प्रक्रिया है. अतः समय-समय पर परिवर्तित परिस्थितियों और सम्भावित चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए  शिक्षा नीति और उसके स्वरूप निर्धारण पर विचार होता रहा है. ब्रिटिश शासन काल में साम्राज्यवादी हितों की रक्षा और उनके संवर्धन के लिए भारत की  शिक्षा नीति और व्यवस्था पर विचार किया गया. सन् 1813 के आज्ञापत्र से लेकर सन् 1944 की सार्जेंट योजना (Sargent Plan) तक जितनी भी समितियां, आयोग और योजनाएं बनी, लगभग सभी ने ब्रिटिश हितों को प्राथमिकता दी तथा तदानुरूप शिक्षा व्यवस्था की रचना की. अलबता, सार्जेंट योजना 1944 में महात्मा गांधी की बुनियादी शिक्षा की कुछ बातों को कुछ संशोधनों के साथ अवश्य सम्मिलित किया गया. स्वतंत्र भारत में यह आशा की गई कि शिक्षा के प्रति समग्रता से विचार करते हुए राष्ट्रीय सोच, राष्ट्रीय भावना और भारतीय संविधान में निहित आदर्शों का संवर्धन करने वाली, भारतीय मान्यताओं और मूल्यों पर आधारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण होगा, परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ. ताराचंद समिति (1948), विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (राधाकृष्णन् आयोग) 1948 तथा माध्यमिक शिक्षा आयोग (मदुलियार कमीशन 1952) आदि समितियों ने भी शिक्षा के प्रति समग्रता से विचार नहीं किया. वे केवल अपने कार्यक्षेत्र तक सीमित रहीं.

वर्ष 1964 में डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में  गठित शिक्षा आयेाग भारत का पहला शिक्षा आयोग था, जिसने शिक्षा पर समग्रता से विचार किया तथा भारत की शिक्षा नीति का आधार क्या होना चाहिए इस पर विचार व्यक्त किये. इस क्रम में डॉ. कोठारी का यह कथन सर्वाधिक महत्व का था कि, ‘‘वर्तमान में भारतीय शिक्षा का गुरूत्वकेन्द्र यूरोप है, जिसे शीघ्रातिशीघ्र पुनः भारत केन्द्रित करने की आवश्यकता है. विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान ने स्वतंत्र भारत में भारतीय शिक्षा के स्वरूप के संबंध में सन् 2005 में पालक्काड (केरल) एवं सन् 2011 में कुरूक्षेत्र (हरियाणा) में विस्तृत और गंभीर विचार-विमर्श किया था, उस विचार विमर्श से शिक्षा के संबंध में जो उभर कर आया, वह डॉ. कोठारी के उपर्युक्त कथन से मेल खाता है कि भारत की शिक्षा नीति को भारत केन्द्रित होना चाहिए. किसी भी देश के लिए यह आवश्यक है कि उस देश की शिक्षा उसकी संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, इतिहास, पंचांग और भूगोल से जुड़ी हो तथा उससे प्रेरित हो. ऐसा होने पर उस शिक्षा में देश का गौरव प्रतिबिम्बित होता है तथा संस्कृति का सातत्य बना रहता है. ज्ञान का स्वरूप वैश्विक होता है, देश  की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से विरत शिक्षा आत्मगौरव और राष्ट्रभाव को विकसित नहीं कर सकती. विद्या भारती प्रारम्भ से ही ऐसी शिक्षा नीति की समर्थक रही है जो भारत केन्द्रित हो, एकात्मभाव से युक्त हो तथा अपने स्वरूप में समग्र हो. इन भावों से युक्त शिक्षा आत्मगौरव से पूर्ण होगी और राष्ट्रीय एकता का आधार बनेगी. इन विचारों को केन्द्र में रखकर विद्या भारती ने अपने सुझाव नई शिक्षा नीति 1986 के निर्माण के समय आयोग के सम्मुख प्रस्तुत किये थे.

गोष्ठी के मुख्य अतिथि डॉ. रामपाल सिंह जी ने कहा कि जब हम भारत-केन्द्रित शिक्षा की बात करते हैं तो शिक्षा के उद्देश्य, उसके अनुरूप, पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति आदि सभी विचार की परिधि में आ जाते हैं. जहां तक भारत की शिक्षा के स्वरूप और शिक्षा के उद्देश्य का सम्बन्ध है, भारतीय चिन्तन परम्परा में शिक्षा को सात्विक और पवित्र माना है. जिसका अन्तिम उद्देश्य ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ है अर्थात् विद्या (शिक्षा) वह जो हमें सभी बन्धनों से मुक्त करे. इस कथन की दार्शनिक व्याख्या तो यह है कि विद्या हमें सभी सांसारिक बन्धनों से मुक्ति दिलाए अर्थात् आत्म मुक्ति का साधन बने. पर इसका लौकिक अर्थ यह है कि शिक्षा हमें अज्ञान, अभाव, विषाद, रोग भय से मुक्त करे अर्थात् हम ज्ञानमय जीवन जीएं. शिक्षा ज्ञान का स्तोत्र है. वह व्यक्ति के कौशल विकास का आधार है. हम अपने जीवन को सुखमय बना सकें तथा आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त कर सकें, ऐसी क्षमताओं और कौशल का विकास करना शिक्षा का लक्ष्य रहा है.

गोष्ठी के अध्यक्ष डॉ. दामोदर जी शर्मा ने बताया कि शिक्षा के प्रति भारतीय सोच उसकी स्वायत्तता को लेकर भी है. भारत में शिक्षा का स्वरूप सदैव स्वायत्त रहा है. यह स्वायत्तता आज कैसे प्राप्त की जाए, उसका स्वरूप क्या हो, समाज और सरकार की क्या भूमिका हो आदि ये विचार के विषय हैं. आप सभी शिक्षाविदों और चिन्तकों से आग्रह है कि अपने चिन्तन और शिक्षा क्षेत्र के अनुभवों के आधार पर विचार करें.

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