करंट टॉपिक्स

सांप सीढ़ी के खेल से सीखें जिन्‍दगी जीने की कला

Spread the love

रवि प्रकाश

जीवन में सकारात्‍मक होना बहुत अच्‍छी बात है और प्रत्‍येक व्‍यक्ति को सकारात्‍मक सोच वाला बने रहने का प्रयास करना चाहिए. प्रयास मात्र से कुछ नहीं होता, परिवेश और परिस्थिति  भी इसके अनुकूल होनी चाहिए. वर्तमान समय में हम जिस दौर से गुजर रहे हैं और हमारे आस-पास जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसमें सकारात्‍मक सोच के साथ आगे बढ़ना बहुत कठिन कार्य है.

परिस्थिति और परिवेश यदि साथ न दे तो क्‍या हम जीना छोड़ देंगे. हरगिज नहीं. हमें जीने के लिए लड़ना होगा. कई बार यह लड़ाई अपने आप से लड़नी होगी. कई बार स्‍वजनों से भी लड़नी पड़ सकती है. हम में से किसी को नहीं पता कि आने वाला कल कैसा होगा. कितनी जानें जाएंगी. कितने बेरोजगार हो जाएंगे. जो बेरोजगार हो जाएंगे, क्‍या करेंगे? अपना जीवन यापन कैसे करेंगे? इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है. सवालों का जवाब न होना हमेशा चिन्‍ता का विषय होता है. जब जवाब नहीं होता तब भविष्‍य अंधकारमय दिखता है.

आर्थिक संकट का अहसास तो लॉकडाउन के पहले चरण में ही समझ में आने लगा था. अब जब चौथा चरण समाप्त हो गया है, अनलॉक शुरू हो गया है….बेरोजगारी का दानव अपना विकराल रूप ग्रहण करता जा रहा है. लॉकडाउन के आरंभ में सरकार ने भी अपील की थी कि कंपनियां अपने कर्मचारियों को लॉकडाउन की अवधि का वेतन दें. मगर उच्‍चतम न्‍यायालय के आदेश के बाद अब सरकार ने भी यू टर्न ले लिया है. अब रोजगार देने वालों के विवेक पर सब कुछ निर्भर कर रहा है कि वह अपने कर्मचारियों को क्‍या देंगे और क्‍या नहीं.

कोविड19 का सबसे बुरा प्रभाव यदि किसी पर पड़ने वाला है तो वह है, मध्‍यमवर्गीय परिवार. इस वर्ग का आकार बहुत बड़ा है. जिन लोगों को बेरोजगारी का दंश झेलना पड़ेगा, उनकी उम्र 20 वर्ष से लेकर 58 वर्ष तक कुछ भी हो सकती है. हर उम्र वर्ग की समस्‍या अलग-अलग तरह की होगी और उन समस्‍याओं का समाधान भी अलग-अलग तरीके से करना होगा. इस वर्ग की समस्‍याओं का समाधान करने की दिशा में जो प्रयास किए गए हैं, वह पर्याप्‍त नहीं हैं. ईएमआई की किश्‍तों को तीन-तीन महीना करके दो बार आगे बढ़ा देना, समस्‍या का एक तात्‍कालिक समाधान है. आपकी इन समस्‍याओं का समाधान कोई दूसरा नहीं करेगा, आपको खुद ही करना पड़ेगा.

अब ऐसी स्थिति में क्‍या करना चाहिए. जीवन को नए सिरे से जीने की तैयारी करनी चाहिए. यह कहना आसान है, मगर करना कठिन है. लेकिन करना तो पड़ेगा ही. बचपन में हम सभी ने सांप सीढ़ी का खेल तो खेला ही होगा. इस खेल में खिलाड़ी को जब सांप काट लेता है तो वह खेल से बाहर नहीं होता, बल्कि फिर से अपनी चाल चलता है और अपनी खेल की यात्रा को आगे बढ़ाता है. अब यही वास्‍तविक जिन्‍दगी में करना पड़ेगा. हम क्‍या थे, कहां थे, यह सब सोच कर निराश होने के बजाय हमें वह करना चाहिए, जो हम इस समय कर सकते हैं.

मैं एक उदाहरण भी देना चाहूंगा. घटना बिहार की राजधानी पटना की है. वहां से शैलेश जी ने एक संदेश भेजकर बताया है, ”आज सुबह टहलने निकला तो दो दिलचस्प नज़ारे देखने को मिले. एक कम पढ़ा लिखा मजदूर वर्ग अभी भी सामाजिक दूरी की नसीहत से दूर है. मजदूरों का एक ग्रुप काम की तलाश में चौराहे पे खड़ा था. मुझे देख कुछ मजदूर लपके और पूछने लगे – सर, मजदूर चाहिए क्या? मैंने कहा नहीं, मैं टहलने निकला हूं. मैंने उनसे पूछा भाई काम मिल रहा है. बोला नहीं सर, अक्सर खड़े खड़े चले जाते हैं. मैंने कहा, लेकिन सरकार तो मदद कर रही है. वो बोला, हां सर सुना है. लेकिन पैसा खाता वालों को मिल रहा है. कोई उपाय हो तो मुझे भी दिलाओ ना. मैंने पुनः पूछा, आपको मालूम है, इतने पास पास खड़े होंगे तो कोरोना का खतरा है. वो बोला, सर हम गरीब हैं, उतना तामझाम हमसे मेंटेन नहीं होगा.

आगे बढ़ा तो देखा एक बड़ी गाड़ी की डिक्की खुली है और उसमें सैकड़ों की संख्या में लौकी पड़ी है. एक सम्भ्रांत सा दिखने वाला शख्स स्टूल पर बैठा था. लोग आ रहे थे, 30 रुपये दे कर एक लौकी ले जा रहे थे. मैंने उससे पूछा सब्जी बेचने का ये अंदाज बहुत निराला है. उसने कहा, मैं पेशेवर सब्जी बेचने वाला नहीं हूं. चूकि और धंधा चल नहीं रहा है तो सुबह ये लौकी खरीद लाता हूं. गाड़ी की डिक्की में रखी है. लोग खुद उठा लेते हैं और पैसे दे देते हैं. पीस के हिसाब से बिकता है. कोई तौलने का चक्कर नहीं, एक पीस पर औसतन 10 रुपये बच जाता है.

मेरे जेहन में विचार आया, कोरोना ने लोगों को बहुत कुछ सीखा दिया है. ”यही है – सांप-सीढ़ी का खेल. बस खेलना आना चाहिए.

(लेखक भारत विकास परिषद के मुंबई प्रांत की कार्यकारिणी के सदस्‍य हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *