भारत में कृषि की प्रकृति पर निर्भरता लंबे समय से रही है. पहले, अल्प-वृष्टि वाले क्षेत्रों में किसान ऐसी फसलें लिया करते थे, जिनमें पानी की आवश्यकता अधिक न हो. देश के विभिन्न राज्यों में शासक अपने कर्तव्य के नाते सिंचाई के लिए ऐसी व्यवस्थाएं किया करते थे ताकि कम वर्षा की स्थिति में अकाल न पड़े. लेकिन विदेशी आक्रांताओं के शासनकाल में इन व्यवस्थाओं को तहस-नहस कर दिया गया या उनकी अनदेखी कर दी गई. नई व्यवस्थाएं खड़ी नहीं की गई. युगदृष्टा पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इस स्थिति को अब से 50 वर्ष से भी अधिक पहले भांप लिया था. उन्होंने सिर्फ मौसम की अनिश्चितता का ही नहीं, बल्कि खेती-बाड़ी तथा समग्र ग्राम विकास से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण विषयों का भी इतनी गंभीरता व विस्तार से अध्ययन किया कि उस समय के विशेषज्ञ भी चौंक गए थे. वे तब तक सक्रिय राजनीति में थे और देश के एक प्रमुख राजनैतिक दल के संगठनात्मक व वैचारिक मुखिया भी थे.
इस वर्ष हम उन्हीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्म शताब्दी मनाने जा रहे हैं. दीनदयाल जी का जन्म 25 सितम्बर 1916 (विक्रम संवत 1973) शालिवाहन शक 1638, आश्विन कृष्ण 13 सोमवार के दिन जयपुर-अजमेर रेलमार्ग पर धनकिया गाँव में उनके नाना चुन्नीलाल जी शुक्ल के घर में हुआ. पंडित जी के पिता भगवती प्रसाद जी मथुरा जिले के नगला चंद्रभान के मूल निवासी थे. उनकी माताजी का नाम रामपियारी था. जब वे ढाई वर्ष के ही थे, तब उनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया. तत्पश्चात उनका लालन पालन उनके नाना के यहाँ ही हुआ. जब पंडित जी साढ़े छह वर्ष के ही थे, तभी उनकी माता जी भी स्वर्गवासी हो गईं. सन् 1934 कार्तिक कृष्ण 11 को छोटे भाई शिवदयाल भी चल बसे और पंडित जी पूरी तरह अकेले पड़ गए थे.
किन्तु उनके ननिहाल के सभी लोग उन्हें बहुत प्यार करते थे. उनके मामा श्री राधारमण शुक्ल ने ही बचपन में उनका लालन पालन किया. उन्होंने तथा उनकी ममतामयी मामी ने अपने दीना की पढ़ाई में कोई रुकावट न आए, इसकी पूरी चिंता की. पंडित जी ने सीकर के कल्याण हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में भी प्रथम रहकर उत्तीर्ण की, जिससे उन्हें बोर्ड तथा विद्यालय की ओर से स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ. उसके दो वर्ष बाद उन्होंने पिलानी के बिरला कॉलेज से इंटर की परीक्षा पुनः सर्वोच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण की और पुनः बोर्ड तथा विद्यालय से स्वर्ण पदक प्राप्त किये. कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज से गणित विषय के साथ बीए भी प्रथम श्रेणी से ही उत्तीर्ण किया. इलाहावाद से वे एलटी हुए. अध्ययन के प्रति अपनी लगन के कारण उन्हें कॉलेज में पढ़ाई के दौरान पूरे समय छात्रवृत्ति मिलती रही. इस बीच अध्ययन के लिए वे कुछ समय गंगापुर, कोटा, आगरा तथा राजगढ़ भी रहे. राजगढ़ में उनके एक मामा श्री नारायण शुक्ल स्टेशन मास्टर थे.
सन् 1937 में पंडित जी का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ. पांच साल बाद, यानी 1942 से उनका प्रचारक जीवन प्रारंभ हुआ और वे लखीमपुर जिला प्रचारक बने. वर्ष 1947 में वे उत्तरप्रदेश के सह प्रांत प्रचारक नियुक्त हुए. उसी वर्ष, राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना हुई तथा राष्ट्रधर्म मासिक, पांचजन्य साप्ताहिक, व स्वदेश दैनिक का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ. पंडित जी पांचजन्य व स्वदेश के सम्पादक कार्य में सहयोग करने लगे. प्रकाशन के प्रबंध निदेशक नानाजी देशमुख थे. अटल बिहारी वाजपेयी जी जैसे लोगों ने सम्पादन कार्य संभाला.
21 अक्टूबर, 1951 को भारतीय जनसंघ की स्थापना की अधिकृत घोषणा की गई. जनसंघ का प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन दिसंबर 1952 में कानपुर में हुआ तथा दीनदयाल जी को दल के अखिल भारतीय महामंत्री पद का दायित्व सौंपा गया. लेकिन दो वर्ष बाद ही पार्टी के अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की असामयिक मृत्यु के पश्चात जनसंघ को आगे बढ़ाने की सारी जिम्मेदारी पंडित जी के कंधों पर आ गई. दिसंबर, 1967 में उन्होंने जनसंघ के अखिल भारतीय अध्यक्ष का पद तब स्वीकार किया, जब दल की संगठनात्मक नींव डालने का कार्य पूर्ण हो गया. लेकिन 11 फरवरी 1968 को वज्राघात हुआ, जब सारे देश ने उनकी ह्त्या का समाचार सुना.
पंडित जी ने अपने छोटे से जीवनकाल में देश व दुनिया को एकात्म मानववाद का ऐसा सूत्र दिया जो आज पूरे विश्व में सर्वमान्य हो गया है. यह सूत्र था मनुष्य को टुकड़ों में बांटकर नहीं, उसे संपूर्ण मानव के रूप में देखना. उसके शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा का समग्र चिंतन करना. संपूर्ण ब्रह्मांड को एकात्म भाव से देखना. सभी पंचभूतों – आकाश, धरती, जल, वायु, अग्नि, सबके संबंधों का सामंजस्यपूर्ण भाव से विचार करना तथा उसी अनुरूप व्यवहार करना. प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव रखना तथा उसका संवर्धन करना.
आगे चलकर यह सूत्र एकात्म मानवदर्शन के नाम से प्रचलित हुआ और इसके केंद्र में था मानव. पंडित जी का मानना था कि जिस तरह मनुष्य की आत्मा होती है, उसी तरह देश की आत्मा भी होती है. उसे उन्होंने कहा चिति. वे मानते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है. गांववासी ही देश की चिति का सही प्रतिनिधित्व करते हैं. इसलिए देश का विकास करना है तो गांवों का सर्वांगीण विकास करना होगा. इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कृषि का विकास. इस पर उन्होंने खूब अध्ययन भी किया और चिंतन भी.
कृषि के बारे में पंडित जी का कालजयी विश्लेषण आज भी कितना प्रासंगिक है, इस पर एक नज़र डालते हैं. कृषि के बारे में उनके दर्शन को अगर एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो वह है, अदैव मात्रिका कृषि. यानी कृषि की ऐसी व्यवस्था जो सिर्फ प्रकृति पर निर्भर न हो. आज हम उसकी आवश्यकता कितनी ज्यादा अनुभव कर रहे हैं, यह कहने की नहीं, देखने की बात है. भारत की जनसंख्या का कितना विशाल वर्ग खेती-बाड़ी पर निर्भर है और जब उस पर कोई संकट आता है तो वह देश की सामाजिक व आर्थिक स्थिति पर चौतरफा असर करता है. उन्होंने राष्ट्र जीवन के हरेक पहलू की तरह कृषि को भी समग्रता से ही देखा.
उन्हें भारतीय किसानों के देशज ज्ञान पर बहुत भरोसा था. उन्होंने लिखा कि “जहाँ तक खेती की पद्धति का संबंध है, भारत के किसान ने परिस्थितियों के अनुरूप पद्धति का विकास किया है. युगों से चली आई पद्धतियों को आज की उन प्रक्रियाओं के पक्ष में, जिन पर न तो पूरे-पूरे प्रयोग हुए हैं और न भारत की समसमान अवस्थाओं में उन प्रयोगों को किया गया है, एकाएक नहीं छोड़ देना चाहिए. भारत का किसान फसलों की अदल-बदल कर बुवाई, हरी खाद का प्रयोग, मलमूत्र की खाद को पका कर उपयोग करना, भूक्षरण रोकने के लिए मेड़ बाँधना तथा वृक्ष लगाना आदि अनेक विधियों को भली-भाँति जानता है. उसने युगों से भूमि की उर्वरता को बनाए रखा है. हाँ, पिछले दिनों में विभिन्न कारणों से वह अपने ज्ञान का पूरा उपयोग नहीं कर पाया.”
पशुपालन को वे कृषि का अभिन्न अंग ही मानते थे. कहते थे कि “गाय और भैंसों का उपयोग दूध के लिए होगा, किन्तु बैल यदि हमारे कृषि के उपयोग में नहीं आता तो भार बन जाएगा. पश्चिम के देश गोमांसभक्षी हैं. अतः वे बैलों को खा जाते हैं. किन्तु भारत के लिए यह कल्पना करना उसकी परंपरा एवं राष्ट्रभावना के प्रति अज्ञानमूलक एवं अव्यावहारिक होगा. बैल हमारी खेती का धुरा है. ट्रैक्टर लाकर हम अपना सब महल ढहा देंगे.” आज के कृषि वैज्ञानिक इन सब चेतावनियों को दांतों तले उंगली दबाए महसूस कर रहे हैं. कृषि वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग अब खेती-बाड़ी की परंपरागत व्यवस्थाओं को ही भारत के अनुकूल मान रहा है.
आज पूरी दुनिया कीटनाशकों के जहर से त्रस्त है. रासायनिक उर्वरकों को लेकर भी संपूर्ण विश्व में बहस छिड़ी हुई है. पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 50 वर्ष पूर्व ही देश के नीति निर्माताओं को चेताया था कि “अन्न की उपज बढ़ाने के लिए तथा भूमि की उपजाऊ-शक्ति को बनाए रखने के लिए खाद की आवश्यकता है, किन्तु जमीनों का ठीक-ठाक सर्वेक्षण उत्पादन की पद्धति, फसल, सिंचाई के साधन आदि का विचार करके ही उसके उपयुक्त एवं योग्य मात्रा में खाद एवं उर्वरक का उपयोग होना चाहिए.”
कृषि के वैज्ञानिक पक्ष का भी उन्होंने भरपूर अध्ययन किया और अपने विचारों में उसका आग्रह भी रखा, जैसे फसल-चक्र. पांच दशक से भी पहले उन्होंने उन्नत बीजों के संबंध में हमारे शासकों को चेताया था. आज भी लगभग वह स्थिति बनी हुई है. पंडित जी विदेशी ज्ञान अथवा तकनीकी के विरोधी नहीं थे. उन्होंने कहा कि “हम विदेशों के परीक्षणों का लाभ अवश्य उठा सकते हैं, किन्तु अनुकरण नहीं कर सकते. हमें बाहर से प्राप्त ज्ञान के आधार पर अपने यहाँ अनुसंधान-केन्द्रों में पहले परीक्षण करके अपने गाँव की परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में ही उसका उपयोग करना चाहिए.”
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही सभी सरकारें व अर्थशास्त्री कृषि उत्पादों की सही मूल्य पर बिक्री की समस्या से जूझ रहे हैं. यह समस्या सुलझने की बजाए विकराल रूप लेती जा रही है. पंडित जी ने उसी समय इस समस्या की ओर भी नीति-निर्माताओं का ध्यान खींचा. उन्होंने कहा कि “उत्पादन-वृद्धि के कार्यक्रमों के साथ ही कृषि-माल के विपणन एवं ऋण की व्यवस्था भी करनी होगी. किन्तु बाजारों की योग्य व्यवस्था न होने के कारण किसान को कभी उचित दाम नहीं मिल पाया है.”
उन्होंने अन्न के भंडारण की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया. लेकिन उनका मानना था कि “आवश्यक है कि गाँवों में कोठार एवं गोदाम बनाए जायें तथा किसान को अपनी फसल की साख पर योग्य ऋण प्राप्त हो जाए.” गांवों में ही भंडारण पर जोर देने से उनका तात्पर्य था विकेंद्रीकरण से. उनका मानना था कि “यदि उत्पादक और उपभोक्ता के बीच दूरी कम की जा सके तथा बिचौलियों को हटाया जा सके तो मूल्यों का यह भारी अंतर तथा उतार-चढ़ाव भी बहुत कम हो जाएगा.”
उन्होंने कृषि के सामाजिक पक्ष का भी अध्ययन किया. उन्हें लगता था कि “जब से वैश्य समुदाय ने केवल वाणिज्य ही अपने पास रख लिया तथा अपना दूसरा काम छोड़ दिया तबसे ही विषमता पैदा हो गई है. तथा वाणिज्यजीवी लोगों की संख्या बढ़ गई है. केवल विनिमय के माध्यम के रूप में ही जो जीवित रहता हो वह अर्थ का प्रभाव बढ़ाएगा. हमें इस संख्या को न्यूनतम करना होगा. व्यापारी, उद्योगपति अथवा कृषक बनकर उत्पादक बनें यह आवश्यक है.”
लेकिन वे ग्राम विकास को सिर्फ खेती-बाड़ी तक ही सीमित नहीं रखते थे. उनका मानना था कि जब तक हम देशभर में कुटीर उद्योगों का जाल नहीं बिछाएंगे, तब तक यह विकास अधूरा रह जाएगा. देश में स्थानीय संसाधनों व स्थानीय कौशल के आधार पर स्थानीय बाजार बनें तो हम सही अर्थों में सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात कर सकते हैं. इसके लिए परंपरागत धंधों में कौशल विकास और देश की परिस्थितियों के अनुकूल होने के आग्रह के साथ ही समय के साथ उनके कदमताल करने की चिंता भी करनी होगी. समग्र विकास का सूत्र खेती के साथ अन्य कुटीर उद्योगों के उन्नयन से ही पूरा होता है. एकतरफा विकास में तो हम वैश्वीकरण की आंधी में बह जाएंगे.
लेखक – अतुल जैन