पौराणिक मान्यता है श्रीकृष्ण की तरह आदिदेव गणपति ने भी संदेश दिये थे, जिन्हें गणेशगीता में पढ़ा जा सकता है. इस ग्रंथ में योगशास्त्र का विस्तार से वर्णन है, जो व्यक्ति को बुराइयों के अंधकार से अच्छाइयों के प्रकाश की ओर ले जाता है.
लीलाओं का विस्तृत वर्णन
ब्रह्मावैवर्तपुराण में स्वयं भगवान कृष्ण मंगलमूर्ति गणेशजी को अपने समतुल्य बताते हुए कहते हैं कि मात्र वे दोनों ही ईश्वर का पूर्णावतार हैं. यद्यपि ब्रह्मावैवर्तपुराण एक वैष्णव महापुराण है, लेकिन इसमें गणेशजी को इतना अधिक महत्व दिया गया है कि इस ग्रंथ का एक बहुत बड़ा भाग ‘गणपतिखण्ड’ है, जिसमें भगवान गणेश के शिव-पार्वती के पुत्र होने की कथा, अनेक मंत्र-स्त्रोत तथा उनकी लीलाओं का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है.
श्रीगणेश और श्रीकृष्ण में एक बहुत बड़ा साम्य यह भी है कि दोनों ने गीता का उपदेश दिया है. ये दोनों गीताएं योगशास्त्र के गूढ़ ज्ञान से परिपूर्ण हैं, किंतु योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कही गई ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ तो विश्वविख्यात हो चुकी है, परंतु विघ्नेश्वर श्रीगणेश द्वारा उपदिष्ट ‘गणेशगीता’ केवल गाणपत्य संप्रदाय के मध्य ही सीमित रह गई है.
भीष्मपर्व का एक भाग
‘श्रीमद्भगवद्गीता’ महाभारत के भीष्मपर्व का एक भाग है, उसी तरह श्रीगणेशपुराण के क्रीड़ाखंड के 138वें अध्याय से 148वें अध्याय तक के भाग को ‘गणेशगीता’ कहते हैं. ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के 18 अध्यायों में 700 श्लोक हैं, तो ‘गणेशगीता’ के 11 अध्यायों में 414 श्लोक हैं.
भगवद्गीता का उपदेश महाभारत के युद्ध से पूर्व कुरुक्षेत्र की भूमि पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था, जबकि गणेशगीता का उपदेश युद्ध के पश्चात राजूर की पावनभूमि पर भगवान गणेश ने राजा वरेण्य को दिया था.
गणेशगीता में लगभग वे सभी विषय आये हैं, जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलते हैं. गणेशगीता में योगशास्त्र का जिस प्रकार मंथन करके ज्ञान-रूपी नवनीत दिया गया है, उसी तरह श्रीमद्भगवद्गीता में भी योगामृत सर्वसुलभ कराया गया है.
यही कारण है कि दोनों गीताओं के विषय और भाव एक-दूसरे से काफी मिलते-जुलते हैं. परंतु इन दोनों गीताओं में दोनों श्रोताओं की मन:स्थिति और परिस्थितियां पूर्णतया भिन्न हैं.
श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय से स्पष्ट है कि स्वजनों के प्रति मोह के कारण अर्जुन संशयग्रस्त हो गया था. वह अपना कर्तव्य के निर्वाह का ठीक निर्णय नहीं कर पा रहा था. किंकर्तव्य-विमूढ़ता के कारण अर्जुन शिथिल होकर निष्क्रिय हो गया था.
सिंदूरासुर का वध
गणेशगीता सुनते समय राजा वरेण्य मोहग्रस्त नहीं थे, अपितु वे मुमुक्षु-स्थिति में थे. वे अपने धर्म और कर्तव्य को भलीभांति जानते थे, पर उनके मन में केवल एक ही पश्चाताप था. उन्हें मात्र यही खेद था कि ‘मैं कैसा अभागा हूं कि स्वयं भगवान गणेश ने मेरे घर जन्म लिया, पर मैंने उन्हें कुरूप पुत्र समझकर त्याग दिया.
यह तो अच्छा हुआ कि पराशर मुनि ने उस बालक का पालन-पोषण किया. इसी नौ वर्ष के बालक गजानन ने सिंदूरासुर का वध करके पृथ्वी को उसके आतंक और अत्याचार से मुक्त किया है. अब मैं उन्हीं गजानन (गणेश) के श्रीचरणों में आश्रय लूंगा.’
राजा वरेण्य ने गजानन से प्रार्थना की-
विघ्नेश्वर महाबाहो सर्वविद्याविशारद. सर्वशास्त्रार्थतत्वज्ञ योगं मे वक्तुमर्हसि॥
अर्थात ‘हे महाबलशाली विघ्नेश्वर! आप समस्त शास्त्रों तथा सभी विद्याओं के तत्वज्ञानी हैं. मुझे मुक्ति पाने के लिए योग का उपदेश दीजिये.’
इसके उत्तर में भगवान गजानन ने कहा-
सम्यग्व्यवसिता राजन् मतिस्तेकनुग्रहान्मम. श्रृणु गीतां प्रवक्ष्यामि योगामृतमयीं नृप॥
अर्थात ‘राजन! तुम्हारी बुद्धि उत्तम निश्चय पर पहुंच गई है. अब मैं तुम्हें योगामृत से भरी गीता सुनाता हूं.’
श्रीगजानन ने ‘सांख्यसारार्थ’ नामक प्रथम अध्याय में योग का उपदेश दिया और राजा वरेण्य को शांति का मार्ग बतलाया. ‘कर्मयोग’ नामक दूसरे अध्याय में गणेशजी ने राजा को कर्म के मर्म का उपदेश दिया. ‘विज्ञानयोग’ नामक तीसरे अध्याय में भगवान गणेश ने वरेण्य को अपने अवतार-धारण करने का रहस्य बताया.
गणेशगीता के ‘वैधसंन्यासयोग’ नाम वाले चौथे अध्याय में योगाभ्यास तथा प्राणायाम से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातें बतलाई गई हैं. ‘योगवृत्तिप्रशंसनयोग’ नामक पांचवें अध्याय में योगाभ्यास के अनुकूल-प्रतिकूल देश-काल-पात्र की चर्चा की गई है.
‘बुद्धियोग’ नाम के छठे अध्याय में श्रीगजानन कहते हैं, ‘अपने किसी सत्कर्म के प्रभाव से ही मनुष्य में मुझे (ईश्वर को) जानने की इच्छा उत्पन्न होती है. जिसका जैसा भाव होता है, उसके अनुरूप ही मैं उसकी इच्छा पूर्ण करता हूं. अंतकाल में मेरी (भगवान को पाने की) इच्छा करने वाला मुझमें ही लीन हो जाता है. मेरे तत्व को समझने वाले भक्तों का योग-क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूं.’
गुणों का परिचय
‘उपासनायोग’ नामक सातवें अध्याय में भक्तियोग का वर्णन है. ‘विश्वरूपदर्शनयोग’ नाम के आठवें अध्याय में भगवान गणेश ने राजा वरेण्य को अपने विराट रूप का दर्शन कराया. नौवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान तथा सत्व, रज, तम-तीनों गुणों का परिचय दिया गया है.
भेद से तप के प्रकार
‘उपदेशयोग’ नामक दसवें अध्याय में दैवी, आसुरी और राक्षसी-तीनों प्रकार की प्रकृतियों के लक्षण बताये गये हैं. इस अध्याय में गजानन कहते हैं-‘काम, क्रोध, लोभ और दंभ- ये चार नरकों के महाद्वार हैं, अत: इन्हें त्याग देना चाहिये तथा दैवी प्रकृति को अपनाकर मोक्ष पाने का यत्न करना चाहिये.’ ‘त्रिविधवस्तुविवेक-निरूपणयोग’ नामक अंतिम ग्यारहवें अध्याय में कायिक, वाचिक तथा मानसिक भेद से तप के तीन प्रकार बताये गये हैं.
श्रीमद्भगवद्गीता और गणेशगीता का आरंभ भिन्न-भिन्न स्थितियों में हुआ था, उसी तरह इन दोनों गीताओं को सुनने के परिणाम भी अलग-अलग हुये. अर्जुन अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने के लिये तैयार हो गया, जबकि राजा वरेण्य राजगद्दी त्यागकर वन में चले गये.
वहां उन्होंने गणेशगीता में कथित योग का आश्रय लेकर मोक्ष पा लिया. गणेशगीता में लिखा है, ‘जिस प्रकार जल जल में मिलने पर जल ही हो जाता है, उसी तरह ब्रह्मारूपी श्रीगणेश का चिंतन करते हुए राजा वरेण्य भी ब्रह्मलीन हो गये.’
गणेशगीता आध्यात्मिक जगत् का दुर्लभ रत्न है, गणेशोत्सव में गणेशगीता पर चर्चा और व्याख्यान होने से यह योगामृत सबको सुलभ हो सकेगा.