नई दिल्ली. भारत में लघु उद्योग जीडीपी ग्रोथ, रोजगार, निर्यात और विकेन्द्रीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं. भूमंडलीकरण, खुले आयातों की नीति के कारण, चीनी माल की बाढ़ के कारण उत्पन्न असमान प्रतिस्पर्धा, कानूनों के जंजाल के कारण व्यवसाय में असुविधा के पूर्णतया अभाव और विपणन, वित्तीय और तकनीकी सहयोग के पूर्णतया अभाव के बावजूद भी लघु उद्यम किसी प्रकार से अपने अस्तित्व को बचाने के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं.
आवश्यकता इस बात की है कि सरकार के समर्थन, सहयोग, प्रोत्साहन से इन लघु उद्योगों का विकास किया जाए. इसीलिए भारत सरकार द्वारा लघु उद्योगों के लिए एक अलग मंत्रालय भी बनाया गया, ताकि उनसे संबंधित विषयों और समस्याओं का ठीक प्रकार से निराकरण किया जा सके. लेकिन अफसरशाही और राजनीतिक नेतृत्व का झुकाव भूमंडलीकरण और बड़े कॉरपोरेट की तरफ होने के कारण कई बार ऐसी नीतियां भी बनीं, जिससे लघु उद्योगों का केवल विकास ही बाधित नहीं हुआ बल्कि उनकी लागत पर बड़े कॉरपोरेट को लाभ भी पहुंचाने का प्रयास किया गया. 1991 से लागू नई आर्थिक नीति के प्रभाव में सबसे पहले लघु उद्योगों के लिए उत्पाद आधारित आरक्षण समाप्त कर दिया गया. इसके साथ ही साथ समय-समय पर लघु उद्योगों के लाभ के लिए सरकारी खरीद में प्राथमिकता, वित्त की सुविधा, तकनीकी सहयोग, इंडस्ट्रीयल इस्टेट आदि विविध नीतियों को भी धीरे-धीरे तिलांजली दी जाने लगी. लघु उद्योगों के लिए अभी तक उपलब्ध 1.5 करोड़ रुपए तक उत्पादन में एक्साईज ड्यूटी में छूट को हाल ही में लागू जीएसटी प्रणाली में दरकिनार कर दिया गया. हालांकि लघु उद्योग संघों के दबाव में कम्पोजिट स्कीम के माध्यम से लघु उद्योगों को नई जीएसटी प्रणाली में कुछ राहत देने का प्रयास जरूर हुआ.
07 फरवरी 2018 को एक कैबिनेट द्वारा एमएसएमई की परिभाषा को बदलने का निर्णय ले लिया गया. वर्तमान में सूक्ष्म उद्यम वे हैं, जिनमें प्लांट एंड मशीनरी कुल लागत 25 लाख या उससे कम है, लघु उद्यमों के लिए यह परिभाषा 5 करोड़ और मध्यम दर्जे के उद्यमों के लिए यह परिभाषा 10 करोड़ की है. लेकिन अब इस परिभाषा को प्लांट एंड मशीनरी के बजाय टर्न ओवर के आधार पर बदला जा रहा है. नई परिभाषा में माइक्रो उद्यम वे होंगे, जिनकी टर्न ओवर 5 करोड़ या उससे कम है. लघु उद्यमों के लिए यह सीमा 50 करोड़ रखी गई है और मध्यम उद्यमों के लिए यह सीमा 250 करोड़ रखी गई है. हमारा मानना है कि वर्तमान में एमएसएमई की परिभाषाओं को बदलने का कोई कारण नहीं है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम वर्ग के उद्योगों की प्रकृति और समस्याएं भिन्न किस्म की हैं, इसलिए उन्हें एमएसएमई में एक साथ रखना भी सही नीति नहीं है. इसी प्रकार मैन्यूफैक्चरिंग और गैर मैन्यूफैक्चरिंग (सेवा) इकाईयों के साथ एक समान व्यवहार भी उचित नहीं है.
क्यों गलत है यह बदलाव?
कुछ समय पूर्व भारत सरकार द्वारा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों के लिए राष्ट्रीय नीति संबंधी सुझावों के लिए पूर्व कैबिनेट सैक्रेटरी प्रभात कुमार की अध्यक्षता में एक वैयक्तिय कमेटी का गठन किया गया था. इस कमेटी ने भी एमएसएमई की परिभाषा को प्लांट एवं मशीनरी की लागत के आधार पर ही रखने की सिफारिश की थी, हालांकि अफसरशाहों ने इसे बदलकर टर्न ओवर पर रखने का सुझाव दिया था. उनके सुझाव को इस कमेटी ने खारिज कर दिया था. इसके बावजूद भी इस परिभाषा को बदलने का निर्णय हितधारकों, विशेषतौर पर लघु उद्यमियों के सुझावों के ही विपरीत नहीं है, बल्कि यह एमएसएमई के लिए राष्ट्रीय नीति के लिए सुझाव देने हेतु बनी समिति की सिफारिशों के भी खिलाफ है. सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों की परिभाषा में यह बदलाव लघु उद्योगों के लिए अहितकारी है. हमारा मानना है कि दुनिया भर में कहीं भी लघु उद्यमों की परिभाषा में मात्र टर्न ओवर आधार नहीं रहा है. गौरतलब है कि देश में 98 प्रतिशत लघु इकाईयों की वार्षिक टर्न ओवर 15 करोड़ रूपये से कम है. इसका मतलब यह है कि परिभाषा में वर्तमान बदलाव से मात्र 2 प्रतिशत बड़ी इकाईयों को एमएसएमई के लाभ पहुंचाने की कवायद की जा रही है. भारत में इस प्रकार की परिभाषा लाने से पूरी आशंका है कि लघु उद्यमी उद्योगों की बजाय अब ट्रेडिंग और असेम्बलिंग के माध्यम से भी लघु उद्यमों के लिए उपलब्ध सरकारी रियायतों का पूरा लाभ उठा लेंगे. इसके कारण वास्तविक रूप से उद्योग चलाने वाले लोग ट्रेडर्स यानि व्यापारी बनने की ओर अग्रसर होंगे. सर्वविदित ही है कि देश में रोजगार निर्माण के लिए लघु उद्योगों का विकास बहुत जरूरी है. इसलिए इसकी पूरी आशंका है कि परिभाषा में यह बदलाव मेक इन इंडिया एवं रोजगार निर्माण के विरूद्ध काम करेगा.
भूमंडलीकरण के युग में लघु उद्योग विरोधी आर्थिक नीतियों के कारण भारत के लघु उद्योग धीरे-धीरे विलुप्त हो गए हैं और देश के बाजारों में विदेशी खासतौर पर चीनी सामान छाने लगा है. लघु उद्यमी व्यापारी बनते जा रहे हैं, जो चीन से सामान लाकर बेचने के लिए ही मजबूर हो रहे हैं. जो थोड़े बहुत प्रोत्साहन लघु उद्योगों को उपलब्ध हैं, उनके आधार पर अभी तक प्लांट एंड मशीनरी की उस परिभाषा के कारण चाहे थोड़ी ही मात्रा में क्यों न हो, कुछ लघु उद्योग चल पा रहे हैं क्योंकि बड़े उद्यम लघु उद्योग की परिभाषा में नहीं आते. लेकिन नई परिभाषा के आधार पर अब बड़े उद्यम भी लघु उद्यम के नाते परिभाषित हो जाएंगे, जिसका खामियाजा देश के उस युवा को भुगतना पड़ेगा जो लघु उद्योगों में रोजगार पा सकता है. खेद का विषय है कि अफसरों द्वारा लघु उद्योग विरोधी सुझावों के आधार पर उद्योग संघों के विरोध के बावजूद इस परिभाषा को बदलने हेतु संसद में विधेयक लाया जा रहा है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि इससे पूर्व अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व में लघु उद्योगों की परिभाषा को बदलकर जब प्लांट एवं मशीनरी में निवेश की सीमा को 3 करोड़ से घटाकर 1 करोड़ किया गया था तो स्वरोजगार को भारी बढ़ावा मिला था और देश में कुल कार्यशील जनसंख्या में स्वरोजगार का योगदान 54 प्रतिशत से बढ़कर 57 प्रतिशत हो गया था.
स्वदेशी जागरण मंच एवं लघु उद्योग भारती प्रधानमंत्री एवं सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय से आग्रह करता है कि लघु उद्योगों, मेक इन इंडिया, उद्यम विकास और हमारे युवाओं के हित में संसद में एमएसएमई की परिभाषा को बदलने के उद्देश्य से लाए गए विधेयक को पारित करने की प्रक्रिया पर रोक लगाए.