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क्या हैं वोकल फॉर लोकल के सही मायने

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गोपाल गोस्वामी

प्रधानमंत्री ने जब वोकल फॉर लोकल का आह्वान किया, तब मन में एक प्रश्न उठा, क्या टीवी, मोबाइल फ़ोन, गाड़ियां, जूते, कपड़े, शीतल पेय या पिज़्ज़ा बर्गर का बहिष्कार, चीनी उत्पादों का बहिष्कार ही आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न पूरा कर पाएगा? जब पंजाब के किसान से दस रुपये किलो में खरीदा गया गेहूं चेन्नई में जाकर २५ रुपये में बिकेगा और बीच का पैसा बिचौलियों व परिवहन में चला जाएगा वो वोकल फॉर लोकल कहलाएगा? क्या रत्नागिरी का हाफुस आम वहां के स्थानीय लोगों से बीस रुपये किलो में खरीदकर दिल्ली व गुजरात में पांच सौ रुपये किलो में बेचा जाए वो वोकल फॉर लोकल है?

किसान के पसीने से उगाया गया, टमाटर यदि उसे सड़क पर फैंकना पड़े और किसान को आत्महत्या करनी पड़े ये वोकल फॉर लोकल है? हमारी क्या समझ है, लोकल की पहले यह स्पष्ट होना आवश्यक है?

प्रकृति ने हमारे आसपास के वातावरण को ध्यान में रखकर विभिन्न प्रकार की वनस्पति, अनाज, शाक, जड़ी बूटियां, फल-फूल व पशु पक्षियों को वहां बसाया. यदि हम अपनी पूजा पद्धतियों व रीति रिवाजों का ध्यान करें तो पाएंगे कि शास्त्रों में भी देश काल के अनुसार ही पूजा सामग्री का आयोजन किया है, ‘यदि उपलब्ध हो’ ऐसा लिखा हुआ पाते हैं. इसका आशय है कि जिस प्रखंड में आप निवास करते हैं, वहां के वातावरण में उत्पन्न होने वाले पदार्थ ही सुभोज्य हैं. सुभोज्य का आशय सुपाच्य व आरोग्य के लिए उत्तम ऐसा कहा जा सकता है. उदाहरण के लिए भारत में गाय की विभिन्न प्रजातियां प्रदेशों के अनुसार हैं, गुजरात में गीर गाय है, राजस्थान में कांकरेज तो उत्तराखंड में बद्री. यदि हम इनका निवास बदल दें तो उनके दूध की गुणवत्ता व प्रमाण दोनों क्षमताओं में परिवर्तन देखने को मिलता है. उत्तराखंड में तरुड़, गडेरी, गेठी नामक कंद व फल होते हैं जो और केवल पहाड़ों पर ही उत्पन्न होते हैं और वहीं के लिए उपयोगी हैं. वहां के ठन्डे वातावरण के लिए उपयुक्त और पौष्टिक, जो उत्तर प्रदेश या तमिलनाडु में नहीं होते. इसी प्रकार कई वनस्पतियां व शाक हैं जो उत्तराखंड में नहीं होते, यह प्राकृतिक स्वास्थ्य का नैसर्गिक नियम है.

गुजरात में तटीय वातावरण होने से यहाँ पर मूंगफली, अरेंडा, कपास का उत्पादन बहुतायत में होता है. यह तेल यहाँ के वातावरण में शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक प्रोटीन, मिनरल्स व विटामिन का स्रोत है. यहाँ पर चीकू, आम, केला, खजूर, बेर इत्यादि फल प्रचुर मात्रा में होते हैं जो यहाँ के लिए उपयुक्त खाद्य हैं. गुजरात में प्याज, लहसुन, मिर्च, जीरा आदि भी अत्यधिक मात्रा में होते हैं जो कि तटीय क्षेत्रों की आवश्यकता हैं.

प्रायः देखा गया है कि खेती के उत्पादों के मूल मूल्य से अधिक परिवहन खर्च हो रहा है, क्योंकि अच्छे बाजारों की तलाश में हम उनको हजारों मील दूर तक भेज रहे हैं जो संसाधनों का दुरूपयोग ही है. गुजरात में प्याज बहुतायत में होता है तो क्यों हम महाराष्ट्र से प्याज खरीदें और कुछ लोग गुजरात का प्याज महाराष्ट्र में जाकर बेचें? ये कैसा व्यापार का मॉडल है? हमारे व्यापार के केंद्र में मुनाफा न होकर यदि हमारा ग्राहक हो तो क्या हम ऐसा करेंगे ?

यदि हम अपने आसपास उगने वाले शाकों, तेल, अनाज व मसालों का उपयोग करें, तो इससे हमारा स्वास्थ्य तो उत्तम रहेगा ही हमारे किसानों में बाजार खोजने की चिंता नहीं रहेगी, उनको फसल का आयोजन करने में सरलता होगी क्योंकि उनको उनके ग्राहक को ध्यान में रखते हुए ही बुवाई करनी है जो उनके पास पहले से चिन्हित है. उपभोक्ता को मिलावट, दलाली के बिना शुद्ध खाद्य पदार्थ उपलब्ध होंगे, सब्जियां यदि आसपास के २०-५० किमी से आएंगी तो प्रतिदिन ताजा भोजन में उपयोग हो पाएंगी. सबसे बड़ा लाभ होगा विश्वसनीयता का, जो आज ह्रास हो चुकी है क्योंकि बेचने वाला निश्चिंत है कि यह उसका उत्पाद है, यह कोई जान नहीं पाएगा तो गुणवत्ता में ध्यान नहीं देगा. केवल उत्पादन बढ़ने के अनाप शनाप तरीके ढूंढेगा. दूसरी और आज उपभोक्ता को उत्पाद के मूल का कोई अता पता नहीं होता, वह यदि ख़राब गुणवत्ता की शिकायत करना भी चाहे तो किससे? यही कारण है, आज कृषि व दुग्ध पदार्थों में उत्पादन के लिए बेलगाम रसायनों व कीटनाशकों का उपयोग हो रहा है व हमारी थाली कैंसर, मधुमेह, रक्तचाप व न जाने कितनी बिमारियों से भरी पड़ी है.

स्थानीय स्तर पर यदि उपभोक्ता व किसान आपस में विनिमय करें तो दोनों एक दूसरे के हितों का ध्यान रख उत्पादन कर समाज, देश के स्वास्थ्य व किसानों के हितों का रक्षण कर पाएंगे. बिचौलियों, संग्रहखोरों, परिवहन व भण्डारण पर होने वाला खर्च किसान व उपभोक्ता आपस में बाँट सकते हैं. इसलिए आवश्यकता है, समाज में हाउसिंग सोसाइटी के लोग एकत्र होकर अपने जिले के किसानों का एक समूह चिन्हित करें व उनसे अपनी आवश्कयताओं पर चर्चा कर अपने अनुकूल फसलों व सब्जियों का उत्पादन करवाएं. इससे हमारा किसान भी सबल होगा और हमारा व हमारे बच्चों का स्वास्थ्य भी.

यदि ग्रामीण क्षेत्र का पढ़ा लिखा युवा कृषि पैदावार का मूल्यवर्धन गांव में ही करे, उदाहारण के लिए यदि प्रत्येक जिले की प्रत्येक तहसील में टमाटर का सॉस बनाने की एक फैक्ट्री, आलू के चिप्स बनाने की फैक्ट्री, अचार व मसाले बनाने के गृह व कुटीर उद्योग, बेकरी, मूंगफली के विभिन्न उत्पाद जैसे पीनट बटर व अन्य मूल्यवर्धित उत्पाद जो आज के युवा वर्ग में लोकप्रिय है, उनका उत्पादन गांव में ही कर सकते हैं. दाल, चावल, कपास, जीरा, हल्दी, धनिया, काली मिर्च, अजवाइन को साफ़ कर उनका निर्यात की व्यवस्था से हम ग्राम्य अर्थ तंत्र व ग्रामीण जीवन को पुनः वैभवशाली बना सकते है.

हम छोटे प्रयासों से बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं. यदि हम ऐसा कर पाए तो यही सच्चे अर्थों में वोकल फॉर लोकल होगा.

(लेखक रिसर्च स्कॉलर हैं)

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