नई दिल्ली. स्वतन्त्रता संग्राम के समय उत्तर भारत में क्रान्तिकारियों की दो त्रिमूर्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हुईं. पहली चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खाँ की थी, जबकि दूसरी भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की थी. इनमें से सुखदेव का जन्म ग्राम नौघरा (जिला लायलपुर, पंजाब, वर्तमान पाकिस्तान) में 15 मई, 1907 को हुआ था. इनके पिता प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता रामलाल थापर तथा माता रल्ली देई थीं. सुखदेव के जन्म के दो साल बाद ही पिता का देहान्त हो गया. अतः इनका लालन-पालन चाचा अचिन्तराम थापर ने किया. सुखदेव के जन्म के समय वे जेल में मार्शल लॉ की सजा भुगत रहे थे. ऐसे क्रान्तिकारी वातावरण में सुखदेव बड़ा हुये.
जब वह तीसरी कक्षा में थे, तो गवर्नर उनके विद्यालय में आये. प्रधानाचार्य के आदेश पर सब छात्रों ने गवर्नर को सैल्यूट दिया, पर सुखदेव ने ऐसा नहीं किया. जब उनसे पूछताछ हुई, तो उन्होंने साफ कह दिया कि मैं किसी अंग्रेज को प्रणाम नहीं करूँगा. आगे चलकर सुखदेव और भगतसिंह मिलकर लाहौर में क्रान्ति का तानाबाना बुनने लगे. उन्होंने एक कमरा किराये पर ले लिया. वे प्रायः रात में बाहर रहते थे या देर से आते थे. इससे मकान मालिक और पड़ोसियों को सन्देह होता था. इस समस्या के समाधान के लिये सुखदेव अपनी माता जी को वहाँ ले आये. अब यदि कोई पूछता, तो वे कहतीं कि दोनों पीडब्ल्यूडी में काम करते हैं. नगर से बहुत दूर एक सड़क बन रही है. वहाँ दिन-रात काम चल रहा है, इसलिये इन्हें आने में प्रायः देर हो जाती है.
सुखदेव बहुत साहसी थे. लाहौर में जब बम बनाने का काम प्रारम्भ हुआ, तो उसके लिये कच्चा माल फिरोजपुर से वही लाते थे. एक बार माल लाते समय वे सिपाहियों के डिब्बे में चढ़ गये. उन्होंने सुखदेव को बहुत मारा. सुखदेव चुपचाप पिटते रहे, पर कुछ बोले नहीं, क्योंकि उनके थैले में पिस्तौल, कारतूस तथा बम बनाने का सामान था. एक सिपाही ने पूछा कि इस थैले में क्या है ? सुखदेव ने त्वरित बुद्धि का प्रयोग करते हुए हँसकर कहा –दीवान जी, पिस्तौल और कारतूस हैं. सिपाही भी हँस पड़े और बात टल गयी.
जब साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शन के समय लाठी प्रहार से घायल होकर लाला लाजपतराय की मृत्यु हुई, तो सांडर्स को मारने वालों में सुखदेव भी थे. उनके हाथ पर ॐ गुदा हुआ था. फरारी के दिनों में एक दिन उन्होंने वहाँ खूब सारा तेजाब लगा लिया. इससे वहाँ गहरे जख्म हो गये, पर फिर भी ॐ पूरी तरह साफ नहीं हुआ. इस पर उन्होंने मोमबत्ती से उस भाग को जला दिया.
पूछने पर उन्होंने मस्ती से कहा कि इससे मेरी पहचान मिट गयी और पकड़े जाने पर यातनाओं से मैं डर तो नहीं जाऊँगा, इसकी परीक्षा भी हो गयी. उन्हें पता लगा कि भेद उगलवाने के लिये पुलिस वाले कई दिन तक खड़ा रखते हैं. अतः उन्होंने खड़े-खड़े सोने का अभ्यास भी कर लिया. जब भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी घोषित हो गयी, तो जनता ने इसके विरोध में आन्दोलन किया. लोगों की इच्छा थी कि इन्हें फाँसी के बदले कुछ कम सजा दी जाये. जब सुखदेव को यह पता लगा, तो उन्होंने लिखा,‘‘हमारी सजा को बदल देने से देश का उतना कल्याण नहीं होगा, जितना फाँसी पर चढ़ने से.’’ स्पष्ट है कि उन्होंने बलिदानी बाना पहन लिया था. 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह और राजगुरु के साथ सुखदेव भी हँसते हुए फाँसी के फन्दे पर झूल गये.